New

होम -> सियासत

बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 31 अगस्त, 2022 09:34 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
  • Total Shares

दिल्ली में न सही, लेकिन जम्मू-कश्मीर में तो गुलाम नबी आजाद (Ghulam Nabi Azad) के साथ जाने वाले लगता है, एक दूसरे से कह रहे हों - तू चल मैं आता हूं. सूबे के सौ से ज्यादा छोटे-बड़े नेताओं के आजाद के समर्थन में चले जाने की खबरें आ रही हैं. इतना ही नहीं, दूसरे दलों के नेताओं का आजाद के पक्ष में लामबंद होना अलग ही इशारे कर रहा है.

कांग्रेस (Congress) छोड़ते ही गुलाम नबी आजाद ने अपनी नयी पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया था. ऐसा भी नहीं कि गुलाम नबी आजाद ने ये यूं ही बोल दिया था. पहले जम्मू-कश्मीर जाकर लोगों से घूम घूम कर मुलाकात की थी. रैलियां की थी और तमाम क्षेत्रीय नेताओं को टटोलते हुए पूरा होम वर्क भी किया था - और तब कहीं जाकर इतना बड़ा फैसला भी लिया. आजाद के पीछे कश्मीर में नेताओं की लगी कतार इसे साबित भी कर रही है.

गुलाम नबी आजाद के कांग्रेस छोड़ने से राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और उनकी टीम तो खुश ही होगी. करीब करीब वैसी ही खुशी तब भी हुई होगी जब कपिल सिब्बल ने कांग्रेस छोड़ी थी. हो सकता है, राहुल गांधी की टीम पर गुलाम नबी आजाद के कांग्रेस छोड़ने का कोई असर न हुआ हो, लेकिन राहुल गांधी पर अपने सुरक्षा गार्डों और पीए की सलाह पर चलने का इल्जाम लगा कर कांग्रेस को अलविदा कहने वाले गुलाम नबी आजाद कांग्रेस में बचे असंतुष्ट नेताओं के रोल मॉडल बनने लगे हैं.

जिन नेताओं के पास ऑप्शन नहीं हैं, वे तो निश्चित तौर पर मन मसोस कर रह जाते होंगे. जिनका जम्मू-कश्मीर से कोई वास्ता नहीं है, सीधे सीधे तो वे भी गुलाम नबी आजाद के कदम से खुद को डिस्कनेक्ट पाते होंगे, लेकिन कई ऐसे भी नेता हैं जो उनको रोल मॉडल की तरह देखने लगे हैं.

कांग्रेस में तो हिमंता बिस्वा सरमा और ज्योतिरादित्य सिंधिया पहले से ही रोल मॉडल बने हुए हैं, लेकिन गुलाम नबी आजाद ने पुराने साथियों को एक नयी ऊर्जा और उम्मीद से लबालब कर दिया है, ऐसा लगता है.

कांग्रेस के लिए नुकसानदेह तो हिमंत बिस्वा सरमा और सिंधिया दोनों ही खतरनाक साबित हुए, लेकिन दोनों में एक बड़ा फर्क भी रहा. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस की मध्य प्रदेश में बनी बनायी सरकार गिरा दी थी, जबकि हिमंत बिस्वा सरमा ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर असम में बीजेपी की सरकार बनवा दी थी - और पांच साल बाद ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भी काबिज हो गये.

नुकसान तो कांग्रेस को ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी पहुंचाया लेकिन सरकार गिराने के बावजूद वो कुछ ही विधायकों को साथ ले जा पाये. बाकी कांग्रेस बची रही. जैसे एकनाथ शिंदे की बगावत के बावजूद शिवसेना का पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर अभी उद्धव ठाकरे के पास ही लगता है.

असल में गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस में जो राह दिखायी है, वो है तो हिमंता बिस्वा सरमा जैसी, लेकिन असफल हो जाने के बावजूद कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसी लगती है. हिमंत बिस्वा सरमा भी बीजेपी में ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह गये थे - और धीरे धीरे अपनी ताकत बढ़ाते गये. ताकत भी इतनी ही संघ के बैकग्राउंड वाले बीजेपी में मुख्यमंत्री होने की शर्त ही खत्म कर डाली.

