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Updated: 13 फरवरी, 2020 07:50 PM
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दिल्ली के सिंहासन से ब्रिटिश हुकूमत को जिस कांग्रेस ने उखाड़ फेंका था, उसी दिल्ली में यह कांग्रेस खत्म हो गई. खत्म इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव (Delhi Assembly Election 2020) के नतीजों (Delhi Election Result) में लगातार कांग्रेस (Congress) का प्रदर्शन सिफर रहा. खत्म करने की बात इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि कांग्रेस का दिल्ली में हार जाना चुनावी राजनीति (Politics) में न कोई पहली घटना है और न कोई नई बात है, मगर हारने के बाद की बेचैनी का मर जाना कांग्रेस पार्टी के मर जाने के बराबर है. तो क्या कांग्रेस अपनी उम्र जी चुकी है और इस कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए? मैं यह बात इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि पास होना या फेल होना राजनीति में कोई बड़ी दुर्घटना नहीं है. गिरना-उठना, संभलना और चलना, इसके राजनीति में ढेरों उदाहरण हैं. कांग्रेस के लिए हार से ज्यादा हार को सामान्य और सहज लेना चिंताजनक दिखता है. इतनी बड़ी हार के बाद भी अगर कांग्रेस के अंदर बेचैनी नहीं है तो समझ लेना चाहिए कि कांग्रेस की आत्मा मर चुकी है, इसीलिए शरीर में कोई हलचल नहीं हो रही है.

Congress party going downतो क्या अब कांग्रेस पार्टी खत्म होने जा रही है?

लगातार दो विधानसभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के नेताओं का जिस तरह से रवैया दिख रहा है, वह कांग्रेस के लिए कोई भविष्य की दिशा तय करता नहीं दिखता. जहां भी कांग्रेस चुनाव हारती है वहां कहा जाता है कि कांग्रेस के पास संगठन नहीं था. दिल्ली चुनाव के नतीजे से ठीक पहले एक छोटी सी खबर छपी कि कांग्रेस के नेता जनार्दन द्विवेदी के बेटे समीर द्विवेदी ने बीजेपी ज्वाइन किया. यह खबर भले ही आपको छोटी सी दिख रही हो मगर कांग्रेस के लिए इससे ज्यादा भयावह खबर शायद ही कोई हो. यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जो शख्स लगभग 13 साल तक कांग्रेस जैसी पार्टी का संगठन महासचिव रहा हो, उसका बेटा बीजेपी ज्वाइन करे तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उस पार्टी का संगठन बचा भी है कि नहीं. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के बाद सबसे बड़ा पद पार्टी के संगठन महासचिव का होता है जनार्दन द्विवेदी इस पद पर 2004 से ही बने हुए थे, मगर 2017 में जैसे ही वो इस पद से हटे पहले तो वह बीजेपी के नेता और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करने लगे और अब रही सही कसर उनके बेटे ने पूरी कर दी. किसी भी पार्टी का संगठन उसके विचार को लेकर लोगों के भीतर जाती है और लोगों के बड़े समूह की सहमति से एक वोट बैंक तैयार करती है.

किसी भी संगठन को खड़ा करने के लिए विचार की जरूरत होती है. उस विचार से लोगों को जोड़ने का काम संगठन के रूप में किया जाता है. लोगों का समूह संगठित होकर किसी पार्टी के विचार को आगे बढ़ाने का काम करता है. यानी विचार आत्मा होती है और संगठन शरीर. 20 सालों तक कांग्रेस के शरीर रूपी संगठन के मुखिया को जब विपक्ष का नेता अच्छा लगता है और उसके विचार अच्छे लगते हैं और उसके बाद उसके अपने ही बेटे को अपने विरोधी दल का विचार अच्छा लगता है तो समझ में आ जाना चाहिए कि कांग्रेस पार्टी का शरीर रूपी संगठन सड़ चुका है और इसे दफनाने का वक्त आ गया है. हिंदू धर्म में पुनर्जन्म का स्थान है. ऐसे में निराश न होकर पुनर्जन्म के लिए ही सही कांग्रेस को भंग करने का वक्त आ गया है.

