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Updated: 14 दिसम्बर, 2015 07:16 PM
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दिल्ली में प्रदूषण के प्रति बढ़ी जागरुकता की टाइमिंग पेरिस में क्लाइमेट कांफ्रेंस से मैच कर गई. पेरिस के कांफ्रेंस में चीन का स्मॉग सुर्खियों में रहा. अब ये सोशल मीडिया का जमाना है. जागरुकता चाहे प्रदूषण के प्रति हो या फिर सहिष्णुता के, वित्त मंत्री अरुण जेटली की माने तो इसे मैन्युफैक्चर किया जा सकता है.

इसी प्रक्रिया में दिल्ली की मैन्युफैक्चरिंग स्पैशलिस्ट पार्टी ने ऑड-ईवेन फॉर्मुला जनता के बीच फेंक दिया. दिल्ली और गुड़गांव में कार-फ्री डे नया फैशन स्टेटमेंट बन ही रहा था कि केजरीवाल के इस फॉर्मुले ने दिल्ली-एनसीआर की सिविल सोसाइटी को हिला कर रख दिया. हिलाया इसलिए नहीं कि दिल्ली के प्रदूषण पर कोई नया आंकड़ा आया बल्कि इसलिए कि अब दिल्ली में ऑड और ईवेन नंबर की गाड़िया हफ्ते में तीन दिन नहीं चलेंगी. ऐसा करने से शहर में गाड़ियों की संख्या आधी होते ही प्रदुषण का स्तर गिर जाएगा और राजधानी एक बार फिर ग्रीन दिल्ली के मार्ग पर प्रशस्त हो जाएगी.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि दिल्ली में गाड़ियां बहुत ज्यादा हैं. डीजल गाड़ियां तो और भी ज्यादा. प्रदूषण का आपके फेफड़ों पर क्या असर पड़ रहा है उसके लिए किसी मेडिकल रिपोर्ट से बेहतर परीक्षण आप खुद कर सकते हैं. सुबह घर से निकलते वक्त सफेद शर्ट पहन लीजिए और शाम को मान लीजिए की शर्ट जैसी हालत आपके फेफड़ों की हो चुकी है. बस, ट्रक, कार और बाइक का धुंआ अपना असर डाल चुका है.

प्रदूषण के प्रति आम आदमी में जागरुकता की मैन्यूफैक्चरिंग ठीक हुई है, तो हफ्ते के तीन दिन वह प्रदूषण न करने वाले पब्लिक ट्रांसपोर्ट का सहारा लेगा. यानी दिल्ली एनसीआर में वह दिल्ली मेट्री का सफर करेगा. बिजली से चल रही यह मेट्रो प्रदूषण नहीं करती और कम से कम दिल्ली एनसीआर में दौड़ रही आधी गाड़ियों के पैसेंजर का बोझ तो यह उठा सकती है.

नतीजा यह निकलता है कि जागरुक आम आदमी शहर के प्रदूषण स्तर को आधा कर सकता है. हालांकि ऐसा करने में उसकी असुविधा का स्तर बढ़ जाएगा. इनमें वो लोग भी शामिल हैं जिन्होंने ज्यादा माइलेज के लिए अधिक पैसे देकर सस्ते डीजल पर दौड़ने वाली गाड़ी खरीदी थी. इन डीजल गाड़ियों की बिक्री पर सरकार को भी ज्यादा राजस्व मिला था. ऑटो कंपनियों को भी डीजल गाड़ियों के सेल से भारी मुनाफा हुआ है. वहीं इसके खरीदार आम आदमी को ये लगता रहा कि उसकी गाड़ी पर चिपका नॉन पॉल्यूटिंग वेहिकल का स्टीकर और रुटीन पॉल्यूशन चेकिंग से वह दिल्ली को लगातार ग्रीन बना रहा है. लेकिन अब इस नए मैन्यूफैक्चर्ड जागरुकता ने उसे कटघरे में खड़ा कर दिया है. प्रदूषण के स्तर को आधा करने के लिए उसे अपने दैनिक जीवन में असुविधा के स्तर को डबल करना होगा.

अब शहर के प्रदूषम का सारा बोझ सरकार ने आम दमी के सिर पर डाल दिया है. लेकिन मकसद सिर्फ दिल्ली के खतरनाक प्रदूषण को सुरक्षित स्तर पर लाना है तो इसका एक बड़ा बोझ सरकार को भी वहन करना पड़ेगा. अगर ग्रीन दिल्ली की दिशा में आगे बढ़ना है तो उसे कार-फ्री के बदले फ्री-मेट्रो की रियायत देकर अपनी इको-फ्रेंडली पॉलिसी लानी होगी. सरकार के इस कदम से भले आम आदमी के ऊपर पड़ने वाला प्रदूषण नियंत्रण का बोझ कम न हो लेकिन इतना जरूर दिखेगा कि प्रदुषण नियंत्रित करने में आम के साथ-साथ सरकार भी सार्थक पहल कर रही है.

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