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Updated: 16 नवम्बर, 2019 12:11 PM
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23 मई के बाद कांग्रेस में बहुत कुछ बदल चुका है. सोनिया गांधी के रूप में कांग्रेस को नया अंतरिम अध्यक्ष मिला है - और राहुल गांधी अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ कर पूरी तरह केरल के वायनाड के हो चुके हैं. कहते भी हैं - बचपन का नाता लगता है.

राहुल गांधी के केरल केंद्रित होने के बाद कांग्रेस के भीतर एक नया गुट भी उभर आया है - केरल लॉबी. केरल लॉबी के प्रभावी होने की कई वजहें हैं. पहली वजह तो कांग्रेस के 52 सांसदों में से सबसे ज्यादा केरल से आते हैं. इनमें खुद राहुल गांधी भी हैं वायनाड से सांसद के रूप में. राहुल गांधी के करीबी केसी वेणुगोपाल भी केरल से ही आते हैं. एके एंटनी तो पहले से हैं ही. पहले एंटनी की छवि का प्रभाव हुआ करता था, अब केरल से आने वाले सांसदों की संख्या और राहुल गांधी का भी उसी कतार में खड़ा हो जाना और ताकतवर बना रहा है.

केरल लॉबी को लेकर ताजा किस्सा यही है कि वो महाराष्ट्र में शिवसेना की अगुवाई में कांग्रेस के शामिल होने के पक्ष में नहीं थी. कुछ कुछ वैसे ही जैसे कांग्रेस के कई नेता आम चुनाव दौरान किसी भी राज्य में कांग्रेस के सहयोगी की भूमिका निभाने के पक्ष में नहीं थे - और नतीजा ये हुआ कि कांग्रेस का कभी भी गठबंधन नहीं हो सका.

गठबंधन का जो तरीका कांग्रेस विपक्षी दलों के साथ अभी कर रही है अगर ऐसा उसने आम चुनाव में कर लिया होता तो आज कहानी कुछ और कही जा रही होती. जैसे भी संभव हुआ हो कांग्रेस महाराष्ट्र की तरह झारखंड में बने गठबंधन में भी सहयोगी की भूमिका निभा रही है.

नेता और नीयत छोड़ दें तो भी कांग्रेस को एक नीति की जरूरत है

बीजेपी नेतृत्व, चाहे वो नरेंद्र मोदी हों या फिर अमित शाह, जब भी कांग्रेस को टारगेट करता है तीन चीजों का जिक्र होता है - नेता, नीयत और नीति. नेता और नीयत की तो बात और है, लेकिन कांग्रेस में नीति का अभाव लगातार देखा जा सकता है. संभव है अगर कांग्रेस ने कोई ठोस नीति तैयार कर ली होती तो फैसले लेने में भी सुविधा होती - और कोई भी काम फाइनल तब नहीं होता जब गाड़ी छूट चुकी होती. गठबंधन के मामले में तो खास तौर पर ऐसी आवश्यकता लगती है. वैसे पूरे देश के लिए कोई एक नीति तो नहीं हो सकती लेकिन कुछ खास बिंदु तो होते ही जिनमें थोड़े बहुत फेरबदल के साथ कोई भी फैसला वक्त रहते लिया जा सकता था.

महाराष्ट्र में बनने जा रही सरकार में कांग्रेस सहयोगी की भूमिका निभाने जा रही है. आम चुनाव में देश का विपक्षी खेमा कांग्रेस से राज्यों में ऐसी ही भूमिका की अपेक्षा कर रहा था. कांग्रेस ने नामंजूर कर दिया. वजह भी कोई छिपी हुई नहीं थी. 2018 के विधानसभा चुनावों में तीन राज्यों में जीत के बाद कांग्रेस नेतृत्व के लिए विपक्ष का मॉडल स्वीकार करना मुश्किल भी लगता होगा.

sharad pawar and sonia gandhiदेर तो बहुत हुई, लेकिन अभी अंधेर नहीं है...

कांग्रेस के सामने विपक्षी नेताओं की तरफ से एक मॉडल पेश किया गया था. विपक्ष के इस खास मॉडल की पहल भी बीजेपी के बुजुर्ग और बागी नेता अरुण शौरी और उनके जैसे कुछ नेताओं की रही जो ममता बनर्जी और विपक्ष के सीनियर नेताओं की मीटिंग में प्रस्तुत की गयी थी. इस मॉडल में कांग्रेस से उन राज्यों में सहयोगी की भूमिका निभाने को कहा जा रहा था जहां किसी और दल का जनाधार ज्यादा हो.

