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Updated: 05 अक्टूबर, 2020 11:48 AM
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चिराग पासवान (Chirag Paswan) ने भी नीतीश कुमार (Nitish Kumar) वाली स्टाइल में ही एनडीए छोड़ा है - फर्क सिर्फ सात साल के फासले का है. नीतीश कुमार ने भी 2013 में ऐसे ही एनडीए छोड़ दिया था. तब और अब में अंतर यही है कि नीतीश कुमार ने बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के विरोध में एनडीए छोड़ा था और अब चिराग पासवान ने बिहार में एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नीतीश कुमार के विरोध में गठबंधन से अलग रास्ता अख्तियार कर लिया है.

ध्यान देने वाली बात ये है कि चिराग पासवान चुनाव बाद सरकार भी बीजेपी के साथ ही बनाना चाहते हैं. चिराग पासवान को परहेज बस नीतीश कुमार से है. मतलब, चिराग पासवान का एजेंडा साफ है - नीतीश कुमार को बिहार का मुख्यमंत्री न बनने देना!

राजनीति के मौसम विज्ञान की विरासत

चिराग पासवान ने एनडीए छोड़ने जैसा मुश्किल फैसला ऐसे वक्त में लिया है जब उनके पिता रामविलास पासवान अस्पताल में हैं और कुछ ही घंटे पहले उनके दिल का ऑपरेशन हुआ है. ट्विटर पर ये जानकारी शेयर करते हुए चिराग पासवान ने ये भी बताया है कि जल्द ही एक और ऑपरेशन भी करना पड़ सकता है.

अस्पताल जाने से पहले रामविलास पासवान ने साफ कर दिया था कि चिराग पासवान के हर फैसले में उनकी सहमति होगी. रामविलास पासवान ने ये भी बताया था कि कैसे चिराग उनका पूरा ख्याल रख रहे हैं. उससे पहले रामविलास पासवान ने चिराग पासवान और नीतीश कुमार के बीच बातचीत बंद होने की बात भी कंफर्म किया था.

रामविलास पासवान ने बताया था कि लोग कहते हैं कि चिराग पासवान और नीतीश कुमार के बीच कभी बातचीत नहीं होती, लेकिन सुशांत सिंह राजपूत केस को लेकर पत्र भी लिखा था और फोन पर बात भी की थी. ये उसी दिन की बात है जिस दिन नीतीश कुमार ने सुशांत केस में सीबीआई जांच की सिफारिश की थी.

चिराग पासवान को भी तेजस्वी यादव की ही तरह विरासत में राजनीति मिली है - और दोनों ही राजनीति मजबूरी में करते हैं क्योंकि दोनों का ही सपने राजनीति से अलग रहे. राजनीतिक परिवार से होने के बावजूद चिराग पासवान जहां एक्टर बनना चाह रहे थे, वहीं तेजस्वी यादव का सपना क्रिकेटर बनने का था, लेकिन दोनों ही अपने पसंदीदा कॅरियर में फेल हो गये और खानदानी राजनीति संभालनी पड़ी.

चिराग पासवान को भी रामविलास पासवान ने वैसे ही अपनी राजनीतिक विरासत सौंप दी है जैसे लालू यादव ने तेजस्वी यादव को. लालू यादव के बारे में माना जाता है कि अपनी राजनीतिक विरासत तो तेजस्वी को सौंपी लेकिन अपनी काबिलियत दोनों बेटों में बांट दिया - तेजस्वी को राजनीतिक हुनर दे दिया और तेज प्रताप को स्टाइल. चिराग पासवान के केस में ऐसा नहीं हुआ है.

चिराग पासवान ने पिता से राजनीति का मौसम विज्ञान भी समझ लिया है. 2014 से पहले ही पिता-पुत्र ने भांप लिया था कि यूपीए की सत्ता में वापसी होना मुश्किल है और एनडीए के लिए बड़ा चांस है. तभी पासवान की पार्टी एनडीए में शामिल हो गयी. वैसे भी नीतीश के चले जाने के बाद बीजेपी को बिहार में एक साथी की जरूरत थी. चुनाव हुआ और चिराग पासवान जमुई लोक सभा सीट से चुनाव जीत कर संसद पहुंचे. रामविलास पासवान तो अपने लिए मंत्री पद का इंतजाम कर ही चुके थे.

chirag paswan, narendra modiचिराग का नया स्लोगन - नीतीश तेरी खैर नहीं, मोदी तुझसे बैर नहीं!

जाहिर है चिराग पासवान के ताजा फैसले में भी राजनीति के मौसम विज्ञान की भूमिका तो होगी ही. चिराग पासवान बीजेपी के साथ बने हुए हैं और एलजेपी की प्रेस रिलीज में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों को मजबूत करने की बात जोर देकर कही है. साथ ही, ये भी संभावना जतायी है कि चुनाव बाद केंद्र सरकार की तरह बिहार में भी बीजेपी के नेतृत्व में एलजेपी मिल कर सरकार बनाएगी.

