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Updated: 13 मई, 2021 08:13 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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कभी कभी तो लगता है, जैसे पश्चिम बंगाल चुनाव के नतीजे बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस को भारी पड़े हैं. हो सकता है नतीजे बीजेपी के पक्ष में होते तो कांग्रेस को और भी भारी पड़ते, लेकिन ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) का विपक्षी खेमे में ताकतवर होना कांग्रेस नेतृत्व के लिए नया चैलेंज बन गया है. एक सच ये भी है कि कांग्रेस को भी ऐसे ही नतीजे की अपेक्षा रही, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व ये भी नहीं चाह रहा होगा कि ममता बनर्जी को उम्मीद से इतना ज्यादा मिल जाये.

ये तो बंगाल ने सब गड़बड़ कर दिया , वरना राहुल गांधी (Rahul Gandhi) कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर फिर से बैठने के बारे में सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) के नेतृत्व में कांग्रेस नेता विचार जरूर किये होते - और जैसे भी संभव हो पाता राहुल गांधी को कुर्सी पर बिठाने के लिए मनाने की कोशिश तो करते ही, भले कोई ऐसी शर्त भी क्यों न माननी पड़ती कि कुर्सी पर बैठने के बाद काम करते हुए दिखने की कोई शर्त नहीं होनी चाहिये.

2020 में तो कांग्रेस के भीतर के कई बार एक ही खबर लीक की जाती रही कि नये साल में कांग्रेस को नया और स्थायी अध्यक्ष मिलने वाला है. पहले बताया गया कि पहले हफ्ते में ही ऐसा हो सकता है, फिर खबर दी गयी कि दूसरे-तीसरे हफ्ते में कांग्रेस अधिवेशन बुलाकर नये कांग्रेस अध्यक्ष की घोषणा कर दी जाएगी. फिर अचानक एक दिन मीटिंग बुलायी गयी और बाहर बता दिया गया कि विधानसभा चुनावों को देखते हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव मई तक टाल दिया गया है - लेकिन लगे हाथ ये भी समझाने की कोशिश हुई कि जून तक कांग्रेस के पास स्थायी अध्यक्ष हो सकता है.

अब एक बार फिर इसे टाल दिया गया है - और अभी अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ही अगली व्यवस्था तक कामकाज की निगरानी करेंगी. कांग्रेस अध्यक्ष ने एक बार हमेशा कि तरह कुछ कमेटियां बना दी हैं - और खास बात ये है कि विधानसभा चुनावों में हार की समीक्षा के लिए बनी कमेटी में एके एंटनी नहीं हैं.

चुनावी नतीजों के चलते राजनीतिक हालात भी बदल चुके हैं - और ऐसे में कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव टाले जाने की एक वजह राहुल गांधी का राजी न होना भी हो सकता है, लेकिन ये सबसे बड़ी वजह नहीं लगती. देश के राजनीतिक हालात ऐसे हो चले हैं कि कांग्रेस नेतृत्व के लिए अब केंद्र में सत्ता हासिल करने की लड़ाई तो हाथ से काफी फिसल चुकी है - अब तो विपक्षी खेमे में सबसे बड़ी पार्टी होने का दबदबा कायम करने के लिए भी कांग्रेस को संघर्ष करने पड़ेंगे.

मोदी-शाह को चुनावी शिकस्त देने के बाद ममता बनर्जी का जो कद बढ़ा है, उसमें राहुल गांधी के लिए कदम कदम पर चुनौतियां पेश आतीं. सोनिया गांधी के कांग्रेस की कमान हाथ में रखने से ये जरूर रहेगा कि ममता बनर्जी भी उनको नजरअंदाज नहीं कर पाएंगी.

अगर सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमना अपने हाथ में न रख कर राहुल गांधी को सौंप दिया होता तो शरद पवार जैसे नेता ममता बनर्जी के बहाने राहुल गांधी को मौका मिलते ही किनारे लगाने की कोशिश में लग जाते.

मजबूरी में ही सही सोनिया गांधी अगर कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव न टालने का फैसला करतीं तो राहुल गांधी को कुर्सी पर बिठाना राजनीति की सूली पर चढ़ाने जैसा होता. ममता बनर्जी की राष्ट्रीय राजनीति में मजबूत दस्तक के बाद विपक्षी चक्रव्यूह में राहुल गांधी का हाल महाभारत के अभिमन्यु जैसा हो सकता था, लिहाजा जो हुआ वो ठीक ही हुआ है..

