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Updated: 01 जनवरी, 2022 02:41 PM
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साल 2021 (Year Ender 2021) में देश के 5 राज्यों में विधानसभा (Assembly Elections 2021) के लिए चुनाव हुए थे. ममता बनर्जी और पिनरायी विजयन तो चुनाव जीत कर मुख्यमंत्री (Chief Ministers) बने रहे, लेकिन असम में सर्बानंद सोनवाल को गुवाहाटी से दिल्ली शिफ्ट होना पड़ा. असम के अलावा तमिलनाडु और पुद्दुचेरी में भी नये नेताओं ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

कर्नाटक में तो चुनाव दूर होने के बावजूद बीजेपी नेतृत्व ने मुख्यमंत्री बदल दिया. उत्तराखंड में तो जैसे लगातार एक्सपेरिमेंट ही होते रहे. त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह बीजेपी ने तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया जरूर, लेकिन वो ज्यादा नहीं चल सके - और जब लगा कि अगला चुनाव जीतना मुश्किल हो जाएगा तो उनको हटाकर पुष्कर सिंह धामी को कमान सौंप दी गयी.

बीजेपी ने गुजरात में भी मुख्यमंत्री बदल डाला - और देखा देखी कांग्रेस ने पंजाब में खूब प्रयोग किये. कांग्रेस ने तो पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री देने का क्रेडिट भी लिया है, लेकिन चंडीगढ़ नगर निगम के चुनाव नतीजों के बाद तो लगता है कि अब तक आये सर्वे के आकलन को ही गांधी परिवार सच साबित करने पर आमादा है.

भारतीय जनता पार्टी ने असम में जो किया वो तो ऐतिहासिक ही रहा. असम में बीजेपी ने हिमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बनाने के साथ दूरगामी रणनीति के तहत चाल चली है - ये प्रयोग बीजेपी के विरोधी राजनीतिक दलों के लिए खतरे की घंटी लगती है.

1. हिमंत बिस्वा सरमा

बीजेपी शासित राज्यों में नया मुख्यमंत्री चुने जाने का सबसे बड़ा आधार नेता का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि से होना माना जाता रहा. हिमंत बिस्वा सरमा को असम का मुख्यमंत्री बना कर बीजेपी ने ये मिथक भी हमेशा के लिए तोड़ दिया है.

p vijayan, himanta sarma, mamata banerjeeहिमंत बिस्वा सरमा में कॅरिअर ऑफ्शन देखने वाले नेताओं के रोल मॉडल बन गये हैं.

बीजेपी ने ऐसे संकेत राजस्थान को लेकर एक बार दिये थे. ये तब की बात है जब सचिन पायलट मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ बागी बने हुए थे. राजस्थान बीजेपी के ही एक नेता ने बस इतना ही कहा था कि बीजेपी सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने पर भी विचार कर सकती है. हालांकि, इसे राजनीतिक समीकरणों की जरूरत के हिसाब से महज एक राजनीतिक बयान ही समझा गया था.

हिमंत बिस्वा सरमा 2016 के असम विधानसभा चुनाव से पहले ही कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में आ गये थे. बीजेपी ने हिमंत बिस्वा सरमा को नॉर्थ ईस्ट का संयोजक बनाया और वो अपनी काबिलियत साबित भी किये. असम से शुरू होकर त्रिपुरा तक बीजेपी की सरकारें बनीं भी.

कहा तो ये भी जाता है कि हिमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बीजेपी ने नहीं बनाया बल्कि वो बीजेपी को ऐसा करने के लिए मजबूर किये. कहने सुनने को तो ऐसी बहुत सारी बातें होंगी, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि आगे से किसी भी काबिल नेता को अपनी पार्टी छोड़ कर बीजेपी में आने के बाद निराश होने की जरूरत नहीं है.

हिमंत बिस्वा सरमा ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ साथ शुभेंदु अधिकारी जैसे नेताओं को भी उम्मीदों की रोशनी दिखायी है, शर्त सिर्फ ये है कि वो पश्चिम बंगाल में भी मध्य प्रदेश की तरह जैसे भी संभव हो बीजेपी की सरकार बनवा दें - हिमंत बिस्वा सरमा को तो 2021 जिंदगी भर याद रहेगा ही, जाने कितने ही नेताओं के वो रोल मॉडल भी बन चुके हैं.

