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Updated: 28 अक्टूबर, 2017 05:51 PM
प्रभुनाथ शुक्ल
प्रभुनाथ शुक्ल
 
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गुजरात चुनाव को लेकर काँग्रेस और भाजपा में सहमाती का सियासी खेल शुरू हो गया है. गुजरात पर कब्जा ज़माने के लिए काँग्रेस जहाँ बेताब है, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने गृहराज्य के गढ़ को बचाने की चुनौती है. पंजाब के गुरदासपुर संसदीय उपचुनाव में कांग्रेस जीत के बाद काफी उत्साहित दिख रही है, क्योंकि इस पर चार बार से भाजपा सांसद रहे विनोद खन्ना की मौत के बाद इस सीट पर कब्जा ज़माने में वह सफल रही है. लेकिन इस बार भाजपा की पराजय कई सवाल खड़े करती है. इसका प्रभाव गुजरात पर नहीं पड़ेगा, यह सम्भव नहीं दिखता. गुजरात पंजाब से सटा राज्य हैं. वहाँ भाजपा और अकाली दल ने दस साल शासन किया, लेकिन इस बार वह साफ हो गई. फ़िर यह कहना कि गुजरात में इस सियासी उलट फेर का प्रभाव नहीं पड़ेगा, मुनासीब नहीं दिखता है. वैसे गुरुदासपुर में काँग्रेस को मिली बड़ी जीत से पार्टी को एक नई उम्मीद बंधी है. इससे यह साबित हो गया है कि मोदी की सुनामी अब थम रही है.

गुजरात के सियासी हालात पहले से काफी बदल चुके हैं. पीएम मोदी की दिल्ली की कमान सम्भालने के बाद से भाजपा के गुजरात कैडर में कोई सर्वमान्य नेता नहीं दिखता है. दूसरी सबसे बड़ी वजह काँग्रेस और भाजपा जैसे दो सियासी ध्रुवों के अलावा जातीय समीकरण तेजी से उभरा है. जिस जातीय समीकरण की वजह से काँग्रेस और भाजपा अब तक राज्य की सत्ता पर काबिज रहीं वह पाटीदार आंदोलन के बाद बिखरता और टूटता दिख रहा है. इसके बाद जातीय नेताओं के उभार से स्थिति और भी बदल गई है. पाटीदारों के आरक्षण आंदोलन के बाद तो गुजरात में सियासत का नया क्षितिज उभरा है. जिसका लाभ काँग्रेस लेना चाहती है.

गुजरात, गोधरा, नरेंद्र मोदी, इलेक्शन

भाजपा को राज्य से बाहर का रास्ता दिखाने के लिए दलित, पटेल और ओबीसी नेताओं से एक नया गठजोड़ बनेगा जो हिन्दुत्ववादी होते हुए भी गैर भाजपाई होगा. क्योंकि सत्ता में होने की वजह से भाजपा सभी दलों को टक्कर देगी. सभी की लड़ाई भाजपा से होगी जबकि भाजपा से सीधा मुकाबला करने में अभी काँग्रेस ही सबसे बड़ा विकल्प है. उस स्थिति में जातीय आधार पर बने दल भाजपा को पराजित करने के लिए एक साथ काँग्रेस से हाथ मिला सकते हैं. क्योंकि जातीय नेताओं को अपनी ताकत दिखाने का आम चुनाव से बढ़िया मौका भी नहीं मिलेगा. दूसरी बात अगर यह प्रयोग सफल हुआ तो 2019 का गुजरात प्रयोग गैर भाजपाई दलों और डूबती काँग्रेस के लिए संजीवनी होगी. हालांकि, राज्य में भाजपा बेहद मजबूत स्थिति में है, क्योंकि केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा की सत्ता है. हाल में पीएम ने कई हजार करोड़ की विकास परियोजनाओं की आधारशिला भी रखी है. गुजरात में अगर सत्ता परिवर्तन होता है तो केंद्र से संचालित योजनाओं पर बुरा असर पड़ सकता है. वैसे भी मोदी एण्ड शाह कंपनी अपनी ज़मीन कभी खिसकने नहीं देगी. क्योंकि अगर भाजपा के हाथ से गुजरात गया तो 2019 की राह उसके लिए इतनी आसान नहीं होगी. हालाँकि अगड़ी जाति अगर भाजपा का साथ छोड़ती है, तो हालात बदल सकते हैं.