कोरोना के नाम पर या चुनाव के नाम मिली है - नयी तारीख

राहुल गांधी की मेहनत पर कोई सवाल नहीं उठा सकता है - वो फील्ड में तो मेहनत करते ही हैं, जिम में भी अपनी मेहनत में कोई कसर बाकी नहीं रखते. केरल में मछुआरों के साथ नदी में छलांग लगाने के बाद जब पानी से बाहर निकले तो उनके बाइसेप्स से लेकर ऐब्स तक उनकी कड़ी मेहनत के सबूत पेश कर रहे थे.

लेकिन ये भी समझना जरूरी होता है कि महज मेहनत करने से कोई कुश्ती में विरोधी पहलवान को चित्त नहीं कर सकता - और चुनावी अखाड़े में ही ये बात पूरी तरह लागू होती है.

विधानसभा के चुनाव तो देश के पांच राज्यों में हो रहे थे - और हर राज्य के राजनीतिक दलों और लोगों के लिए वे बराबर ही महत्वपूर्ण रहे, लेकिन 2019 के चुनाव में बीजेपी के ममता बनर्जी के हिस्से की संसदीय सीटें हथिया लेने के बाद पूरे देश की दिलचस्पी पश्चिम बंगाल में बढ़ गयी. पश्चिम बंगाल को लेकर कांग्रेस की रणनीति शुरुआती दौर से ही साफ साफ नजर आने लगी थी.

राहुल गांधी को सबसे ज्यादा उम्मीद तमिलनाडु से रही - और वायनाड का सांसद होने के नाते केरल चुनाव से दूर रह पाना उनके लिए मुश्किल था. पुडुचेरी तो आना जाना वैसे ही रहा जैसे रास्ते में रुक कर थोड़ा फुरसत के पल आराम से बिता लिया जाये.

sonia gandhi, rahul gandhiसंघर्ष तो राहुल गांधी भी कर रहे हैं और सोनिया गांधी भी, लेकिन दोनों के लक्ष्य अलग अलग ही हैं.

विदेश यात्रा से लौटने के बाद राहुल गांधी सीधे तमिनाडु ही गये थे - और फिर केरल पहुंचने से पहले भी चेन्नई का ही कार्यक्रम बनाया था. उदयनिधि स्टालिन के साथ उनको काफी कंफर्टेबल भी देखा गया. गौरव गोगोई के साथ भी राहुल गांधी शुरू से ही कंफर्टेबल रहे हैं, तभी तो हिमंता बिस्व सरमा को अरसा पहले गंवा भी दिये.

केरल में बारी बारी सत्ता परिवर्तन के लिहाज से कांग्रेस गठबंधन ने गलत उम्मीद भी नहीं की थी, लेकिन पिनराई विजयन ने वही खेल दोहरा दिया जो 2016 में तमिलनाडु में जयललिता ने किया था.

पश्चिम बंगाल में एक दिन की दो रैलियों को छोड़ दें तो राहुल गांधी का तमिलनाडु और केरल पर ही ज्यादा फोकस रहा - और पुडुचेरी में तो होना था चुनाव से पहले ही हो चुका था. राहुल गांधी के लिए उससे दुखद क्या हो सकता है कि उनका मुख्यमंत्री सरेआम झूठ बोलता हो. भाषायी बाध्यता का फायदा उठाते हुए अपने नेता को सबके सामने मंच पर ही धोखा देता हो - और लोगों को मौका देता हो कि देख लें कांग्रेस का नेतृत्व कैसे अपने मुख्यमंत्रियों पर कान बंद कर भरोसा करता है - अशोक गहलोत और कमलनाथ तो नमूना पेश कर ही चुके हैं.

असम को लेकर राहुल गांधी की जो भी उम्मीद रही हो, लेकिन प्रियंका गांधी वाड्रा को मोर्चे पर तैनात कर उनके हिस्से में भी नाकामी पारियों का रिकॉर्ड दर्ज कराने लगे हैं. वो भी तब जबकि प्रियंका गांधी वाड्रा के ऊपर ही कांग्रेस ने मिशन यूपी 2022 का सारा दारोमदार दे रखा है.