गुलाम नबी आजाद भी कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह नया फोरम खड़ा कर रहे हैं. दोनों की कोशिशों में फर्क सिर्फ वक्त का है. कैप्टन अमरिंदर सिंह के पास वक्ति बिलकुल भी नहीं बचा था, लेकिन गुलाम नबी आजाद के पास अभी पूरा वक्त है. ये ठीक है कि जम्मू कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश हो जाने के कारण पंजाब जैसी राजनीतिक स्थिति फिलहाल नहीं है, लेकिन गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस में निराश हो चुके नेताओं के मन में उम्मीद की नयी किरण तो बिखेर ही दी है.

कांग्रेस के बागियों G-23 में साथ रहे आनंद शर्मा तो गुलाम नबी आजाद से नये अध्यक्ष के चुनाव प्रक्रिया को लेकर हुई कांग्रेस की बैठक से एक दिन पहले तो मिले ही थे, भूपिंदर सिंह हुड्डा और पृथ्वीराज चव्हाण के साथ उनकी दोबारा हुई मुलाकात ने कयासों को जन्म तो दे ही दिया है.

दिल्ली में ये नेता भले ही कोई हलचल पैदा करने की स्थिति में न बचे हों, लेकिन अपने अपने राज्यों में बची खुची कांग्रेस को बुरी तरह डैमेज तो कर ही सकते हैं. ये सब ऐसे दौर में हो रहा है, जब कांग्रेस में नये अध्यक्ष के लिए चुनाव हो रहे हैं. कांग्रेस नेतृत्व की मुश्किल ये है कि चुनाव से पहले ही नतीजों की चर्चा होने लगी है.

सोनिया गांधी की अशोक गहलोत से मुलाकात के बाद जो खबर आयी है कि वो वास्तव में कांग्रेस में चुनाव का इंतजार कर रहे नेताओं को निराश करने वाला है. गुलाम नबी आजाद पहले ही कह चुके हैं कि कांग्रेस नये अध्यक्ष के नाम पर कुर्सी पर कठपुतली बिठाने का प्रयास कर रही है - ऐसे में अशोक गहलोत का नाम आगे किया जाना राहुल गांधी की राजनीतिक राह की मुश्किलों में जुड़ने वाली एक और बाधा साबित हो सकती है.

आजाद से कांग्रेस के सीनियर नेताओं का मिलना

गुलाम नबी आजाद से मिलने वाले सीनियर कांग्रेस नेता दोस्ती की दुहाई दे रहे हैं. दोस्ती पुरानी है, और ये दिक्कत वाली बात भी नहीं है. राहुल गांधी के लिए दिक्कत वाली बात ये है कि ये दोस्ती टूट नहीं रही है, बल्कि ज्यादा ही मजबूत होती नजर आ रही है. राहुल गांधी के लिए दिक्कत ये भी है कि कांग्रेस नेताओं की सहानुभूति गांधी परिवार के मुकाबले गुलाम नबी आजाद से ज्यादा ही लग रही है.

ghulam nabi azad, anand asharma, sonia gandhi, rahul gandhiनाराज कांग्रेस नेता अगर गुलाम नबी आजाद की राह चल पड़े तो राहुल गांधी के लिए भारी मुश्किल खड़ी हो जाएगी.

कांग्रेस में नये अध्यक्ष के चुनाव के बीच गुलाम नबी आजाद से आनंद शर्मा का दोबारा मिलना - और अशोक गहलोत का गांधी परिवार के वरद हस्त के साथ चुनाव मैदान में उतरने की भनक के बाद शशि थरूर का भी एक्टिव हो जाना आखिर राहुल गांधी के लिए नयी मुश्किल नहीं तो और क्या है?

अब तो ये भी चर्चा चल पड़ी है कि अशोक गहलोत के अध्यक्ष चुनाव लड़ने की सूरत में शशि थरूर भी चैलेंज कर सकते हैं. कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में पारदर्शिता को लेकर शशि थरूर और मनीष तिवारी दोनों ही सवाल उठा चुके हैं. ध्यान रहे, शशि थरूर और मनीष तिवारी भी कांग्रेस के उसी बागी गुट के नेता हैं जिसका नेतृत्व कांग्रेस में रहते गुलाम नबी आजाद कर रहे थे.

