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Updated: 07 जून, 2018 08:23 PM
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हाल के दिनों में भारतीय राजनीति के भीतर अंतरात्मा की आवाज़ पर एक नए सिरे से बहस शुरू हुई है. जो नेता कल तक राजनीतिक गुनाहों की सारी सीमाओं को लांघ चुके थे आज वो एक दूसरे को अंतरात्मा की आवाज सुनने की सलाह दे रहे हैं. इसकी शुरुआत कर्नाटक विधानसभा में येद्दुरपा ने अपने विदाई भाषण में की और उसके बाद देश के सभी नेता अपनी अंतरात्मा की आवाज को सुनने के लिए तमाम तरह के नुस्खे खोजने लगे. कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों को येद्दुरप्पा की दी हुई ये सलाह देखते ही देखते नेताओं के व्हाट्सएप्प ग्रुप पर वायरल हो गई और नेताओं ने इसे चुनौती के रूप में लिया. लेकिन बाकी चुनौतियों की तरह इसमें भी फेल हो गए.

yedurappa विधानसभा में येद्दुरपा ने अपने विदाई भाषण में अंतरात्मा की आवाज सुनने की सलाह दी थी

अगर बात अंतरात्मा की आवाज की हो रही है तो हमारे मासूम नेता सत्ता की चकाचौंध और राजगद्दी की गर्मी के आगे कुछ सोच ही नहीं पाए. अंतरात्मा की आवाज को सुनने के लिए आत्मचिंतन बहुत जरूरी है और आत्मचिंतन के लिए आंखों के ऊपर से लालच, लूट और फरेब की पट्टी को हटाना अनिवार्य हो जाता है जिसके कारण हमारे नीति-निर्माताओं के लिए ये असंभव सा हो जाता है. ये भी हो सकता है कि इनकी अंतरात्मा से वही आवाज निकलती हो जो इनके प्रतिदिन का राजनीतिक चरित्र बन चुका है .

सपा के जिन नेताओं ने जिस बहन कुमारी मायावती जी का कभी हत्या करने का असफल प्रयास किया था आज वो उनके पक्ष में गगनचुंबी नारे लगा रहे हैं. ये उस समय की मांग थी और अभी की मांग कुछ और है. समय और जरूरत के हिसाब से हमारे नेताओं की अंतरात्मा की आवाज़ को सुनने के पैमाने बदल जाते हैं. बदल जाती है उनकी नियत और नहीं बदलती है हमारी और आपकी किस्मत. हाथ हिला के अभिवादन कर देते हैं ये कम है क्या?  

मुकुल रॉय जब तक तृणमूल कांग्रेस में थे भारत के सबसे भ्रष्ट नेताओं में से एक थे. अमित शाह ने गंगाजल छींटा और अयोध्या के साधुओं से पूछकर कुछ पापनाशक मंत्र पढ़े और पुण्य और पाप के इस खेल से हमेशा के लिए मोक्ष प्रदान कर दिया. अंतरात्मा की आवाज मर चुकी है और अपने अपवित्र उद्देश्यों की पूर्ती के लिए घिनौने समझौते कर चुकी है. आखिर 'न्यू इंडिया' बनाना है भाई सबका सहयोग चाहिए.

कांग्रेस पार्टी ने अपने राजनीतिक इतिहास में न जाने कितनी बार लोकतंत्र का गला घोटा और जन विश्वास की क्रूर हत्या की. आज इनके नेताओं को लोकतंत्र खतरे में नजर आता है. अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किसी भी क्षेत्रीय पार्टी की गोद में बैठने को बेताब हैं. ये बदलते समय की बदलती आवाज है जिसका अंतरात्मा से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है. तभी तो बेइज़्ज़ती के वैतरणी में डूबने के बाद भी अरविन्द केजरीवाल से भी गठबंधन करने को तैयार हैं इनके केंद्रीय नेता.

दरअसल भारतीय राजनीति में अंतरात्मा की आवाज को सुनने का प्रचलन कभी रहा नहीं. तमाम घपले-घोटालों में जेल की हवा काट रहे नेता भी सामाजिक न्याय का मसीहा होने का दावा नहीं छोड़ते. हमारे राजनेताओं के आपसी संबंध बहुत ही मधुर रहे हैं. ड्रामेबाज़ी के राष्ट्रीय पुरस्कार की अगर शुरुआत की जाए तो एक से बढ़कर एक टैलेंट सभी पार्टियों से निकलेंगे. भारतीय राजनीति अगर इतने समय तक अपने हुनर का प्रदर्शन कर रही है तो उसमें हमारे नेताओं के 'सबका साथ और सबका विकास' मंत्र का अतुलनीय योगदान रहा है.

कंटेंट- विकास कुमार (इंटर्न-इंडिया टुडे)

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