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Updated: 20 अप्रिल, 2018 02:49 PM
मिन्हाज मर्चेन्ट
मिन्हाज मर्चेन्ट
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चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के महाभियोग के पीछे का खेल ही कुछ और है. कांग्रेस, लेफ्ट, एनसीपी और बाकी विपक्षी पार्टियों को अच्छे से पता है कि लोकसभा और राज्यसभा में महाभियोग को पास होने के लिए जरूरी दो तिहाई बहुमत उनके पास नहीं है. चीफ जस्टिस के महाभियोग के पीछे का षड़यंत्र ये है कि चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली बेंच द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चल रहे महत्वपूर्ण मुकदमों की सुनवाई में देरी की जा सके. इनमें से एक है अयोध्या में राम मंदिर बनाने का और दूसरा था सीबीआई जज बीएच लोया की मौत के केस का.

आखिर इन दो केस में ऐसा क्या है कि विपक्ष के नेता इसके डर से खुद चीफ जस्टिस के महाभियोग जैसा कदम उठा लेंगे. वो भी ये जानते हुए कि संसद में उनके पास बहुमत भी नहीं है और ये पहली ही सीढ़ी पर ढेर हो जाएगा. उदाहरण के लिए अगर ये मान लें कि चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव को राज्यसभा के 50 और लोकसभा के 100 सदस्यों का समर्थन मिल भी जाता है तो भी राज्यसभा के सभापति वैंकेया नायडू और लोकसभा की स्पीकर सुमि‍त्रा महाजन इसे अपने विवेक के आधार पर निरस्त भी कर सकते हैं.

अब मान लें कि वैंकेया नायडू या फिर सुमित्रा महाजन इसे निरस्त नहीं भी करते तो भी चीफ जस्टिस के खिलाफ लगे आरोपों की जांच के लिए तीन सदस्यीय कमेटी बनाई जाएगी. ये कमेटी आरोपों की जांच करेगी और सदन में अपनी रिपोर्ट रखेगी. लोकसभा और राज्यसभा दोनों ही में दो तिहाई बहुमत से इस प्रस्ताव को पास होना होगा. ऐसे में ये तय है कि प्रस्ताव पारित नहीं ही होगा. तो सवाल ये उठता है कि आखिर फिर कांग्रेस, लेफ्ट, एनसीपी और अन्य विपक्षी पार्टियां इस नाटक को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी रख रही हैं.

CJI, Deepak mishra2019 के चुनावों के पहले दीपक मिश्रा उनकी रणनीति फेल न कर दें

कुछ महीने पहले चीफ जस्टिस ने संकेत दिए थे कि वो राम मंदिर-अयोध्या की सुनवाई को फास्ट ट्रैक करना चाहते हैं. बस तभी से 10 जनपथ और 12 तुगलक लेन में खलबली मच गई है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गांधी दोनों ही बहुत अच्छे से जानते हैं कि अगर फैसला राम मंदिर के समर्थन में आया तो 2019 के लोकसभा चुनावों में उनके हिंदू वोट खिसक जाएंगे.

अयोध्या मामले में चीफ जस्टिस मिश्रा ने सारी जनहित याचिकाएं खारिज कर दीं. अगर उन जनहित याचिकाओं को स्वीकार कर लिया जाता, तो अयोध्या मामले पर फैसले आने में अनिवार्य रूप से देरी होती. मुख्य न्यायधीश के इस कदम से खफा कांग्रेस ने पिछले 55 सालों के शासन के बाद बनाए हर हथियार को आजमाने का मन बना लिया. सोनिया और राहुल दोनों ही को लगता है 2019 के आम चुनाव सत्ता में उनकी पार्टी की वापसी के लिए सबसे अच्छा समय है. चीफ जस्टिस पर महाभियोग का प्रस्ताव इसी का एक पक्ष है, जिसके जरिए वो दीपक मिश्रा को डराना चाहते हैं ताकि वो राम मंदिर पर अपना फैसला 2019 के चुनावों के बाद तक के लिए स्थगित कर दें.

एनसीपी के सदस्य माजिद मेमन ने कहा- "मैंने और विपक्ष के कई सांसदों ने चीफ जस्टिस के महाभियोग प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कर दिए हैं." लेकिन तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने थोड़ा संयमित तौर पर जवाब दिया- "मैं सिर्फ इतना ही कहूंगी कि तृणमूल कांग्रेस चीफ जस्टिस के खिलाफ सभी पार्टियों द्वारा लिए गए फैसले का साथ देगी. आखिर चार जजों की बात कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता."

जनवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट के चारो जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके जो बात कही वो कांग्रेस और विपक्षी दलों के लिए फायदेमंद है. चारों जजों ने चीफ जस्टिस द्वारा रोस्टर की अवमानना करने का आरोप लगाया था. लेकिन उनके इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए छुपे तौर पर मुख्य न्यायधीश के खिलाफ अविश्वास का संदेश देना मकसद था.