ये उम्मीद ही रही जो कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव जून के लिए टाल दिया गया था - और अब लगता है एक नयी उम्मीद ने जून की तारीख को भी आगे बढ़ा दी है.

ये उम्मीद कुछ और नहीं बल्कि अगले साल उत्तर प्रदेश सहित पहले पांच राज्यों और फिर साल के आखिर में होने जा रहे दो राज्यों के विधानसभा चुनाव हैं - और उन चुनावों से पहले कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नहीं होने वाला है, भले इसके लिए कितनी ही बार कोरोना वायरस को ही क्यों न बहाना बनाया जाये.

करीब साल भर बाद यूपी, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में विधानसभा चुनाव कराये जाने हैं - और फिर साल के आखिर में गुजरात और हिमाचल विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं.

ये गुजरात विधानसभा के ही चुनाव हैं जिनके लिए वोटिंग हो जाने के बाद 2017 में नतीजे आने से पहले ही राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी हुई थी - और उसी दौरान प्रियंका गांधी वाड्रा की सक्रिय भूमिका देखी गयी थी. तब प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस अधिवेशन के प्रोजेक्ट डिजाइनर से लेकर आर्किटेक्ट तक के रोल में देखा गया था.

अब जो कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव टाला गया है, उससे तो ऐसा ही लगता है जैसे एक बार फिर गांधी परिवार ने तय किया है कि गुजरात चुनाव के बाद ही राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के बारे में सोचा जाये - तब काफी कुछ बदल चुका होगा, इस बात से कौन इनकार कर सकता है भला.

कांग्रेस की हार की समीक्षा का पुराना तरीका बदला

विधानसभा के चुनाव नतीजें भले ही कांग्रेस के लिए बेहद निराशाजनक रहे हों और सोनिया गांधी बीते चुनावों की ही तरह दूर से ही नजर रख रही हों, लेकिन नतीजे आने के बाद से वो काफी आक्रामक अंदाज में देखी जा रही हैं - मोदी सरकार पर भी और कांग्रेस के बागियों पर लगाम कसने को लेकर भी.

7 मई को कांग्रेस संसदीय दल की मीटिंग के बाद सोनिया गांधी को दो बयान सामने आये - एक में निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रहे, तो दूसरे में G-23 वाले कांग्रेस में चिट्ठी लिखने वाले बागी साथी नेता.

सोनिया गांधी का कहना रहा कि कोरोना महामारी के दौरान सिस्टम नहीं फेल हुआ है, मोदी सरकार फेल हुई है. कांग्रेस नेताओं के साथ वर्चुअल मीटिंग में सोनिया गांधी ने कहा, 'देश में मजबूत संसाधन और ताकत है,' और अपना पक्ष निष्पक्ष बताने की कोशिश करते हुए बोलीं, 'ये सरकार के खिलाफ हमारी लड़ाई नहीं है, बल्कि हमारी लड़ाई कोरोना वायरस के खिलाफ है.

अब तक तो यही देखने को मिलता रहा कि चुनाव नतीजे आने और कांग्रेस की हार के बाद बागी नेता ही मीडिया के सामने आकर सवाल पूछने लगते थे, लेकिन हाल फिलहाल ऐसा पहली बार देखने को मिला है कि सोनिया गांधी ने विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की हार पर बयान देकर बागियों से बोलने का मौका ही छीन लिया है. जो कसर बाकी रही होगी, उसे कोविड टास्क फोर्स के जरिये पूरी कर दी है. बिहार चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति पर कपिल सिब्बल ने राहुल गांधी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी. वैसे इस बार कांग्रेस प्रवक्ता रागिनी नायक ने भी ऐसे ही सवालिया निशान लगाते हुए बयान दिया था, लेकिन वो G23 का हिस्सा नहीं हैं.

ghulam nabi azad, mamata banerjeeकेंद्र की सत्ता में वापसी का चैलेंज तो बाद की बात है, कांग्रेस को अंदर से चुनौती तो मिल रही है - विपक्षी खेमे में बने रहने का संघर्ष अलग से शुरू हो गया है

विधानसभा चुनावों में हार को सोनिया गांधी ने अप्रत्याशित बताया था. हो सकता है उनको केरल में कांग्रेस गठबंधन और असम में भी बदरुद्दीन अजमल की पार्टी AIUDF के साथ गठबंधन से काफी उम्मीद बंधी हो, लेकिन राहुल गांधी की बरसों पहले हिमंता बिस्व सरमा को नजरअंदाज करना इतना भारी पड़ा कि इस बार भी कांग्रेस की दाल नहीं गल पायी.