महाराष्ट्र में बीजेपी की 105 सीटों के बाद शिवसेना के पास 56 और एनसीपी के पास 54 विधायक हैं जबकि कांग्रेस के हिस्से में महज 44. आखिरी पायदान पर होकर भी कांग्रेस एक राज्य की सत्ता में भागीदार बनने जा रही है. ऐसा भी नहीं कि उसने गोवा और मणिपुर की तरह बीजेपी जैसा कौई राजनीतिक कौशल दिखाया हो या फिर कर्नाटक जैसा बड़ा खेल किया हो.

महाराष्ट्र में तो कांग्रेस को सिर्फ धारा के साथ बहते जाना था. थोड़ी बातें इधर-उधर हुईं, लेकिन सोनिया गांधी ने अपने सबसे भरोसेमंद अहमद पटेल को भेज कर वस्तुस्थिति समझी और बात बन गयी. ये बात अलग है कि आगे चल कर कर्नाटक जैसे संकट से तीनों दलों को जूझना पड़ सकता है. बीजेपी तो छोड़ने वाली नहीं. कहां शिवसेना के साथ गठबंधन कर बहुमत हासिल करने वाली बीजेपी सरकार बनाती और कहां उसे विपक्ष में बैठना पड़ रहा है.

महाराष्ट्र सरकार में कांग्रेस कहां?

कांग्रेस नेतृत्व ने महाराष्ट्र में सरकार बनाने में शुरू में कोई दिलचस्पी नहीं दिखायी थी. फिर भी शिवसेना के नेतृत्व में बन रही सरकार में वो शामिल हो रही है. शामिल भी लगभग बराबर की हिस्सेदारी के साथ हो रही है. वो भी तब जब दोनों बिलकुल अलग लाइन की राजनीतिक करते हैं.

महाराष्ट्र में सरकार बनाने को लेकर भी कांग्रेस में दो गुट बन गये थे. दिल्ली का गुट शिवसेना के साथ सरकार बनाने के खिलाफ था. महाराष्ट्र के ज्यादातर कांग्रेस नेता सरकार में शामिल होने के पक्ष में थे. आखिर में स्थानीय नेताओं की बात कांग्रेस नेतृत्व को माननी पड़ी - और कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर सहमति जताने के साथ ही बात आगे बढ़ सकी.

जिस तरह महाराष्ट्र गठबंधन में कांग्रेस सहयोगी की भूमिका में है, झारखंड विधानसभा के लिए हो रहे चुनाव पूर्व गठबंधन में भी कांग्रेस ने झारखंड मुक्ति मोर्चा का नेतृत्व स्वीकार किया है. झारखंड चुनाव में भी कांग्रेस ने शुरू में ज्यादा सीटों की मांग की थी. हेमंत सोरेन ने कांग्रेस को आम चुनाव के वक्त हुई बातों की याद दिलायी. JMM नेता हेमंत सोरेन के अनुसार लोक सभा में वो कांग्रेस की बात इसीलिए मान गये थे कि विधानसभा चुनाव उनकी पार्टी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. बहरहाल, महागठबंधन में अब सीटों बंटवारा हो चुका है जिसमें झारखंड मुक्ति मोर्चा ने अपने लिए 43 और कांग्रेस के हिस्से में 31 सीटें छोड़ी है जबकि राष्ट्रीय जनता दल 7 सीटों पर चुनाव लड़ने जा रहा है.

देर से ही सही, लेकिन कांग्रेस ने अपनी पुरानी गलतियों को दुरूस्त किया है. अगर अब भी कांग्रेस हवाई किले बनाने छोड़ कर जमीनी सच्चाई को समझते हुए आगे बढ़े तो स्थिति थोड़ी बेहतर हो सकती है. एक तिहाई ही सही, लेकिन मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह महाराष्ट्र में भी कांग्रेस सरकार का हिस्सा बन रही है - और बीजेपी एक और राज्य को कांग्रेस मुक्त करने में फिलहाल फेल हुई है.

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#कांग्रेस, #सोनिया गांधी, #राहुल गांधी, Congress, Sonia Gandhi, Maharashtra Government Formation

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