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Updated: 01 जुलाई, 2017 04:45 PM
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6 जुलाई को देश के विभिन्न हिस्सों से किसान संगठनों का विरोध प्रदर्शन शुरू होगा. ये लोग किसानों के विद्रोह के मामलों को उठाने का प्रयास करेंगे. इस दिन ही मध्य प्रदेश के मंदसौर में पुलिस की गोलीबारी में पांच किसानों की मौत को एक महीना पूरा हो जाएगा.

इस विरोध यात्रा को तीन चरणों में पूरा किया जाएगा जो बिहार के चंपारण में खत्म होगा. प्रदर्शन को खत्म करने के लिए चंपारण का चुनाव किया गया है क्योंकि समाप्त करने की योजना बनाई गई है क्योंकि इसी इलाके में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए चंपारण सत्याग्रह के 100 साल पूरे होने का जश्न मनाया गया है. हालांकि कई क्षेत्रों के किसान पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर एक साथ आने की कोशिश कर रहे हैं. ये लोग कितने एकजुट हो पाएंगे इसमें लोगों को संदेह भी है लेकिन फिर भी इस पर लोगों की नजर टिकी होगी क्योंकि ये किसानों के विरोध प्रदर्शन की पूरी श्रृंखला के बाद हो रही है.

farmer, Protest

उदाहरण के लिए तमिलनाडु के किसानों ने जंतर-मंतर पर 41 दिन का विरोध प्रदर्शन किया था. इस विरोध में किसानों ने चूहे और सांप मुंह में पकड़ने से लेकर हाथों में खोपड़ियां लेकर विरोध के कई दिलदहलाने वाले तरीके अपनाए. महाराष्ट्र में किसानों के विद्रोह के ठीक पहले ज्यादातर खेती में लगे मराठा समुदाय के लाखों लोगों ने भागीदारी की. महाराष्ट्र के किसानों ने अपने ग्राम सभाओं में 1 जून से हड़ताल का संकल्प पारित किया था. और उसे सफल भी बनाया. मध्यप्रदेश के किसानों ने भी 1 जून से अपना विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया और उसमें भी महाराष्ट्र के विरोध प्रदर्शन के तरह ही आह्वान किया था.

भारत बनाम इंडिया

जाने-माने किसान नेता शरद जोशी ने भारत बनाम इंडिया की ये कहावत बनाई है. ग्रामीण भारत और आधुनिक इंडिया के बीच बढ़ती हुई ये खाई ही किसानों के बढ़ते विरोध प्रदर्शनों का कारण है.

एक तरफ जहां तमिलनाडु के किसानों ने शहरी इंडिया को अपना दुख, अपनी तकलीफें और अपनी दुर्दशा दिखाने की कोशिश तो वहीं मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के किसानों ने शहरों में होने वाले दूध और सब्जियों की सप्लाई को ही बंद कर दिया. जाति के आधार पर आरक्षण की मांग करने वाले हरियाणा के खेतिहर जाट समुदाय के लोगों ने भी शहरी क्षेत्रों का रास्ता बंद करके अपना विरोध प्रदर्शन किया.

farmer, Protest

खरीफ फसल की बोआई के मौसम में सड़कों पर उतरने वाले किसानों की चिंता ना सिर्फ अपने फसलों के अच्छे दाम मिलने को लेकर हैं बल्कि ये इसे शहरी और ग्रामीण भारत के बीच के भेदभाव के रूप में भी देखते हैं. जाट लोगों का कहना है कि उनके कई फसलों की रकम घर चलाने के लायक भी नहीं होती.

कृषि व्यापार पर मुख्य रूप से सरकार का नियंत्रण होता है. फसलों के आयात, निर्यात के साथ-साथ घरेलू व्यापार के स्टॉक की सीमाएं, कृषि बाजारों, सरकारी खरीद और खाद्य के बाजार मूल्यों को नियंत्रित करने का पूरा अधिकार सरकार के पास है. कई किसानों को लगता है कि कमोडिटी की कीमतों को शहरी उपभोक्ताओं के दबाव के कारण कम कर दिया जाता है, जिससे शहरों और गांवों के बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है. और किसानों पर कर्ज के बोझ के साथ-साथ निराशा भी बढ़ती जा रही है.

मध्यप्रदेश के मंदसौर में प्रदर्शनकारी किसानों पर हुई गोलीबारी ने सारे किसानों को जोड़ दिया है. मंदसौर के ये किसान भांग की खेती करते हैं और इनकी भी यही शिकायत थी कि इनके फसलों का सही दाम इन्हें नहीं मिल रहा है. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा लोन माफी का फैसला आग में घी की तरह काम कर गया और अन्य जगह के किसानों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. विरोध प्रदर्शनों का ये सिलसिला उन राज्यों में शुरू हुआ जहां भाजपा का शासन नहीं है और ये अपने कर्ज माफी की मांग कर रहे हैं.

1 जून से महाराष्ट्र के पुंटाम्बा गांव से ये विरोध प्रदर्शन बगैर किसी नेतृत्व के शुरू हुआ था और देखते ही देखते कई राज्यों में फैल गया. मध्यप्रदेश में किसानों का आक्रोष प्याज, दाल और सोयाबीन के कम दाम की वजह से उबाल मार रहा था.

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राष्ट्र-व्यापी एकता

महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के किसानों के विराध प्रदर्शन के बाद कई किसान संगठन दिल्ली में एकजुट हुए और ऑल इंडिया किसान संघर्ष को-ऑर्डिनेशन कमिटि(एआईकेएससीसी) का गठन किया. एआईकेएससीसी के कोर मेंबर और स्वराज अभियान और जय किसान आंदोलन के फाउंडर योगेन्द्र यादव ने अपने फेसबुक पर लिखा है- 'किसानों के विरोध का दो मूल कारण है जो पूरे देश के किसानों की बदहाली का कारण है- लाभकारी कीमतें और कर्ज से मुक्ति.'

इसका भविष्य क्या है?

हालांकि राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट होने की रणनीति के बारे में कृषि आंदोलन के कुछ लोगों को भी संदेह है. वहीं कृषि आंदोलनों के दिग्गजों ने भी इस एकता की स्थिरता पर संदेह जाहिर किया है क्योंकि आज के किसानों को कई मौकों पर विभाजित किया जाता है: जाति, फसलों, क्षेत्र और अहंकारी नेताओं और उनके गुटों के बीच. उदाहरण के लिए पश्चिमी महाराष्ट्र के गन्ना किसानों के मुद्दे विदर्भ के सूखे भूमि कपास उत्पादकों की समस्या से पूरी तरह अलग हैं.

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