साथ ही, सोनिया गांधी ने ये भी कह दिया था कि चुनावी हार की समीक्षा भी होगी, लेकिन तब किसी को ये नहीं लगा कि सोनिया गांधी इस बार परंपरागत रूप से कांग्रेस की किसी भी हार के लिए बनायी जाने वाली एंटनी कमेटी के बारे में सोच तक नहीं रही हैं.

महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार में कांग्रेस की सीनियर पार्टनर शिवसेना ने सोनिया के इस स्टैंड का क्रेडिट खुद लेने की कोशिश की है. शिवसेना के मुखपत्र सामना में लिखा गया था कि कांग्रेस के सीनियर नेताओं ने अगर संपादकीय पढ़ा होता और जमीनी हकीकत से सोनिया गांधी को अपडेट किया होता तो बेहतर होता. सामना का नजरिया रहा, 'सोनिया गांधी ने पूछा कि असम और केरल में अच्छा मुकाबला करने के बावजूद कांग्रेस मौजूदा सरकारों को क्यों नहीं हरा पायी - यही सवाल सामना में इस कॉलम के जरिये पूछा गया था.'

शिवसेना चाहे तो सोनिया गांधी नये आक्रामक तेवर का भी श्रेय ले ले - बहरहाल, सोनिया गांधी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार की समीक्षा के लिए जो कमेटी बनायी है उसका अध्यक्ष तो महाराष्ट्र कांग्रेस के नेता अशोक चव्हाण को बनाया है, लेकिन अपनी इमानदार छवि के लिए जाने जाने वाले एके एंटनी को कमेटी में जगह तक नहीं दी है. हो सकता है केरल से उनका होना भी इस मामले में इस बार आड़े आया हो.

सोनिया गांधी ने एक और भी कमेटी बनायी है - कांग्रेस की कोविड टास्क फोर्स. कोरोना संकट के पिछले दौर में भी सोनिया गांधी ने ऐसी ही एक कमेटी बनायी थी, लेकिन नयी कमेटी में कई फर्क देखने को मिल रहे हैं.

पहले वाली कमेटी के अध्यक्ष पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह थे, लेकन इस बार ये जिम्मेदारी G23 की अगुवाई करने वाले गुलाम नबी आजाद को सौंपी गयी है - और इस पार इसमें प्रियंका गांधी वाड्रा को भी शामिल किया गया है, जो पिछली बार नदारद रहीं. कोरोना संकट में लोगों को मदद पहुंचाने को लेकर थोड़े विवादित और ज्यादा चर्चित रहे यूथ कांग्रेस वाले बीवी श्रीनिवास का नाम भी सूची के आखिर में दर्ज है.

ताजपोशी राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष का अमली जामा पहनाने जैसा है. वैसे तो राहुल गांधी को अघोषित अध्यक्ष के तौर पर देखा और समझा ही जाता है. कांग्रेस नेताओं की नाराजगी इस बात को लेकर भी रहती है कि जो काम वो करते हैं वो या तो अध्यक्ष बन जाने के बाद करें, वरना, बात बात पर वो खुद या उनके करीबी नेता दखल देना बंद कर दें.

ये तो हुई कांग्रेस के भीतर की बात, विपक्षी खेमे में राहुल गांधी के लिए कहीं ज्यादा बड़ी चुनौती है - और चुनौती का ये फासला ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को शिकस्त देने और राहुल गांधी सभी जगह से मात खा जाने से और भी ज्यादा बढ़ गयी है.

