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Updated: 24 अप्रिल, 2018 09:52 PM
अनुषा सोनी
अनुषा सोनी
  @anusha.son
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विपक्षी दलों ने चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के महाभियोग के अपने प्रस्ताव को सही ठहराने के पक्ष में पांच कारण बताए हैं और उसमें जस्टिस मिश्रा द्वारा "कदाचार" की घटनाओं का उल्लेख भी किया है. चीफ जस्टिस पर लगे आरोपों में मेडिकल प्रवेश घोटाले में उनकी भागीदारी से लेकर प्रशासनिक तौर पर उनके सही से काम न करने का भी उल्लेख है. उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया, इसलिए अब ये मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया है.

पिछले कुछ महीनों में सुप्रीम कोर्ट में जिस तरीके से काम हो रहा है उसके प्रति मैं बहुत ही आलोचनात्मक रही हूं. हर गुजरते दिन के साथ ही उच्चतम न्यायालय में सुधार मांग तेज होती जा रही थी.

लेकिन अभी चीफ जस्टिस पर महाभियोग का प्रस्ताव लाने के पीछे जो आरोप लगाए गए हैं उससे ये महसूस हो रहा है जैसे सुप्रीम कोर्ट में जो कुछ भी गलत हो रहा है उसकी जड़ चीफ जस्टिस ही हैं. ये बिल्कुल गलत और भ्रामक करने वाली बात है. चीफ जस्टिस पर हमला एक राजनीतिक कदम है और इससे न्यायपालिका को नुकसान पहुंचेगा. अपनी इस बात को साबित करने के लिए मैं सिर्फ दो ही तर्क आपके सामने पेश करुंगी.

पहला तो ये कि सुप्रीम कोर्ट में चल रही अफरा तफरी की आड़ में विपक्षी दलों द्वारा चीफ जस्टिस पर लगाए गए आरोप सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए उठाया गया एक तुच्छ कदम है. "तुच्छ" से मेरा मतलब है कि विपक्ष के आरोप उन समस्याओं का समाधान की बात नहीं करते जो न्यायपालिका में मुख्य रुप से मौजूद हैं. न्यायपालिका के संस्थागत समस्याओं की आड़ लेकर विपक्ष का उठाया गया ये कदम बिल्कुल स्वार्थपूर्ण है. इससे भी बदतर ये है कि पहले से ही परेशानियों में घिरी न्यायपालिका का सहारा लेकर ये लोग अपना राजनीतिक हित साध रहे हैं.

विपक्षी दल में देश के कई जाने माने वकील मौजूद हैं. ऐसे में उन्हें इस बात का अंदेशा नहीं हो कि राज्यसभा अध्यक्ष वेंकैया नायडू इस प्रस्ताव को अस्वीकार भी कर सकते हैं ये बात कुछ हजम नहीं होती. और अगर उपराष्ट्रपति ने महाभियोग प्रस्ताव को स्वीकार भी कर लिया होता तो भी विपक्ष के पास संसद में इसे पास करने के लिए संख्या नहीं है. ये कदम सिर्फ इसलिए उठाया गया ताकि चीफ जस्टिस इस्तीफा दे दें.

जब विपक्ष मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाएगा तो निश्चित रुप से दिक्कतें पैदा करेगा. क्योंकि इस मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस कर नहीं सकते है और वरीयता क्रम में उनके बाद आने वाले चार जज पहले ही चीफ जस्टिस के कामकाज के बारे में अपनी असहमति जाहिर कर चुके हैं. अब ऐसे में सवाल ये उठता है कि चीफ जस्टिस के बाद आखिर प्रशासनिक अधिकार किसके पास होंगे. क्योंकि "मास्टर ऑफ रोस्टर" होने के कारण इसका अधिकार सिर्फ चीफ जस्टिस के पास है और इस मामले में एक प्रतिवादी हैं.

CJI, Deepak mishra, oppositionअपने राजनीतिक हित साधने के लिए चीफ जस्टिस को बलि का बकरा तो नहीं बनाया जा रहा?

चलिए मेडिकल एडमिशन स्कैम केस के बारे बात करते हैं.

चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के बड़े से बड़े आलोचक भी इस बात को मानेंगे कि प्रसाद एजुकेशनल ट्रस्ट मामले में उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है. उन्होंने ऐसा कोई भी आदेश पारित नहीं किया जिसने आरोपी कॉलेज किसी भी तरीके से फायदा पहुंचाया हो. यहां तक की कॉल रिकॉर्ड से भी कुछ साबित नहीं होता.