गुजरात में कुल 182 सीट हैं. जबकि राज्य पार्टी अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी ने 125 सीट जितने का अभी दावा किया है. राज्य में पटेल सामान्य जाति में आते हैं. पटेलों में दो जातियाँ हैं लेउवा और कड़वा. कुल आबादी का 20 फीसद पटेल हैं. लेउवा की आबादी 60 और कड़वा की 40 फीसदी है. 2012 के आम चुनाव में भाजपा को पटेल समुदाय के 80 फीसदी वोट मिले थे. गुजरात सरकार में 44 पाटीदार विधायक हैं. गुजरात के 54 प्रतिशत ओबीसी में 30 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा ठाकुर समाज का है. गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल भी इसी समुदाय से आती हैं जिसका युवा अपनी बेरोज़गारी और पिछड़ेपन को लेकर सड़कों पर उतरा हुआ है. लेकिन जातीय समीकरणों के उभार से स्थितियां बदल चुकी हैं.

हार्दिक पटेल एक नया चेहरा हैं. आरक्षण आंदोलन को लेकर हार्दिक नई भूमिका में हैं. इसके अलावा दलित नेता मेवानी और पिछड़ी जाति के अल्पेश ठाकुर भाजपा के लिए मुसीबत बन सकते हैं. उधर यूपी की तर्ज पर गुजरात में भी समाजवादी पार्टी और काँग्रेस हाथ मिलाने को बेताब हैं. दोनों दलों में राजनैतिक गठजोड़ का लाभ काँग्रेस को मिल सकता है. वैसे यूपी में यह साथ जनता को पसंद नहीं आया था. दोनों दलों का यह राजनीतिक स्लोगन था कि यूपी को यह साथ पसंद है. लेकिन दोनों की बुरी पराजय हुई. सत्ता में होते हुए भी सपा के युवा अखिलेश यादव को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी जबकि काँग्रेस 2012 से भी बुरा प्रदर्शन किया. क्योंकि हवा का रुख सीधे मोदी, योगी, भगवा, भाजपा के और हिंदुत्व के साथ था. हिंदुत्व के पोस्टर ब्वॉय योगी आदित्य नाथ को आगे कर भाजपा ने बड़ी जीत हासिल की. इसी तरह केरल में बढ़ती संघ कर्ताओं की हत्या से निपटने के लिए योगी को भेजा गया.

इसके बाद गुजरात में गौरव यात्रा में पार्टी ने योगी का उपयोग किया. गुजरात में अगर मोदी का विकास मंत्र फेल नज़र आया तो भाजपा अंतिम दौर में हिंदुत्व कार्ड खेल कर योगी को आगे कर राममंदिर और अयोध्या को एक बार फ़िर मुख्य मसला बना सकता है. क्योंकि काँग्रेस भाजपा से अकेले दम पर आज़ भी मुकाबला करने में सक्षम नहीं दिखती है. काँग्रेस को बड़े चेहरे शंकर सिंह वाघेला की पार्टी से अलविदा कहना मुश्किल में डाल सकता है. अधिकतर पाटीदार गुजरात, एमपी और राजस्थान में निवास करते हैं. देश में इनकी आबादी 27 करोड़ है. मूल रुप से यह गुजरात के निवासी हैं. इनका मुख्य पेशा कृषि आधारित है. देश के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल इसी समुदाय से थे . जिन्हें देश की रियासतों को एक करने का श्रेय जाता है.

शिक्षा के लिए केशव भाई पटेल ने अच्छा काम किया था. राजनीति में पाटीदार समाज का योगदान व्यापक है. देश के 29 राज्यों में दो मुख्यमंत्री इसी पाटीदार समाज से हैं. देश के कुल 117 पाटीदार सांसदों में 29 गुजरात से हैं जिसमें छह पटेल हैं. राज्य की छह करोड़ आबादी में 1.50 करोड़ पाटीदार हैं. इसलिए भाजपा के लिए पाटीदार समाज की नाराजगी भारी पड़ सकती है. कुल मिलाकर अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी. लेकिन गुजरात में ही दुनिया की सबसे आदमकद सरदार वल्लभभाई की प्रतिमा का निर्माण चल रहा है. आरक्षण को लेकर नाराज़ पाटेल समुदाय भाजपा का कितना साथ देती है यह वक्त बताएगा. लेकिन इस बार पाटीदार आन्दोलन से इतना साफ हो गया है कि गुजरात में सत्ता की चाबी पटेलों के हाथ होगी.

हार्दिक पटेल के साथ अगर पाटीदार मजबूती से खड़ा हुआ तो भाजपा, भगवा और प्रधानमंत्री मोदी के लिए गृहराज्य को बचाना आसान नहीं होगा. गुजरात को बचना पीएम मोदी और भाजपा के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है. वैसे भी जातीय समीकरणों के आधार पर अगर मतों का बिखराव होता है तो गुजरात में एक नई तरह की राजनीति तैयार होगी. हालाँकि राज्य में काँग्रेस अभी उतनी मजबूत स्थिति में नहीं दिखती है. भाजपा को सीधी टक्कर देने के लिए उसे मजबूत राजनीतिक समीकरणों की तलाश करनी होगी.

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