2. चरणजीत सिंह चन्नी

पंजाब में दलितों की आबादी यूपी से डेढ़ गुना ज्यादा है, फिर भी बीएसपी के संस्थापक कांशीराम को उम्मीद की कोई किरण नहीं दिखायी पड़ रही थी. कांशीराम को यूपी पर फोकस करना पड़ा और नतीजा ये हुआ कि वो मायावती को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाने में सफल रहे.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पंजाब को पहला दलित मुख्यमंत्री देने का श्रेय हासिल हुआ है, लेकिन सूबे में पार्टी के प्रधान नवजोत सिंह सिद्धू ने मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के खिलाफ भी कैप्टन अमरिंदर सिंह की ही तरह मोर्चा खोल दिया है - और अब तो कांग्रेस के सत्ता में वापसी के आसार भी धीरे धीरे कम होते जा रहे हैं.

मुख्यमंत्री पद के लिए नाम की घोषणा के तत्काल बाद जब मीडिया ने चरणजीत सिंह चन्नी की पत्नी पर कैमरा फोकस किया तो उनका कहना रहा, 'बिलकुल भी नहीं सोचा था कि इतना बड़ा सरप्राइज मिलेगा.'

चन्नी के मुंह से तो ऐसा नहीं सुनने को मिला लेकिन सोचे तो वो भी नहीं होंगे, लेकिन भीतर से तो वैसी ही खुशी हुई होगी - और 2021 में मिली ये खुशी भी जिंदगी भर याद रहने वाली है.

क्रेडिट भले कांग्रेस को मिली हो, लेकिन पंजाब में दलित सीएम का आइडिया बीजेपी ने पेश किया था. बीजेपी के प्रस्ताव रखे जाने के बाद से कांग्रेस में भी ये मांग जोर पकड़ने लगी थी और इसे लेकर जो दलित नेता एक्टिव हुए थे उनमें चरणजीत सिंह चन्नी भी रहे. वैसे उन बैठकों का कोई खास मतलब नहीं था. चन्नी को गद्दी पर बिठाये जाने में सिद्धू का भी अहम रोल है क्योंकि उनके ही NOC के बाद ही तो ये संभव हो सका.

बीजेपी के प्रस्ताव का ही असर है कि अकाली दल ने सत्ता में आने पर दलित डिप्टी सीएम बनाने का ऐलान किया और फिर मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन भी किया है.

3. ममता बनर्जी

ममता बनर्जी के लिए तो साल 2021 भी 2011 जैसा ही है जीवन भर न भूलने वाला है. अब ये ममता बनर्जी को ही पता होगा कि इस बार की लड़ाई मुश्किल थी या दस साल पहले वाली.

दस साल पहले ममता बनर्जी ने चार दशक से सत्ता पर काबिज लेफ्ट फ्रंट से लड़ कर मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी - और इस बार ऐसा बीजेपी से करना पड़ा. फर्क ये रहा कि तब ममता बनर्जी को सूबे के भीतर काफी मजबूत वाम मोर्चा से दो-दो हाथ करने पड़े थे और इस बार केंद्र में ताकतवर सरकार चला रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सीनियर कैबिनेट सहयोगी अमित शाह से.

अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में एनडीए का हिस्सा रही ममता बनर्जी के लिए मौजूदा बीजेपी के साथ तो जानी दुश्मन वाला रिश्ता पहले ही बन गया था. 2019 के चुनाव में बीजेपी की बढ़त ने ये खायी और भी गहरी और चौड़ी कर डाली थी.

पहले से ही मुकुल रॉय पर हाथ साफ कर चुकी बीजेपी ने चुनावों से ऐन पहले ममता बनर्जी के मजबूत सहयोगी शुभेंदु अधिकारी को पाले में मिला लिया. ऐसे और भी नेता रहे जो पाला बदल कर बीजेपी में शामिल हुए.