जरा सोचिये, ऐसे माहौल में राहुल गांधी अगर कांग्रेस अध्यक्ष बन भी जाते तो विपक्षी खेमा भी उनके साथ वैसे ही पेश आता जैसे बीजेपी नेता मजाक बनाते रहते हैं. 2019 के आम चुनाव से पहले तो एनसीपी नेता शरद पवार कांग्रेस नेता राहुल गांधी से मिलते जुलते भी नजर आते रहे, लेकिन बाद में तो भाव देना ही बंद कर दिया. जब महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ सरकार बनाने को हुआ तो सोनिया गांधी से ही डील करते रहे, राहुल गांधी को पूछा तक नहीं. भारत-चीन विवाद के बीच राहुल गांधी के स्टैंड को लेकर भी शरद पवार धिक्कारते ही नजर आये, हालांकि - दिसंबर, 2020 में किसानों के मुद्दे और तीनों कृषि कानूनों की वापसी की मांग को लेकर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिल कर राहुल गांधी के साथ ज्ञापन देने जरूर गये थे.

2014 में बीजेपी के हाथों कांग्रेस की शिकस्त के बाद सोनिया गांधी को दंभ रहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता में वापसी करने ही नहीं देंगे. चुनावों के दौरान दोहराया भी कि 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी भी अजेय ही माने जा रहे थे, लेकिन कांग्रेस ने न सिर्फ शिकस्त दी, बल्कि 10 साल सरकार भी चलायी. नतीजे आये तो मालूम हुआ केरल वायनाड ने ही लाज बचा ली वरना राहुल गांधी तो सांसद भी नहीं होते - क्योंकि अमेठी के लोगों ने स्मृति ईरानी के पक्ष में फैसला सुना डाला था.

तब तक सोनिया गांधी केंद्र की सत्ता में वापसी के लिए संघर्षरत रहीं. बाद में हुए विधानसभा चुनावों में अपने बूते तो कहीं कामयाबी नहीं मिली, बल्कि बिहार में तो गठबंधन साथी आरजेडी के नेताओं का साफ साफ कहना रहा कि राहुल गांधी ने ही उनकी लुटिया डुबा दी. अगर कांग्रेस भी अपने हिस्से की कुछ और सीटें लेफ्ट की तरह जीत गयी होती या फिर राहुल गांधी के जिद छोड़ देने पर लेफ्ट पार्टियों को ही सीटें दे दी गयी होतीं तो नतीजे अलग भी हो सकते थे. हां, आम चुनाव के बाद महाराष्ट्र फिर झारखंड और अब तमिलनाडु में कांग्रेस को सत्ताधारी दल का साथ जरूर मिल चुका है.

2024 भी अभी बहुत दूर है और दिल्ली भी काफी दूर हो चुकी है. वस्तुस्थिति तो ये हो चली है कि फिलहाल कांग्रेस के सामने सत्ता में वापसी की लड़ाई नहीं, बल्कि विपक्षी खेमे में सबसे बड़ी पार्टी होने का दबदबा कायम करना भी चुनौतीपूर्ण होने लगा है.

अब तक तो जब भी बात होती रही, विपक्षी दलों के नेता कांग्रेस को सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते सत्ता पक्ष से मुकाबले में नेतृत्व करने की बात करते रहे, लेकिन अब ये भी मुश्किल हो सकता है.

यूपीए अध्यक्ष पद के लिए शरद पवार का नाम आगे कर शिवसेना की तरफ से रह रह कर हवा दी ही जाती है. कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों के लिए शिवसेना की तरफ से एक ताजा सलाह भी आयी है, 'सभी मुख्य विपक्षी दलों को टि्वटर से राजनीतिक जमीन पर आना होगा... जमीन पर आने का मतलब महामारी के वक्त में भीड़ इकट्ठा करना नहीं है - बल्कि हर दिन सरकार से सवाल करना और उसे जिम्मेदार ठहराना है.'

शरद पवार हों या ममता बनर्जी ये दोनों ही सोनिया गांधी को तो सम्मान देते हैं, लेकिन राहुल गांधी को घास भी नहीं डालते. अब अगर राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष फिलहाल बना भी दिये जायें तो कांग्रेस को कौन पूछेगा - सोनिया गांधी ने तबीयत नासाज होने के बावजूद कांग्रेस की कमान अपने हाथ में लेकर जो आक्रामक रवैया दिखाया है - वो कुछ और नहीं बल्कि विपक्षी खेमे में दबदबा कायम रखने की ही एक कवायद भर है!

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

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