गुलाम नबी आजाद से मिलने वाले नेता मीडिया से बातचीत में शिष्टाचार मुलाकात बता रहे हैं, लेकिन मिलने वाले तीन नेताओं में से एक का हफ्ते भर में दोबारा मिलना महज शिष्टाचार तो नहीं ही लगता. ये नेता मीडिया से बातचीत में गुलाम नबी आजाद के साथ गांधी परिवार के व्यवहार से नाराज लगते हैं. कहते हैं कांग्रेस नेतृत्व ने अपने रवैये में बदलाव नहीं किया, इसीलिए गुलाम नबी आजाद को कांग्रेस से अलग होने का फैसला लेना पड़ा.

ये नेता कांग्रेस नेताओं की तरफ से गुलाम नबी आजाद को टारगेट किये जाने से भी बेहद नाखुश हैं. कहते हैं ये कीचड़ उछालना बंद होना चाहिये. सीनियर नेताओं का सम्मान होना चाहिये - जाहिर है निशाने पर राहुल गांधी ही हैं.

बात मुलाकात भर ही होती तो कोई बात नहीं, लेकिन ये तो G-23 की लड़ाई को नये रूप में आगे ले जाने की तैयारी लग रही है. ऐसा क्यों लग रहा है जैसे गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में कांग्रेस नेताओं की बगावत कांग्रेस की गड़बड़ियों को दूर करने तक ही सीमित थी, लेकिन अब ये हक की लड़ाई में तब्दील होती नजर आने लगी है.

और कांग्रेस में हक की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं का कितना खतरनाक रूप दिखा है, ये सभी जानते हैं. हिमंत बिस्वा सरमा से लेकर गुलाम नबी आजाद तक. फर्ज कीजिये ये सिलसिला थोड़ा और आगे बढ़े तो क्या होगा?

हक न मिलने की सूरत में आनंद शर्मा और शशि थरूर जैसे नेता हो सकता है हिमंत और सिंधिया जैसे जितना कांग्रेस को डैमेज कर पायें, लेकिन गुलाम नबी आजाद से थोड़ा कम नुकसान तो पहुंचा ही सकते हैं.

ऐसे नेताओं में सबसे खतरनाक लगते हैं भूपिंदर सिंह हुड्डा - भले ही सोनिया गांधी ने हुड्डा को फ्री हैंड दे रखा हो, उनके करीबी को हरियाणा प्रदेश कांग्रेस की कमान दे रखी हो, उनकी नापसंद कुमारी शैलजा को हटा दिया हो और दीपेंद्र हुड्डा को राहुल गांधी के साथ साथ प्रियंका गांधी वाड्रा भी पसंद करती हों, लेकिन अगर उनको भी लगता है कि उनका हक मारा जा रहा है तो क्या होगा?

ये नेता कैसे नुकसान पहुंचा सकते हैं

भूपिंदर सिंह हुड्डा पूरे पांच साल तक अशोक तंवर को झेलते रहे. अशोक तंवर असल में राहुल गांधी के फेवरेट हुआ करते थे, फिर तो ये समझना मुश्किल नहीं होना चाहिये कि राहुल गांधी के प्रति सीनियर हुड्डा के मन में क्या क्या भरा हुआ होगा?

2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव से पहले भूपिंदर सिंह हुड्डा ने कांग्रेस नेतृत्व पर वैसे ही दबाव बनाया था जैसे 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह. भूपिंदर सिंह हुड्डा की गतिविधियों को देखते हुए गांधी परिवार के पास फीडबैक पहुंचने लगी थी कि वो अपनी नयी पार्टी बना सकते हैं. सोनिया गांधी भी जानती थीं कि हुड्डा और अशोक तंवर में क्या फर्क है.

हुड्डा आम चुनाव से पहले से ही राहुल गांधी से मिलने के लिए समय मांग रहे थे, लेकिन नतीजे आने तक भी उनको मौका नहीं मिला. और नतीजे आये तो राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा ही दे डाला - और कुछ दिन बाद ही छुट्टी पर भी चले गये.