चिराग पासवान को लेकर रामविलास पासवान ने कुछ दिन पहले मुख्यमंत्री बनने की काबिलियत बतायी थी. ये भी माना था कि उनके साथ साथ लालू यादव और नीतीश कुमार का जमाना बीत चुका है. ध्यान देने वाली बात ये है कि चिराग पासवान ने तेजस्वी यादव की तरह खुद को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार या दावेदार के तौर पर पेश नहीं किया है.

चिराग पासवान के बिहार में एनडीए छोड़ने के फैसले को रिस्क फ्री प्लान के तौर पर समझा जा सकता है. कहा भी है कि उनका एनडीए में बीजेपी के साथ गठबंधन है, न कि जेडीयू और जीतनराम मांझी की पार्टी के साथ. जेडीयू नेता भी कई बार कह चुके हैं कि एलजेपी का गठबंधन बीजेपी के साथ है उनके साथ नहीं.

अब अगर चुनावों में चिराग पासवान अकेले उतर कर भी कोई करिश्मा नहीं दिखा पाते हैं तो भी उनकी राजनीतिक सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला है - लेकिन अगर किस्मत ने साथ दिया और बीते चुनावों के मुकाबले ज्यादा सीटें जीत गये तो बल्ले बल्ले है.

नीतीश के लिए क्या मैसेज है

चिराग पासवान ने शुरुआत तो 243 सीटों से की थी, लेकिन बाद में 143 के नंबर पर बने हुए हैं. अभी ये नहीं साफ है कि एनडीए छोड़ देने के बाद भी अगर 143 सीटों पर लड़ेंगे तो बीजेपी की सीटें भी प्रभावित होंगी. खबर है कि जेडीयू और बीजेपी के बीच लोक सभा चुनाव की ही तरह 50-50 पर बंटवारा हो रहा है. जिस तरह से एलजेपी बीजेपी के साथ बने रहने की बात कही है, लगता है अब चिराग पासवान अपनी सीटें कम कर सकते हैं.

साथ ही, चिराग पासवान ने ये भी कहा है कि कई सीटों पर वैचारिक विरोध के चलते जेडीयू के साथ फ्रेंडली मैच हो सकता है ताकि लोगों बेहतर प्रत्याशी को लेकर सही फैसला ले सकें. पिछले चुनावों पर नजर डाली जाये तो पासवान की पार्टी का लोक सभा के मुकालबे बिहार विधानसभा चुनाव में काफी घटिया प्रदर्शन रहा है. 2010 के चुनाव में एलजेपी ने 75 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे लेकिन सिर्फ तीन ही सीटों पर जीत मिल पायी थी. उसी तरह 2015 के चुनाव में एलजेपी को एनडीए में 42 सीटें मिली थीं लेकिन पार्टी के खाते में कुल जमा दो ही सीटें आयीं.

ऐसा लगता है जैसे महाराष्ट्र में दूध की जली बीजेपी बिहार में छाछ भी कुछ ज्यादा ही फूंक फूंक कर पी रही है. 2015 की हार के बाद से बीजेपी ने जिस तरह से नीतीश कुमार को कदम कदम पर पंगु बना कर रख दिया है, वो तो नीतीश कुमार जैसा ही अंदर तक घुटा हुआ राजनीतिज्ञ है जो बीजेपी के जाल में पूरी तरह उलझ जाने के बावजूद अपना अस्तित्व बचाये हुए हैं.

बीजेपी की पूरी कोशिश तो यही लगती है कि चुनाव नतीजे जैसे भी हों, ऐसी स्थिति में कोई भी पार्टी न रहे जो बगैर उसके सरकार बनाने की स्थिति में हो. मतलब, जेडीयू की किसी भी सूरत में इतनी सीटें नहीं आनी चाहिये कि वो बीजेपी का साथ छोड़ कर फिर से महागठबंधन के साथ महाराष्ट्र जैसा एक्सपेरिमेंट करने लगे. जहां तक चिराग पासवान का सवाल है तो अगर केंद्र की सत्ता में हिस्सेदारी चाहिये तो वो बिहार के लिए बीजेपी से बगावत न कर पायें.

बीजेपी के साथ चिराग पासवान की जो भी गुप्त डील हुई हो, ऊपर से तो यही दिख रहा है कि उनका एकमात्र एजेंडा नीतीश कुमार का विरोध है. नीतीश कुमार को फिर से मुख्यमंत्री बनने देने से रोकना है. लगता तो यही है कि वो नीतीश कुमार के खिलाफ बीजेपी के ही किसी एजेंडे को आगे बढ़ाने में मोहरे के तौर पर इस्तेमाल हो रहे हैं.

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