लेकिन चीफ जस्टिस ने चारों जजों को निराश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और अगले ही महीने सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर नया रोस्टर डाल दिया. चारों जजों को सदमा देते हुए चीफ जस्टिस मिश्रा ने उन्हें भूमि और दीवानी मुकदमे निर्धारित कर दिए. और अपना अधिकार दिखाते हुए सारी जनहित याचिकाओं और संवेदनशील राजनीतिक केस को अपनी बेंच में रख लिया.

महाभियोग प्रस्ताव का दूसरा कारण है विपक्ष द्वारा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पर निशाना साधना. राहुल गांधी और अमित शाह के बीच की खटास साफ दिखती है. वो संसद में भी एक दूसरे से अभिवादन तक करने से कतराते हैं. कांग्रेस को लगता है कि अगर 2019 के चुनावों के पहले उन्होंने अमित शाह को नीचा दिखा दिया तो वो भाजपा के चुनावी रफ्तार को कम कर सकते हैं. यही कारण है कि जज लोया के केस में कांग्रेस इतनी दिलचस्पी दिखा रही है.

CJI, Deepak mishraअमित शाह को नीचा दिखाने के लिए कांग्रेस सारे दांव खेल रही है

2014 में नागपुर में जज लोया की मौत से संबंधित जनहित याचिका चीफ जस्टिस मिश्रा के बेंच के पास ही है. जज लोया की मौत हृद्याघात से हुई थी. उनकी मृत्यु के तीन साल बाद कारवां मैगजीन ने प्राकृतिक मौत को 'संदिग्ध मौत' बताया और जज लोया उस वक्त जो केस सुन रहे थे उससे जोड़ दिया. 2005 में कुख्यात तस्कर और अपराधी सोहराबुद्दीन के गुजरात में पुलिस के साथ मुठभेड़ का मामला भी इसमें शामिल था. तब अमित शाह गुजरात के गृह मंत्री थे.

आरोप जो लगाए गए थे-

पहला: सोहराबुद्दीन को अमित शाह के कहने पर फर्जी इनकाउंटर में मारा गया.

दूसरा: जज लोया सोहराबुद्दीन मामले की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें अमित शाह आरोपी हैं. ऐसे में जज लोया कि मौत संदेहास्पद और अप्राकृतिक लग रहा है.

तीसरा: चीफ जस्टिस मिश्रा को जज लोया की मौत के मामले को सुप्रीम कोर्ट की दूसरी बेंच को सौंप देना चाहिए.

मुख्य न्यायाधीश ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. बल्कि इसके बदले उन्होंने बॉम्बे हाईकोर्ट में लंबित न्यायाधीश लोया की मौत से संबंधित सभी मामलों को सुप्रीम कोर्ट की पीठ को सौंप दिया. जज लोया की मौत को संदिग्ध बताने में बॉम्बे हाईकोर्ट के वरिष्ठ वकील दुष्यंत दवे सबसे आगे रहे. चीफ जस्टिस ने दवे को दो टूक कह दिया कि उनकी पीठ मामले की बारीकी से जांच करेगी और अगर यह योग्य हुआ तो जांच के आदेश भी देगी. और आखिर में पूरी जांच के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जज लोया की मौत के मामले में किसी अलग जांच की जरूरत को दरकिनार कर दिया. इतना ही नहीं इस मामले में बढ़-चढ़कर याचिका लगाने वाले लोगों और वकीलों को भी राजनीति से प्रेरित बताया.

चीफ जस्टिस के निर्णयों से हर स्तर पर विपक्ष के मंसूबे नाकामयाब हुए हैं. अगर तथ्यों को ध्यान से देखा जाए तो विपक्ष और इसके वरिष्ठ वकीलों ने ही अजीब तरह से व्यवहार किया है. उदाहरण के लिए, जज लोया की मौत को बॉम्बे हाईकोर्ट के दो न्यायाधीशों (न्यायमूर्ति सुनील शुक्रे और भूषण गवई) के साथ-साथ जज लोया की मृत्यु के कुछ घंटों पहले और बाद में भी उनके साथ रहे, दो जिला न्यायाधीशों ने उनकी मौत को प्राकृतिक मौत ही माना था. हालांकि कारवां मैगज़ीन ने अपने नवीनतम अंक में भी जज लोया की मृत्यु को संदेहास्पद ही बताया. और उन्होंने आरोप लगाया है कि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में हेरफेर की गई थी.

कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्ष का मानना है कि 2019 के आम चुनावों के पहले राम मंदिर मामले में देरी और लोया/ सोहराबुद्दीन मामले में अमित शाह को फंसाने के उनके मंसुबों पर चीफ जस्टिस मिश्रा पानी फेर सकते हैं. और इसलिए ही मीडिया और कानूनी तौर पर वो ऊल-जलूल हमले कर रहे हैं. चीफ जस्टिस मिश्रा अक्टूबर 2018 में रिटायर हो रहे हैं. बहुत मुमकिन है कि अयोध्या और लोया मामलों पर वो रिटायरमेंट के पहले ही फैसला सुना दें. महाभियोग का प्रस्ताव उन्हें इस काम से रोकने के लिए ही लाया गया है.

( DailyO से साभार )

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