दिल्ली में हार हुए तीन दिन हो गए हैं, मगर मातम मनाने के नाम पर अपनों की तो छोड़िए कोई रुदाली भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही है. और तो और खुशी इस बात को लेकर है कि भले ही अपनी बकरी मर गई हो मगर पड़ोसी की दीवार तो गिर गई. जिस अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस के वोट बैंक को झाड़ू लगाकर साफ कर दिया, उस अरविंद केजरीवाल की जीत पर कांग्रेस की खुशी उसके विचारों की दरिद्रता को बयान करती है. जब किसी पार्टी के अंदर न विचार हो, ना संगठन हो तो उस पार्टी की लाश को कब तक और क्यों ढोया जाए. आखिरी बार कांग्रेस को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जैसे-तैसे सरकार बनाने में सफलता मिली, मगर राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपनी हर सभा में कहते हैं कि राजस्थान की जनता ने इस बार अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट दिया है. जरा सोचिए कि जब राजस्थान में चुनाव हुआ तो अशोक गहलोत जनार्दन द्विवेदी की जगह कांग्रेस में दूसरे नंबर के पद संगठन महासचिव के पद पर काबिज थे. मगर जीतने के बाद कहते हैं कि राजस्थान की जनता ने कांग्रेस पार्टी को वोट नहीं दिया है, कांग्रेस की विचारधारा को वोट नहीं दिया है, बल्कि अशोक गहलोत के चेहरे पर वोट दिया है.

किसी पार्टी के संगठन का मुखिया कहे किस चेहरे पर वोट मिलता है तो इससे ज्यादा शर्मनाक बात किसी संगठन के लिए दूसरी नहीं हो सकती है. कांग्रेस में जब विचार नाम की कोई चीज बची ही नहीं है तो फिर पार्टी की जरूरत क्यों है? यह बात हम इसलिए कह रहे हैं कि नारायण दत्त तिवारी जैसे पार्टी के दिग्गज नेता जो दो-दो राज्यों के मुख्यमंत्री रहे हो, कई राज्यों के राज्यपाल रहे हों, कई बार केंद्र में मंत्री रहे हो उन्हें कांग्रेस छोड़कर विरोधी विचारधारा वाली पार्टी बीजेपी ज्वाइन करने में कोई परहेज नहीं होता है. कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा को पार्टी ने क्या नहीं दिया, मुख्यमंत्री बनाया, केंद्रीय मंत्री बनाया, उसके बाद राज्यपाल भी बनाया मगर एक झटके में गले में भगवा पट्टा पहन लिया. मार्गेट अल्वा को केंद्र में मंत्री बनाया राज्यपाल बनाया मगर बेटे को टिकट नहीं मिला तो कांग्रेसमें खोट नजर आने लगी.

रीता बहुगुणा को उत्तर प्रदेश जैसे पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया मगर जैसे ही हटाया एक झटके में पार्टी छोड़ कर चली गईं. विजय बहुगुणा को तो जबरन उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बना दिया मगर तब भी पार्टी का विचारों ने प्रभावित नहीं कर पाया और वह भगवा धारण कर बीजेपी के जोगी बन गए. हेमंत विश्व शर्मा असम में दूसरे नंबर के पार्टी के नेता रहे मगर मुख्यमंत्री का पद नहीं मिला तो बीजेपी के रणनीतिकार बन गए. अगर इन सब उदाहरणों पर आप गौर करें तो आपको देखकर ऐसा लग सकता है कि कांग्रेस कोई पार्टी नहीं बल्कि स्वार्थी तत्वों का  एक समूह है जो कि अपने निहित स्वार्थों के लिए एक पार्टी के अंदर काम कर रहा है. इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने बेटे और बेटी की भविष्य की चिंता में पार्टी छोड़ी है और पार्टी में जो बच गए हैं वह किसी नेता के बेटा और बेटी ही बचे हैं. क्या कांग्रेस के नए नेताओं की फौज में ऐसा कोई नेता आपको दिख रहा है जिसे कांग्रेस के विचार ने प्रभावित कर संगठन के कार्यकर्ता के रूप में स्थापित किया हो.

