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Updated: 03 अगस्त, 2015 08:19 PM
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राजनीति भी अजीब चीज है. इसकी खासियत है कि यह हर एक चीज में राजनीति ढूंढ लेती है. भूख, गरीबी, धर्म, दंगा, विकास - शब्द कोई भी हो, राजनीति से बच नहीं सकता. 'हिंदू आतंकी' भी इससे बच न सका. कांग्रेस और वामपंथी इसे राजनीति के अपने चश्मे से देखते हैं जबकि बीजेपी के लिए इसके मायने 180 डिग्री से बदल जाते हैं. सभी दल इसके लिए बीजेपी-आरएसएस पर निशाना साधते हैं तो बीजेपी इस टर्म को उछालने के लिए इन पर पलटवार करती है. इन सब के बीच हकीकत कुछ और ही निकल कर आ रही है.

'हिंदू आतंकी' टर्म को उछालने को लेकर गृहमंत्री राजनाथ सिंह यूपीए पर निशाना साधते हैं. उनका कहना है कि यूपीए के द्वारा इस टर्म को उछालने से आतंकवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई कमजोर हुई है. लेकिन सेवानिवृत न्यायाधीश मनमोहन सिंह लिब्रेहान ने जो खुलासा किया है, उससे 'हिंदू आतंकी' मालेगांव या समझौता ब्लास्ट से बहुत पहले की विचारधारा हो जाती है.

1992 बाबरी मस्जिद विध्वंस की जांच करने के लिए एक कमिशन का गठन किया था. तब पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के न्यायाधीश मनमोहन सिंह लिब्रेहान को इस कमिशन का अध्यक्ष बनाया गया था. 17 वर्षों के बाद 2009 में उन्होंने जो रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी थी, उसमें 'हिंदू आतंकी' का जिक्र है.       

सेवानिवृत न्यायाधीश लिब्रेहान को हालांकि अपनी ही रिपोर्ट के माध्यम से कुछ अच्छा होने की उम्मीद नहीं है. उनका कहना है कि उन्होंने बहुत सारी सिफारिशें दी हैं. लेकिन किसी भी पार्टी की सरकार ने इन पर फैसला लिया हो, ऐसा अब तक नहीं हुआ है. नाउम्मीद होकर उन्होंने यहां तक कह दिया - राजनीति सिर्फ वोट और नारों पर होती है. जांच या कमिशन सब फालतू बातें हैं. सिख दंगा, सुभाष चंद्र बोस संबंधी कमिशनों की तरह यह भी रद्दी की टोकरी में पड़ा रहेगा.    

नेताओं पर अपनी भड़ास निकालते हुए उन्होंने कहा कि सच कहने की कीमत वो आज तक चुका रहे हैं और शायद आगे भी चुकाते रहेंगे. उनका कहना है कि देश की जांच एजेंसियां नेताओं के हाथ की कठपुतली हैं और यदि नेता चाह लें तो बड़े से बड़ा मामला 15 दिनों में सुलझाया जा सकता है.

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लेखक

चंदन कुमार चंदन कुमार @chandank.journalist

लेखक iChowk.in में पत्रकार हैं.

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