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Updated: 12 अगस्त, 2021 12:04 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाले भारत में चुनावी प्रक्रिया में बदलावों की बात लंबे समय से होती रही है. 23 सितंबर 2013 को सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के निर्देश पर ईवीएम में नोटा का बटन जोड़ा गया था. नोटा का बटन जोड़ने का उद्देश्य था कि इससे राजनीतिक दलों पर दबाव बनेगा और वो साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों को टिकट देंगे. लेकिन, आज तक 'राजनीति के अपराधीकरण' (Criminalization of Politics) पर रोक नहीं लग सकी है. सामने आने वाले आंकड़ों के अनुसार, तो यह लगातार बढ़ा ही है. 2019 के आम चुनाव में चुनकर आए लोकसभा सांसदों में से करीब 43 प्रतिशत नेताओं पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. इन संसद सदस्यों में से 29 प्रतिशत पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं. जबकि, 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ये आंकड़ा 34 फीसदी ही था. राजनीति में अपराधीकरण बहुत तेजी से बढ़ रहा है और इसे रोकने के लिए कोई भी सियासी दल ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं. इन सबके बीच सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर से इस दिशा में महत्वपूर्ण फैसला किया है.

सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति के अपराधीकरण रोकने के लिए राजनीतिक दलों को निर्देश जारी करते हुए कहा है कि पार्टियों को अपने उम्मीदवारों के चुनाव के 48 घंटों के भीतर उनके आपराधिक इतिहास को सार्वजानिक करना होगा. सियासी दलों को अपनी वेबसाइट के होमपेज पर 'आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवार' का कैप्शन देकर इन उम्मीदवारों की सूचना सार्वजनिक करनी होगी. इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को भी इस प्रक्रिया पर नजर रखने के लिए एक सेल बनाए जाने का निर्देश दिया है. यह सेल सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के पालन पर निगरानी रखेगा और इसकी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय को देगा. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद कहा जा सकता है कि अपराधिक छवि वाले नेताओं के लिए मुश्किल हो सकती है. इस स्थिति में सवाल खड़ा होना लाजिमी है क्या राजनीति के अपराधीकरण से मुक्ति मिल पाएगी?

आपराधिक छवि वाले नेताओं को उनकी जाति और धर्म के लोगों का भरपूर साथ मिलता है.आपराधिक छवि वाले नेताओं को उनकी जाति और धर्म के लोगों का भरपूर साथ मिलता है.

जाति और धर्म की राजनीति में अपराध का कॉकटेल

आपराधिक छवि वाले नेताओं को उनकी जाति और धर्म के लोगों का भरपूर साथ मिलता है. अब इसे डर कहें या पैसों का प्रभाव ये नेता किसी भी सियासी दल में शामिल होकर या निर्दलीय चुनाव लड़कर भी आसानी से जीत जाते हैं. इस दौरान इन पर लगे आपराधिक मामलों के बारे में लोग कतई नहीं सोचते हैं. राजनीति में वोटों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में सियासी दलों के बीच आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को अपने पाले में लाने की होड़ लगी हुई है. भारत में राजनीति के मुद्दे शिक्षा, रोजगार, मूलभूत सुविधाएं न होकर जाति और धर्म होते हैं. जिसकी वजह से इन आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं की जीत आसानी से सुनिश्चित हो जाती है.

अपने हिसाब से आपराधिक मुकदमे वापस नही ले सकेंगी राज्य सरकारें

भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा कि आपराधिक मामलों का सामना कर रहे नेताओं के खिलाफ दर्ज अभियोजन को अब हाई कोर्ट की अनुमति के बिना वापस नहीं लिया जा सकेगा. सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर इस तरह के फैसले करता रहा है. 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने सभी तरह के चुनाव में उम्मीदवारों को उनकी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि की घोषणा करने का फैसला किया. 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने 2 साल से ज्यादा कारावास की सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी थी. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दोषी ठहराए गए सांसदों और विधायकों को उनके पद पर बने रहने की अनुमति के खिलाफ फैसला सुनाया था. इसी साल सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ईवीएम में नोटा का बटन जोड़ा गया था. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से गंभीर अपराध के आरोपों वाले नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल न करने की सिफारिश की थी. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने जन-प्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों के तेजी से निपटारे के लिए विशेष अदालतों के गठन का आदेश दिया था.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश नहीं रुकेगा अपराधीकरण

सुप्रीम कोर्ट की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं. वह राज्य की विधायिका के कार्यों पर हस्तक्षेप नहीं कर सकता है. लेकिन, सुप्रीम कोर्ट की ओर से लगातार अपील की जाती रही है कि राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाई जाए. दागी उम्मीदवारों को चुनने का निर्णय राजनीतिक दलों को करना होता है. अगर राजनीतिक दल इस मामले में अपनी ओर से कोई निर्णय नहीं लेते हैं, तो राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाना नामुमकिन है. सियासी दलों को एकजुट होकर संसद में गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं के खिलाफ कड़ा कानून बनाना होगा. लेकिन, ऐसा होना मुश्किल ही नजर आता है. आखिर, आसानी से चुनाव जीत सकने वाले नेताओं को आखिर कोई राजनीतिक पार्टी क्यों किनारे करेगी. यहां भारत के लोगों को भी इस मामले पर व्यापक रूप से जागरुक होने की जरूरत है. लोग अगर ऐसे लोगों का चयन करना पूरी तरह से बंद कर देंगे, तो राजनीतिक दलों पर अपने आप ही साफ छवि के नेताओं को उम्मीदवार बनाने का दबाव बनेगा. सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के अनुसार, देश इंतजार में है कि संसद से कानून बनाकर ही आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को राजनीति में आने से रोका जाए.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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