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Updated: 20 अगस्त, 2021 10:52 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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अफगानिस्तान पर तालिबान (Taliban) के कब्जे के बाद से ही वहां अफरा-तफरी का माहौल बना हुआ है. हजारों की संख्या में लोग किसी भी हाल में अफगानिस्तान (Afghanistan) छोड़कर निकलना चाह रहे हैं. महिलाएं और लड़कियां घरों में कैद हो गई हैं. हालांकि, तालिबान ने कहा था कि वह महिलाओं व लड़कियों के साथ ही पूर्व अफगान सैनिकों और सरकार के पूर्व अफसरों के अधिकारों की सुरक्षा को सुनिश्चित करेगा. लेकिन, अफगानिस्तान के अलग-अलग हिस्सों से सामने आ रही तस्वीरें और वीडियो से साफ पता चल रहा है कि तालिबान का कहर वहां बरसना शुरू हो चुका है. अफगानी सेना ने तालिबानी आतंकियों के आगे पहले ही सरेंडर कर देने से सत्ता कब्जाने के लिए तालिबान (Afghanistan Taliban) को कोई खास मेहनत नहीं करनी पड़ी है. बर्बरता और क्रूरता का दूसरा नाम कहे जाने वाले तालिबान के डर से अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी समेत कई प्रातों की मिलिशिया के प्रमुख भी देश छोड़कर भाग चुके हैं. इस बीच अफगानिस्तान का क्या होगा, तालिबान की आमद का भारत पर क्या असर पड़ेगा, तालिबान का सुप्रीम लीडर कौन है, जैसे तमाम सवाल लोगों के मन में आ रहे हैं. आइए जानते है अफगानिस्तान से जुड़ी हर वो बात, जो जानना जरूरी है.

अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद से ही वहां अफरा-तफरी का माहौल बना हुआ है.अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद से ही वहां अफरा-तफरी का माहौल बना हुआ है.

तालिबान का सुप्रीम लीडर कौन है?

अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान के काबिज होने के साथ ही इस बात की चर्चा ने जोर पकड़ा कि वहां की सरकार कैसी होगी? इस नई तालिबानी सरकार का मुखिया (Who is Taliban supreme leader) कौन होगा? तालिबान के अहम नेताओं में शामिल वहीदुल्लाह हाशिमी ने साफ कर दिया है कि अफगानिस्तान की नई तालिबानी सरकार लोकतंत्र नही शरिया कानून के हिसाब से चलेगी. वहीदुल्लाह हाशिमी ने अपने एक इंटरव्यू में साफ किया है कि तालिबान अपनी पिछली सरकार की तरह ही सत्ता चलाएगा. हाशिमी ने सत्ता के ढांचे की रूपरेखा के बारे में भी बताया. तालिबान नेता के अनुसार, अफगानिस्तान में सरकार चलाने का काम एक सत्तारूढ़ परिषद द्वारा किया जाएगा.

इस्लामी आतंकवादी आंदोलन का सर्वोच्च नेता और तालिबान का सरगना हैबतुल्लाह अखुंदजादा है.इस्लामी आतंकवादी आंदोलन का सर्वोच्च नेता और तालिबान का सरगना हैबतुल्लाह अखुंदजादा है.

इस्लामी आतंकवादी आंदोलन का सर्वोच्च नेता और तालिबान का सरगना हैबतुल्लाह अखुंदजादा (Haibatullah Akhundzada) है. माना जा रहा है कि हैबतुल्लाह अखुंदजादा को सत्तारूढ़ परिषद का प्रमुख बनाया जा सकता है. हैबतुल्ला अखुंदजादा से इतर तालिबान के तीन प्रमुख नेता और हैं. ये नेता तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर का बेटा मुल्ला मोहम्मद याकूब, चरमपंथी संगठन हक्कानी नेटवर्क का प्रमुख सिराजुद्दीन हक्कानी व समूह के संस्थापक सदस्य और दोहा में राजनीतिक कार्यालय का प्रमुख मुल्ला अब्दुल गनी बरादर हैं. इस्लामी कानूनों का विद्वान कहा जाने वाला कट्टरपंथी हैबतुल्ला अखुंदजादा तालिबान के राजनीतिक, धार्मिक और सैन्य मामलों पर अंतिम फैसला करने का अधिकार रखता है.

अफगानिस्तान में अब तक क्या हुआ?

करीब 20 सालों के बाद अमेरिकी और नाटो सेना ने (what happens in afghanistan) अफगानिस्तान से वापसी का फैसला लिया. दरअसल, 9/11 के हमले के बाद अमेरिका ने अलकायदा और उसके सरगना ओसामा बिन लादेन के साथ आतंकवाद के खात्मे के लिए 2001 में 'ऑपरेशन एन्ड्यूरिंग फ्रीडम' लॉन्च किया था. ओसामा बिन लादेन को इस्लामिक आतंकी संगठन तालिबान ने अपने यहां शरण दी थी. जिसकी वजह से अमेरिकी और नाटो सेना ने अफगानिस्तान में कदम रखा. ओसामा बिन लादेन के खात्मे के साथ अमेरिकी और NATO सेना ने तालिबान को अफगानिस्तान से खदेड़ दिया था. लेकिन, करीब दो दशक बाद जब अमेरिका ने अपनी सेना वापस लेना का ऐलान किया, तो तालिबान नाम का रक्तबीज फिर से उठ खड़ा हुआ.

अफगानिस्तान से सेना वापसी पर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि वो आतंकवाद को खत्म करने के लिए अफगानिस्तान में गए थे. नाकि, राष्ट्र निर्माण के लिए. हालांकि, उनके इस बयान की काफी निंदा हो रही है. लेकिन, सोवियत संघ की तरह ही अमेरिका भी अफगानिस्तान में तालिबान के साछ एक लंबी जंग में उलझ गया था. बीते दो दशकों में उसे वहां से निकलने का कोई मौका नहीं मिल पा रहा था. लेकिन, बीते साल अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान के नेताओं से बातचीत कर (why did us withdraw from afghanistan) अपनी सेना को वापस बुलाने का प्रस्ताव रखा. जिस पर तालिबान ने हामी भर दी है और अमेरिकी फौज की वापसी का रास्ता खुल गया. दरअसल, अमेरिका दो दशक के बाद भी तालिबान को पूरी तरह से खत्म करने में नाकाम रहा.

अमेरिका दो दशक के बाद भी तालिबान को पूरी तरह से खत्म करने में नाकाम रहा.अमेरिका दो दशक के बाद भी तालिबान को पूरी तरह से खत्म करने में नाकाम रहा.

तालिबान ने अमेरिकी सेना की पूरी तरह वापसी से पहले ही अफगानिस्तान के ज्यादातर प्रांतों पर (what is going on in afghanistan) कब्जा कर लिया है. तालिबान ने पहले ही साफ कर दिया है कि अफगानिस्तान में इस्लामिक राज और शरिया कानून ही लागू होंगे. 80 के दशक में सोवियत संघ ने भी अफगानिस्तान में युद्ध छेड़ दिया था. लेकिन, वर्षों तक चले युद्ध के बाद 1989 में सोवियत संघ ने अपनी सेनाओं को वापस बुला लिया था. इससे पहले ब्रिटेन ने भी अफगानिस्तान पर कब्जा करने की सोची थी. लेकिन, वह भी हार मानकर वापस लौटने को मजबूर हो गया था. अफगानिस्तान पर अपना परचम फहराने की तमन्ना सिकंदर ने भी पाली थी. लेकिन, वो भी यहां राज नहीं कर पाया था. इसी वजह से अफगानिस्तान को 'साम्राज्यों की कब्रगाह' कहा जाता है.

पंजशीर की उम्मीद

तालिबान ने अफगानिस्तान के ज्यादातर हिस्से पर अपना कब्जा जमा लिया है. लेकिन, काबुल से सिर्फ 100 किलोमीटर की दूरी पर मौजूद है पंजशीर प्रांत (Panjshir province) पर अभी तक तालिबान का कब्जा नहीं हो सका है. दरअसल, अब तक तमाम युद्धों के दौरान पंजशीर पर अब तक कोई कब्जा नहीं कर सका है. अगर पंजशीर को अजेय कह दिया जाए, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. पंजशीर प्रांत (Panjshir Afghanistan) को 'पांच शेरों का प्रांत' कहा जाता है. इसके पीछे एक कहानी जुड़ी हुई है. कहा जाता है कि 10वीं शताब्दी में पांच भाईयों ने इस पंजशीर घाटी में बाढ़ के पानी को बांध के सहारे रोकने में कामयाबी पाई थी. जिसके बाद से ही इसे पंजशीर घाटी कहा जाने लगा.

अशरफ गनी देश छोड़ने के बाद अफगानिस्तान के पूर्व उप राष्ट्रपति अमरुल्लाह सालेह (Amrullah Saleh) ने खुद को कार्यवाहक राष्ट्रपति घोषित कर दिया है. अमरुल्लाह सालेह (Who is the leader of Afghanistan now) को तालिबान के साथ ही पाकिस्तान का धुर विरोधी माना जाता है. हाल ही में सालेह ने घोषणा की है कि वो तालिबान के खिलाफ आंदोलन कर पूरे अफगानिस्तान में समर्थन जुटाएंगे. दरअसल, पंजशीर प्रांत ताजिक बहुल है और अमरुल्लाह सालेह भी इसी समुदाय से आते हैं. माना जा रहा है कि अफगानिस्तान को तालिबान के आतंक से बचाने की आखिरी उम्मीद सालेह ही बन सकते हैं. पंजशीर घाटी (Panjshir Vally) को नॉर्दर्न एलायंस का किला भी कहा जाता है.

अमरुल्लाह सालेह को तालिबान के साथ ही पाकिस्तान का धुर विरोधी माना जाता है.अमरुल्लाह सालेह को तालिबान के साथ ही पाकिस्तान का धुर विरोधी माना जाता है.

पंजशीर हमेशा से ही प्रतिरोध का गढ़ रहा है, नॉर्दर्न एलायंस की वजह से ये क्षेत्र सोवियत संघ, अमेरिका और तालिबान की गिरफ्त से बाहर रहा है. वहीं, तालिबान के खिलाफ अमरुल्ला सालेह के इस आंदोलन को तालिबान की खिलाफ रहे शाह अहमद मसूद के बेटे अहमद मसूद का साथ भी मिल रहा है. कहा जा रहा है कि सालेह ने मसूद के साथ मिलकर तालिबान के खिलाफ लड़ाई के लिए सेना को तैयार करना शुरू कर दिया है. इन्होंने अफगानी सेना के सिपाहियों को भी इस लड़ाई से जुड़ने की अपील की है. हालांकि, माना जा रहा है कि तालिबान के साथ इस बार मुकाबला करने के लिए नॉर्दर्न एलायंस कमजोर पड़ सकता है. क्योंकि, अत्याधुनिक हथियारों से लैस तालिबानी आतंकियों का सामना करने के लिए पंजशीर के पास गोला-बारूद की कमी पड़ सकती है.

अफगानिस्तान में है खनिजों का खजाना

अगर ये कहा जाए कि अफगानिस्तान में संपन्नता के मामले में कई देशों को पीछे छोड़ सकता है, तो शायद कोई इस बात पर विश्वास नहीं करेगा. लेकिन, अगर तथ्यों की बात की जाए, तो अफगानिस्तान साउथ एथिया का सबसे अमीर देश है. दरअसल, अफगानिस्तान में खनिज पदार्थों (Minerals) जैसे लोहा, कॉपर, कोबाल्ट, सोना के अलावा रेयर अर्थ एलिमेंट में गिने जाने वाले लिथियम (lithium in afghanistan) का भंडार है. 2010 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार, इन खनिज पदार्थों की संभावित कीमत एक खरब डॉलर से ज्यादा है. लेकिन, 2017 की अफगान सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक ये तीन खरब डॉलर तक पहुंच सकती है. अफगानिस्तान में पाए जाने वाले लिथियम समेत कई खनिज पदाथों का इस्तेमाल ग्रीन एनर्जी (Green Energy) के लिए बड़ी तादात में होता है, जो इसकी कीमत को और ज्यादा बढ़ा देता है.

अफगानिस्तान में पाए जाने वाले लिथियम समेत कई खनिज पदाथों का इस्तेमाल ग्रीन एनर्जी के लिए बड़ी तादात में होता है.अफगानिस्तान में पाए जाने वाले लिथियम समेत कई खनिज पदाथों का इस्तेमाल ग्रीन एनर्जी के लिए बड़ी तादात में होता है.

बीते कई दशकों से युद्ध से जूझ रहे अफगानिस्तान में खनिजों के दोहन के लिए बुनियादी ढांचे की कमी और अस्थिर हालातों की वजह से इन धातुओं को छुआ नहीं जा सका है. अफगानिस्तान के लिथियम भंडार (afghanistan lithium) को लेकर कहा जाता है कि वो लिथियम के सबसे बड़े उत्पादक बोल्विया के बराबर हो सकता है. हालांकि, तालिबान के सत्ता में आने के बाद खनिज भंडार के इस खजाने पर उसका कब्जा होना तय है. तालिबान के कब्जे में रहने पर शायद ही अफगानिस्तान कभी अपनी गरीबी को मात दे सकेगा. अमेरिका और अन्य देश भले ही इस्लामिक आतंकी संगठन तालिबान से संबंध न रखें. लेकिन, तालिबान के इस खनिज भंडार पर चीन, रूस और पाकिस्तान जैसे देशों की नजर बनी हुई है. चीन इस आतंकी संगठन को अफगानिस्तान में निवेश, हथियारों और अन्य चीजों के जरिये इन खनिज भंडारों पर कब्जा जमाने की कोशिश कर सकता है.

भारत के व्यापार पर असर

तालिबान के सत्ता में आते ही भारत और अफगानिस्तान के बीच संबंध तेजी से बदल रहे हैं. तालिबान ने पाकिस्तान की सीमाओं को सील कर दिया है, जिसकी वजह से अब भारत के साथ उसका आयात-निर्यात बंद हो गया है. आमतौर पर भारत अफगानिस्तान से (what india imports from afghanistan) बड़ी मात्रा में ड्राईफ्रूट्स के साथ प्याज और गोंद भी आयात करता है. वही, अफगानिस्तान को चाय, कॉफी, चीनी, दवाइयां, कपड़े, मसाले, जूते जैसी चीजों का निर्यात (imports from afghanistan to india) किया जाता है. 2020—21 में भारत और अफगानिस्तान के बीच का द्विपक्षीय व्यापार 1.4 बिलियन डॉलर रहा था. अफगानिस्तान से व्यापार बंद होने की स्थिति में भारत के बाजारों में ड्राईफ्रूट्स की कीमतों में उछाल आने की संभावना है. पाकिस्तान के रास्ते जाने वाले कार्गो फंसे होने की वजह से भारत के कारोबारियों को बड़ा नुकसान होने की आशंका जताई जा रही है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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