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Updated: 17 जुलाई, 2016 05:28 PM
डा. दिलीप अग्निहोत्री
डा. दिलीप अग्निहोत्री
  @dileep.agnihotry
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बाहर से समर्थन देने वाले राजनीतिक दल वैसे तो सरकार में शामिल नहीं होते लेकिन गठबंधन में शामिल दलों की हिस्सेदारी को सामान्य व्यवहार माना जाता है. दो वर्ष पहले अपना दल एनडीए में विधिवत शामिल हुआ था. उसका मंत्रिमंडल में शामिल होने का दावा तो नहीं था, फिर भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस सहयोगी दल के प्रति उदारता दिखाई. अनुप्रिया पटेल को राज्यमंत्री बनाया.

दो वर्ष पहले अपना दल मात्र एक विधायक वाली पार्टी हुआ करती थी. सफलता का आकलन सीटों से होता है, उस लिहाज से अपना दल अपनी अहमियत धीरे-धीरे समाप्त कर रहा था. फिर दो लोकसभा क्षेत्रों में सफलता से लेकर केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में भागीदारी में अनुप्रिया का योगदान सर्वाधिक था. उन्होंने उचित समय पर उचित फैसला लेकर पार्टी को नया जीवन दिया. लोकसभा चुनाव में एनडीए का हिस्सा बनने संबंधी फैसला उनके दबाव में हुआ था.

मंत्रिमंडल में भागीदारी अपना दल के इतिहास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पड़ाव है. इस पर अपना दल और खासतौर पर अनुप्रिया की मां कृष्णा पटेल और बहन पल्लवी को खुश होना चाहिए था. पिछला अनुभव बताता है कि कृष्णा, पल्लवी और उनके समर्थक मिलकर भी पार्टी को इस महत्वपूर्ण स्थिति में नहीं पहुंचा सकते थे. अनुप्रिया ने बतौर लोकसभा सदस्य अपनी जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वाह किया. इसे देखते हुए प्रधानमंत्री ने उन्हें मंत्री बनाया. इस अवसर पर पार्टी को एकजुटता दिखानी चाहिए और विधानसभा चुनाव की तैयारियां करनी चाहिए थीं. लेकिन कृष्णा और पल्लवी के नेतृत्व में उनके कुछ समर्थकों ने अनुप्रिया के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है.

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 एक पार्टी में मां-बेटी का घमासान

कृष्णा पटेल ने तीखा बयान दिया. कहा कि जो अपनी मां की नहीं हुई, वह किसी अन्य की क्या होगी. लेकिन ऐसा कहते समय कृष्णा पटेल मां की भूमिका में नहीं बल्कि सियासी भूमिका में दिखाई देती हैं. अनुप्रिया का फैसला उचित था. जब दो वर्षों तक एनडीए में रहने और उसकी नीतियों के समर्थन में आपत्ति नहीं थी, तो मंत्री बनने पर इस तरह विरोध करने का कोई आधार नहीं बनता है. एक मां और नेता दोनों रूपों में कृष्णा ने अपनी जिम्मेदारी का न्यायसंगत निर्वाह नहीं किया. दोनों रूपों में उन्होंने इस समय अनुप्रिया को पूरा समर्थन देना चाहिए था, जिससे मंत्रिपद की जिम्मेदारी के निर्वाह में उनका मनोबल बढ़ता. लेकिन इसी समय उन्होंने न केवल अनुप्रिया के मंत्री बनने का विरोध किया, बल्कि एनडीए से अलग होने का फैसला कर लिया.

वास्तविकता यह है कि अनुप्रिया के मंत्री बनने का विरोध करने और भाजपा से रिश्ता तोड़ने का कोई तर्क संगत कारण नहीं है. इस प्रकरण में बेटी अनुप्रिया अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करती दिखाई देती है. मीरजापुर लोकसभा की प्रतिनिधि और राजग की सहयोगी के रूप में उनका फैसला उचित था. उन्होंने लोकसभा क्षेत्र और गठबंधन दोनों के प्रति अपने धर्म का निर्वाह किया. ऐसे में पहली बात तो यह कि कृष्णा का कथन अनुचित है कि अनुप्रिया अपनी मां की नहीं हुई, जबकि बतौर बेटी अनुप्रिया ने तो अपनी मां का मान बढ़ाया है.

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कृष्णा और पल्लवी को यह भी समझना चाहिए कि अपना दल को दो लोकसभा सीटें उनकी वजह से नहीं मिलीं. यह नरेन्द्र मोदी का करिश्मा था कि अपना दल दो लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ा, उसे शत-प्रतिशत सफलता मिली. कृष्णा पटेल को तो लोग जानते भी थे, लेकिन प्रतापगढ़ से जिन्हें चुनाव लड़ाया गया, उन्हें कोई जानता भी नहीं था. उनका लोकसभा में पहुंचना मोदी फैक्टर का ही परिणाम था. विडम्बना देखिए आज इन महाशय ने भी अनुप्रिया के मंत्री बनने का विरोध किया. ऐसा लगता है कि इन लोगों को पार्टी का उत्थान और राष्ट्रीय राजनीति में उसके पदार्पण की बात मंजूर नहीं हो रही है. ये लोग उसी स्तर पर उतरना चाहते हैं, जहां एक विधानसभा सीट निकालने में सांस फूल जाती थी. यह अच्छा है कि प्रतापगढ़ से पार्टी के लोकसभा सदस्य हरिबंश सिंह उस बैठक में शामिल नहीं हुए जो कृष्णा और पल्लवी ने बुलाई थी.

विडम्बना देखिए कृष्णा पटेल भाजपा के सहयोग से अपनी बेटी के लोकसभा पहुंचने पर सामान्य रही, लेकिन वही बेटी मंत्री क्या बनी मां नाराज हो गयी. कहा कि अब भाजपा को सबक सिखायेंगे. उनका कहना है कि गत वर्ष अनुप्रिया को पार्टी से निकाल दिया गया था, फिर भी प्रधानमंत्री ने उन्हें मंत्री बना दिया. कृष्णा पटेल को समझना चाहिए कि किसी को मंत्री बनाने के लिए प्रधानमंत्री के सामने दलगत स्थिति देखने की बाध्यता नहीं होती. वह तो ऐसे व्यक्ति को भी मंत्री बना सकता है, जो किसी पार्टी का सदस्य न हो.

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यह साफ है कि कृष्णा पटेल का लगाव पल्लवी से अधिक है. अनुप्रिया के विरोध का दूसरा कोई कारण नहीं है, लेकिन अनुप्रिया को पार्टी का अध्यक्ष मानने वालों का हौसला बुलन्द है. कृष्णा पटेल के जवाब में अनुप्रिया समर्थकों ने भी समानान्तर बैठक की. इतना तय है कि अनुप्रिया के सामने दुविधा की कोई स्थिति नहीं है. वह एनडीए के साथ हैं और उसी के साथ उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ेंगी. जबकि कृष्णा और पल्लवी को फिलहाल दुविधा में ही रहना होगा. अपने दम पर वह कुछ करने की स्थिति में नहीं है. कमजोर स्थिति के कारण अन्य दल भी उन्हें खास महत्व नहीं देंगे.

लेखक

डा. दिलीप अग्निहोत्री डा. दिलीप अग्निहोत्री @dileep.agnihotry

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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