चाहे राहुल गांधी हो या प्रियंका गांधी, चाहे ज्योतिरादित्य सिंधिया हो या सचिन पायलट, मिलिंद देवड़ा हो या रणदीप सुरजेवाला, दीपेन्द्र हुड्डा हो या फिर आरपीएन सिंह. प्रिया दत्त हो या फिर जतिन प्रसाद .यह सभी के सभी नेता पुत्र और पुत्री है जिन्हें थाली में परोस कर पार्टी का टिकट दिया गया और जीतने पर पद की गारंटी भी. अशोक गहलोत और कमलनाथ जैसे नेता इस धृतराष्ट्र मोह से बचे हुए थे मगर जहां विचार और संगठन के नाम पर पुत्र पुत्रियों के भर्ती निकल रही हो तो ये भी अपने घर के बच्चों को कब तक वंचित रखते. लिहाजा वैभव गहलोत और नकुल भी कांग्रेस के युवा पीढ़ी के भविष्य बन गए. तो क्या एक पार्टी को सिर्फ इसलिए जिंदा रखा.जाना चाहिए क्योंकि वहां पर काम करने वाले नेताओं के बेटे- बेटियों का रोजगार जारी रखा जा सके. मैं यह नहीं कहता हूं कि नेता का बेटा नेता नहीं बनना चाहिए और कांग्रेस के इतर दूसरी पार्टियों में नेता का बेटा नेता नहीं है मगर कांग्रेस की स्थिति दूसरी पार्टियों से अलहदा है .यहां केवल और केवल नेता पुत्र ही कांग्रेस के भविष्य के नेता हैं.

जिधर देखो उधर या पार्टी नेता पुत्रों की पार्टी दिखती है. जिस पार्टी में सामान्य कार्यकर्ताओं की कोई जगह नहीं हो वहां पर कोई विचार कैसे फल-फूल सकता है. पिता ,पुत्र, पुत्री और पत्नी की पार्टी पर लोग कैसे भरोसा करें. जब बीजेपी के विकल्प के रूप में लोग तृणमूल कांग्रेस ,आप ,झामुमो ,रांकपा और हरियाणा जननायक जैसी पार्टियों को वोट देने लगे तो कांग्रेस को समझ जाना चाहिए कि पार्टी के डीएनए में कोई गड़बड़ी है. इस पार्टी में संघर्षों से तपे हुए विचारधारा की घुट्टी में घुटे हुए नेता पैदा होते थे वहां नेताओं के घर में नेता पैदा होने लगे. परिवारवाद की प्रकाष्ठा  ही कहेंगे कि आम चुनाव हारे एक साल होने को है मगर कांग्रेस अब तक अंतरिम कांग्रेस अध्यक्ष से काम चला रही है. जो पार्टी अपना एक अदद नेता नहीं खोज पाए उसमें जनता अपना भविष्य क्या खोजेगी. और इस पार्टी से कैसे उम्मीद कर सकते हैं किसके पास अपना कोई मौलिक विचार होगा इसके आधार पर वह संगठन खड़ा कर सकती है. दिल्ली चुनाव में लगातार दूसरी बार शून्य पर रहने के बाद कांग्रेस के नेताओं में आत्म चिंतन की उम्मीद भले ही कोई ना कर रहा हो मगर इस बात को लेकर आत्मग्लानि की उम्मीद तो कर ही सकते हैं कि कांग्रेस जैसी पार्टी और इतने महान संगठन को रसातल में पहुंचा दिया.

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