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Updated: 22 अप्रिल, 2018 07:36 PM
अनुषा सोनी
अनुषा सोनी
  @anusha.son
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हमारे यहां पर सार्वजनिक संस्थान प्रक्रियाओं के आधार पर चलते हैं और जनता के विश्वास पर फलते फूलते हैं. सुप्रीम कोर्ट लाखों लोगों के विश्वास पर चलता है और उससे न्याय करने की उम्मीद होती है. यह संवैधानिक मूल्यों का अभिभावक है और "कानून के शासन" को अपरिवर्तनीय रूप से बनाए रखने के लिए विभिन्न मुद्दों पर निर्णय देता है. जब हम विपक्षी दलों द्वारा प्रस्तावित महाभियोग के प्रस्ताव के आगे की कार्यवाही और उसके भविष्य पर बात करते हैं. तो जनता के अवधारणा की अदालत में चीफ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट का महाभियोग हो चुका है.

कानून के क्षेत्र में लोगों की धारणाओं को हल्के ढंग से नहीं लिया जाता है. कानून का मकसद लोगों के अंदर लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देना है. न्यायाधीशों के व्यक्तिगत आचरण के माध्यम से नैतिकता के उच्च मानकों को स्थापित करना है. यह नैतिकता नागरिकों को निराशाजनक बातों और सोच से दूर रखती है और व्यक्तिगत हितों से उपर उठकर उन्हें उच्च सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करती है. उस महत्वपूर्ण सार्वजनिक धारणा की अदालत में, शीर्ष अदालत पहले ही अपना युद्ध हार चुकी है. विश्वास का महाभियोग पहले ही हो चुका है और सीजेआई कार्यालय "दोषी" लगता है.

इस गिरावट का प्रमुख कारण शीर्ष न्यायालय द्वारा समय समय पर खुद को सुधारने की विफलता को ठहराया जा सकता है. "घर को व्यवस्थित रखना और आंतरिक रूप से मुद्दों को हल करना" ये अब बीते जमाने की बातें लगती हैं. जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए संस्थानों को प्रक्रियाओं में सुधार और विकास करना चाहिए. जिस कोर्ट को पारदर्शिता रखना चाहिए था वही अगर जजों की नियुक्ति से लेकर अपने कामकाज के तरीकों को छुपाकर रखता है फिर लोगों का उस पर भरोसा कैसे होगा?

शीर्ष न्यायपालिका के भीतर की काली सच्चाई और आपस की खींचतान अब खुलकर सामने आ गई है. सुप्रीम कोर्ट का प्रशासन या महत्वपूर्ण मामलों में बेंच आवंटित करना चीफ जस्टिस का विशेषाधिकार है, इसमें कोई स्पष्ट प्रक्रिया भी निर्धारित नहीं है. जब 10 नवंबर 2017 को पांच जजों की बेंच के सामने ही चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा और वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण के बीच गरमागरम बहस और कहासुनी हुई थी तभी जाहिर हो गया था कि अब फूट को रोका नहीं जा सकता.

CJI, Deepak Misra, Impeachmentलोगों का न्यायपालिका पर से भरोसा उठ गया है

जजों के बीच खींचतान, ताना मारने का दौर और एक दूसरे पर चीखने चिल्लाने का दौर उस वक्त से और बढ़ गया जब चीफ जस्टिस ने मेडिकल प्रवेश घोटाले के मामले में न्यायधीश जे चेलेश्वर के आदेश को उलट दिया. विजिटर गैलरी से किसी ने मुझे कहा, "ये संसद की तरह नहीं दिख रहा है? बस यही उम्मीद है कि वे एक-दूसरे पर कुर्सियां फेंकना न शुरू कर दें?" उस दिन अदालत की गरिमा कई बार टूटी और उसके बाद वापसी का कोई रास्ता नहीं बचा. 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के चार जज मीडिया के सामने आए और उसके बाद तो सभी को पता ही है.

कभी-कभी सुप्रीम कोर्ट के फैसले ज्यादातर लोगों को पसंद ही नहीं आए. कोर्ट की आज्ञा को लागू कराने का जिम्मा कार्यपालिका पर होता है. जब सर्वोच्च न्यायालय अपने आदेशों को लागू कराना चाहती है तो इसके पीछे एक नैतिक तर्क होता है. तर्क यह है कि फैसला ही "सही" तरीका है या फिर "न्याय" सुनिश्चित करता है, हालांकि राजनीतिक रूप से ये असुविधाजनक हो सकता है. जब सुप्रीम कोर्ट पर हमला होता है तो नैतिक बल कमजोर पड़ जाता है, खासकर तब जब ये परेशानी घर में ही बढ़ गई हो.

हर बार जब भी सुप्रीम कोर्ट, कार्यपालिका के सामने खड़ी हुई है, तब इतिहास में उसका नाम दर्ज हुआ है. लेकिन हर बार जब जब न्यायापालिका ने कार्यपालिका के आगे घुटने टेके जैसे, इमरजेंसी के दौरान, तब तब न तो इतिहास ने उसे भूला न ही उनको क्षमा किया. सुप्रीम कोर्ट के जो चार जज प्रेस कॉन्फ्रेंस में आए वो न्यायपालिका में बस सुधार चाहते थे और उन्होंने अपनी असहाय हालत बयान की. उनका इरादा सिर्फ और सिर्फ संस्था की रक्षा करना था. लेकिन अगर ध्यान से देखें तो उस प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद अगर किसी का फायदा हुआ है तो सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक वर्ग का.

सत्तारूढ़ दल ने सुप्रीम कोर्ट को खुलेआम विभाजित कर दिया है. अब जिस घर में खुद फूट पड़ी हो वो किसी ऐसी जिद्दी सरकार को न्याय के रास्ते पर चलने के लिए मजबूर नहीं कर सकती है जो अपना पावर छोड़ने के लिए तैयार नहीं है. एक कमजोर या विभाजित अदालत सिर्फ सरकार को लाभ ही पहुंचाएगी. वहीं दूसरी तरफ विपक्ष को एक और झुनझुना मिल गया है. महाभियोग के मुद्दे पर कांग्रेस खुद ही बंटी हुई है.

अंत में अगर कोई पूरी संवैधानिक संरचना के आधार को ही खोदता है, तो यह विश्वास के अलावा किसी और चीज पर नहीं टिका है. लेकिन अब ये भाव विलुप्त हो रहा है ऐसा लगता है. हालांकि न्यायपालिका अपनी सबसे जरुरी लड़ाई हार चुकी है लेकिन फिर भी युद्ध जारी है. चीफ जस्टिस पर ताजा हमले से संविधान और लोकतंत्र पर भी असर पड़ा है. दोनों को ही नेताओं से बचाने की जरुरत है. स्वतंत्रता के बाद से ही अदालतों ने ऐसा किया भी है. और जब वे असफल रहे, तो हमने उसे आपातकाल कहा.

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लेखक

अनुषा सोनी अनुषा सोनी @anusha.son

लेखक इंडिया टुडे टीवी में विशेष संवाददाता हैं

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