चीफ जस्टिस पर आरोप है कि वकील के रूप में उन्होंने एक झूठा हलफनामा पेश किया था. इस आरोप को तभी लगाना चाहिए था जब वो वकील से जज के तौर पर प्रोन्नत हुए थे. महाभियोग के लिए इसे आरोप बनना बिल्कुल बेबुनियाद है.

जहां तक उनकी प्रशासनिक शक्तियों की बात है तो ये अपने आप में आश्चर्य का विषय है कि पिछली तारीख की एक प्रशासनिक नोट तैयार की गई थी, इस निष्कर्ष पर आखिर विपक्षी दल कैसे पहुंचे. उनके पास क्या सबूत हैं?

ऐसा भी नहीं है कि इसके पहले किसी भी चीफ जस्टिस को भ्रष्टाचार के ऐसे आरोपों का सामना नहीं करना पड़ा है. पूर्व चीफ जस्टिस केजी बालकृष्णन को भी इसी तरह के आरोपों का सामना करना पड़ा था. इनमें सबसे ताजा मामला अरुणाचल प्रदेश के स्वर्गीय मुख्यमंत्री, कलिखो पुल द्वारा लिखे गए सुसाइड लेटर का है. इसमें उन्होंने पूर्व चीफ जस्टिस जेएस खेहर और अन्य न्यायाधीशों पर अपने रिश्तेदारों के जरिए रिश्वत मांगने का आरोप लगाया था.

अब प्रशासनिक गलतियों की बात करते हैं. हाल ही में न्यायमूर्ती चेलेश्वर ने स्वीकार किया कि चुनिंदा जजों को केस देना सर्वोच्च न्यायालय में कोई नई बात नहीं है. उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि जयललिता के असमान संपत्ति मामले के समय भी चुनिंदा जज को केस दिया गया था. और ये चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के कार्यकाल के दौरान नहीं हुआ था, बल्कि पूर्व चीफ जस्टिस एचएल दत्तू के समय की बात है. एचएल दत्तू अब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष हैं.

मेरा दूसरा तर्क यह है कि जो मुद्दे न्यायपालिका को बीमार कर रहे हैं वो पूरी तरह संस्थागत प्रकृति के हैं. अपने पूर्ववर्तियों की तुलना में सीजेआई दीपक मिश्रा ने अपनी शक्तियों का कोई भी बुरा प्रयोग नहीं किया है. लेकिन एक प्रबंधक के तौर पर वो जरुर फेल हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट के अंदर शक्ति संतुलन को प्रबंधन करने में वो नाकाम रहे और यही काम उनके पूर्ववर्तियों ने बेहतर तरीके कर लिया.

इसके अलावा मेरे दिमाग में यही भी आ रहा है कि राजनीतिक आरोपों प्रत्यारोपों के इस दौर में उन्हें ढाल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. जब सुप्रीम कोर्ट के अंदर बदलाव और सुधारों की मांग उठती है तभी वो चीफ जस्टिस रहते हैं.

यह तर्क भी दिया जा सकता है कि सीजेआई मिश्रा अपने साथी न्यायाधीशों का विश्वास जीतने में असफल रहे हैं. साथ ही प्रशासनिक स्तर पर भी शक्तियों का केंद्रीकरण हुआ है. लेकिन फिर सुप्रीम कोर्ट के हालिया समस्याएं के लिए सिर्फ एक न्यायाधीश को जिम्मेदार ठहराना एक भ्रामक राजनीतिक कदम है. समस्या एक व्यक्ति या व्यक्तित्व की नहीं है. बल्कि समस्या संस्था के तौर पर है उसमें निहित पारदर्शी प्रक्रियाओं की कमी के कारण है.

यही समय है जब सर्वोच्च न्यायालय को इस तरह के राजनीतिक हमलों के खिलाफ खड़ा होना चाहिए और आंतरिक सुधारों के जरिए संस्थान की संप्रभुता की रक्षा करती चाहिए. किसी को भी बचाने की कोशिश स्थिति को और खराब कर देगी.

(DailyO से साभार)

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अनुषा सोनी अनुषा सोनी @anusha.son

लेखक इंडिया टुडे टीवी में विशेष संवाददाता हैं

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