फिर हुड्डा को सोनिया गांधी से मुलाकात के लिए संघर्ष करना पड़ा. सोनिया गांधी मिलीं और हुड्डा की शिकायतों पर गौर करते हुए अशोक तंवर को हटा दिया, लेकिन पीसीसी अध्यक्ष बनाया अपनी करीबी कुमारी शैलजा को. हुड्डा को संतुष्ट करने के लिए सोनिया गांधी ने उनको चुनाव अभियान का प्रभारी बनाया, नजर रखने की जिम्मेदारी कुमार शैलजा को दे दी. अशोक तंवर ने खूब शोर मचाया, लेकिन नवजोत सिंह सिद्धू की तरह धैर्य नहीं रख पाये - और सोनिया गांधी सीधे बाहर का रास्ता दिखा दिया.

चुनाव हुए तो हुड्डा की ताकत से सभी वाकिफ हुए. यहां तक कहा जाने लगा कि अगर थोड़ा पहले हुड्डा की बात मान ली गयी होती तो कांग्रेस की हरियाणा में सरकार बन सकती थी. बावजूद ये सब होने के हुड्डा G-23 वाली चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों की जमात में शामिल हो गये.

देखा जाये तो कांग्रेस के बागी नेताओं में हुड्डा ही सबसे बड़े जनाधार वाले नेता हैं और यही वजह है कि सोनिया गांधी ने जिन नेताओं को पहले संतुष्ट करने की कोशिश की, हुड्डा भी शामिल रहे. अपने हिसाब से तो सोनिया गांधी ने गुलाम नबी आजाद को सेट कर भी बगावत खत्म कर ही दिया था, लेकिन हुआ बिलकुल अलग.

अब अगर भूपिंदर सिंह हुड्डा भी गुलाम नबी आजाद की तरह हरियाणा में अपनी पार्टी बनाने का फैसला कर लें तो कौन क्या कर लेगा? न राहुल गांधी कुछ कर पाएंगे, न ही उनका नया पसंदीदा कांग्रेस अध्यक्ष.

और सिर्फ हुड्डा ही क्यों हिमाचल प्रदेश में आनंद शर्मा के पास भी तो मौका है ही, कांग्रेस को डुबा देने का. हिमाचल प्रदेश में भी साल के आखिर में चुनाव होने वाले हैं. शशि थरूर भले ही केरल में कमजोर पड़ें, लेकिन पृथ्वीराज चव्हाण तो महाराष्ट्र में ज्यादा ही डैमेज कर सकते हैं.

महाराष्ट्र में भी राहुल गांधी ने बीजेपी से आये अपने फेवरेट नाना पटोले को कांग्रेस की कमान दे रखी है, बाकी कांग्रेस नेताओं को ये फूटी आंख नहीं सुहाती. कांग्रेस तो तभी टूट चुकी होती जब महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूटा था. सोनिया गांधी ने भी ये जानने के बाद ही सरकार में शामिल होने की मंजूरी दी जब मालूम हुआ कि सत्ता से बाहर रहने की स्थिति में कांग्रेस टूट जाएगी.

शरद पवार ने तो कांग्रेस को पहले ही खत्म कर दिया है, बची खुची पर बीजेपी की कड़ी नजर लगी हुई है. वो तो बड़े टारगेट उद्धव ठाकरे जिसकी वजह से कांग्रेस सुरक्षित बची हुई है. ये स्थिति कब तक बनी रहेगी ये भी कोई नहीं जानता?

अब ऐसी चीजों से राहुल गांधी बेखबर हैं या बाखबर ये तो वही जानें, लेकिन ये तो तय है कि अगर भूपिंदर सिंह हुड्डा, आनंद शर्मा और पृथ्वीराज चव्हाण अपने अपने इलाकों में गुलाम नबी आजाद को रोल मॉडल मान लें तो कांग्रेस का बड़ा नुकसान हो सकता है. ऐसा नुकसान जिसकी भरपायी भी जल्दी नहीं हो पाने वाली.

इन्हें भी पढ़ें :

गुलाम नबी आजाद की पार्टी कैसी होगी - कैप्टन अमरिंदर जैसी या शरद पवार जैसी?

गुलाम नबी आजाद के कांग्रेस छोड़ने की स्क्रिप्ट बहुत पहले ही लिख दी गयी थी!

सोनिया गांधी तो गुलाम नबी की डिमांड पूरी कर ही रही थीं, फिर वो 'आजाद' क्यों हुए

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय