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Updated: 14 जनवरी, 2016 01:32 PM
राहुल मिश्र
राहुल मिश्र
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जनवरी 2015 में पेरिस के अखबार चार्ली हेब्दो पर अलकायदा का हमला हुआ और फिर नवंबर में पेरिस के बाटाक्लान पर ISIS का हमला. इन दोनों हमलों ने फ्रांस ही नहीं पूरे यूरोप में सुरक्षा पर गहरा आघात किया. इसके बाद 2015 के आखिरी दिन मीडिया रिपोर्ट का दावा है कि जर्मनी के कोलोन शहर में सैकड़ों महलाओं के साथ अभद्रता की गई. नए साल के जश्न के दौरान हजारों युवाओं की भीड़ ने जर्मन महिलाओं को निशाना बनाया. जर्मनी के नेता और पुलिस दावा कर रही है कि इन हमलों के लिए अरब और अफ्रीकी मूल के लोग जिम्मेदार हैं. अब इन सभी हमलों के बाद माना जा रहा है कि आज फ्रांस, जर्मनी, स्पेन और इंग्लैंड के साथ-साथ उनका बिग ब्रदर अमेरिका इस्लामोफोबिया से ग्रस्त है.

क्या ये इसी इस्लामोफोबिया का नतीजा है कि अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी का प्रबल दावेदार डोनाल्ड ट्रंप मुखर होकर मुस्लिमों का विरोध करके देश का 45वां राष्ट्रपति बनना चाह रहे हैं. स्विट्जरलैंड के सेना प्रमुख देश के नागरिकों से अपील कर रहे हैं कि यूरोप पर इस्लामिक आतंकवाद का संकट गहरा सकता है लिहाजा वे सभी हथियारों से लैस हो जाएं. जर्मनी में नाजी ताकतों पर फिर संगठित होकर दुष्प्रचार करने का आरोप लग रहा है और बर्लिन के बाइकर गैंग किसी मिशन के तहत घूम-घूमकर शरणार्थियों पर हमला कर रहे हैं. फ्रांस में बुर्का और अजान के बाद मस्जिदों पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी के साथ-साथ संदिग्ध शरणार्थियों को देश निकाला देने की पूरी योजना बना ली है.

दरअसल, पेरिस पर इस्लामिक स्टेट के हमले के बाद पूरा यूरोप एक अजीब सी दुविधा में फंसा दिखाई दे रहा है. एक तरफ अरब स्प्रिंग की विफलता के बाद से यूरोपीय देशों को बड़ी संख्या में अरब शरणार्थियों के लिए अपना बॉर्डर खोलना पड़ा. इस विफल स्प्रिंग के बाद सीरिया और लीबिया में गृह युद्ध छिड़ा और लाखों की संख्या में अरब नागरिकों को यूरोप और अमेरिका की ओर पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा है. इतनी बड़ी संख्या में हो रहे पलायन के चलते कई यूरोपीय देशों में सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टियों को घरेलू विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है. वहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा खिलाड़ी बने रहने के लिए और ग्लोबल कन्वेंशन की मजबूरियों के चलते यूरोप के अहम देश इन अरब शरणार्थियों को लेने से मना भी नहीं कर सकते.

लेकिन बीते दिनों में हुए हमलों ने फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों को यह मानने पर मजबूर कर दिया है कि इन शरणार्थियों की भीड़ में इस्लामिक स्टेट अपने आतंकवादियों को भेज रहा है जो इन देशों पर मौका मिलते ही हमले को अंजाम दे सकें. कम से कम पेरिस के बाटाक्लान नरसंहार की जांच से तो यही पता चल रहा है कि हमले को अंजाम ऐसे ही आतंकियों ने दिया जो शरणार्थियों की शक्ल में देश में दाखिल हुए थे.

एक तरफ जहां अमेरिका समेत कई शक्तिशाली देश यह कह रहे हैं कि इस्लामिक स्टेट सोशल मीडिया का सहारा लेकर अपने आतंक को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहा है. वहीं दूसरी तरफ अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने स्टेट ऑफ नेशन अड्रेस में सबसे ज्यादा देर तक सीरिया, लीबिया और इस्लामिक स्टेट पर बोल रहे हैं. ओबामा दावा कर रहे हैं कि बीते दिनों में अमेरिका और यूरोप ने 10,000 से ज्यादा हवाई हमले करके इस्लामिक स्टेट को काफी हद तक सीमित कर दिया है. इसके साथ ही वह अमेरिकी नागरिकों से यह भी अपील कर रहे हैं कि देश में रह रहे मुसलमानों के प्रति सद्भाव कायम रखा जाए. इस्लामिक स्टेट के आतंक के चलते मुस्लिम माइनॉरिटी को किसी तरह से परेशान नहीं किया जाए.

इन सभी घटनाओं और बयानों को देखते हुए सवाल यह है कि क्या वाकई यूरोप और अमेरिका की सुरक्षा पर किसी तरह का बड़ा खतरा मंडरा रहा है? क्या इन देशों के नागरिकों में मुस्लिम समाज के प्रति कोई रोष पनप रहा है जिसे समय-समय पर हो रहे आतंकी हमलों से हवा मिल रही है? इन सवालों का जवाब विश्व समुदाय के लिए भी जानना जरूरी है क्योंकि इन सभी देश अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैंड में बड़ी संख्या में मुस्लिम माइनॉरिटी रहती है. कहीं ऐसा न हो कि इस्लामिक स्टेट वाकई अपनी किसी बड़ी साजिश में कुछ यूं कामयाब हो जाए और इन सभी देशों में पनप रहे इस्लामोफोबिया के चलते एक या दो नहीं कई दंगों को अंजाम दे दिया जाए.

लेखक

राहुल मिश्र राहुल मिश्र @rmisra

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्‍टेंट एड‍िटर हैं

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