चुनावों के दौरान बार बार खुद को फाइटर बताने वाली ममता बनर्जी ने अपने एक्शन में भी वैसा ही प्रदर्शन किया. जब बीजेपी की तरफ से ममता बनर्जी को नंदीग्राम से लड़ने की चुनौती दी गयी तो आगे बढ़ कर स्वीकार भी कर लिया.

ममता बनर्जी के साथ 2021 में जो कुछ भी हुआ वो कभी नहीं भूलने वाली बातें हैं. ममता बनर्जी नंदीग्राम से अपनी ही सीट हार गयीं, लेकिन तृणमूल कांग्रेस के हाथ से पश्चिम बंगाल की सत्ता नहीं फिसलने दी.

बंगाल चुनावों में 'खेला होबे' का नारा देने वाली ममता बनर्जी ने कहा था, एक पैर से बंगाल जीतेंगे और दो पैरों से दिल्ली. दरअसल, नंदीग्राम में नामांकन वाले दिन ही गाड़ी में बैठते वक्त ममता बनर्जी के पैर में चोट लग गयी थी और पैर में प्लास्टर लगने के बाद वो व्हील चेयर पर बैठ कर ही चुनावी रैलियां करती रहीं.

4. पी. विजयन

पिनराई विजयन को केरल में मुंडु-उड़ुथ-मोदी कह कर संबोधित किया जाता है, यानी - लुंगी वाला मोदी. ऐसा कहे जाने की कई वजहें हैं. जब देश भर में लेफ्ट पार्टियां राजनीति के हाशिये पर पहुंच चुकी हैं, विजयन भी केरल में ब्रांड मोदी की तरह स्थापित हो गये हैं. वैसे 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में वाम दलों का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा.

जब केरल में मोदी की बीजेपी खाता भी नहीं खोल पायी और राहुल गांधी के पूरी ताकत झोंक देने के बाद भी कांग्रेस कोई कमाल नहीं दिखा सकी, पी. विजयन ने अपनी बदौलत सत्ता में वापसी कर 40 साल का रिकॉर्ड भी तोड़ डाला.

बीजेपी तो खाता भी नहीं खोल पायी. बीजेपी के स्वघोषित मुख्यमंत्री फेस मेट्रोमैन के नाम से मशहूर ई. श्रीधरन तो हारे ही, दो सीटों से चुनाव लड़ने वाले केरल बीजेपी अध्यक्ष के. सुरेंद्रन भी हार गये.

चार दशक बाद केरल में ऐसा पहली बार हुआ जब कोई पार्टी चुनावों बाद सत्ता में वापसी की हो. विजयन की नेतृत्व वाले एलडीएफ गठबंधन में दो प्रमुख सहयोगी दल हैं - सीपीएम और सीपीआई.

5. भूपेंद्र पटेल

2021 में ही गुजरात के मुख्यमंत्री बने भूपेंद्र पटेल की किस्मत भी कई मायनों में चन्नी की तरह ही चमकी है. वैसे तो उनके मुख्यमंत्री बनने की कई वजहें रहीं, लेकिन उनका लो प्रोफाइल बने रहना ज्यादा फायदेमंद साबित हुआ.

जैसे आनंदी बेन पटेल, नरेंद्र मोदी की उत्तराधिकारी बनी थीं, भूपेंद्र पटेल भी आनंदी बेन के उत्तराधिकारी बने हैं. भूपेंद्र पटेल, आनंदी बेन की विधानसभा क्षेत्र से ही विधानसभा पहुंचे हैं - और प्रधानमंत्री मोदी ने उनके नाम पर आनंदी बेन पटेल की सिफारिश के चलते ही मुहर लगायी थी. आनंदी बेन पटेल फिलहाल यूपी की राज्यपाल हैं.

भूपेंद्र पटेल कब तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहते हैं कहना मुश्किल है. क्योंकि भूपेंद्र पटेल को अस्थाई इंतजाम के तौर पर ही लिया जाता रहा है. तभी ये चर्चा शुरू हो गयी थी कि 2022 के आखिर में होने वाले चुनाव से पहले भी केंद्रीय मंत्री मनसुख मांडविया को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है - अगर ऐसा नहीं हुआ तो चुनाव बाद तो पक्का है. असम में तो बीजेपी ने सर्बानंद सोनवाल के नेतृत्व में चुनाव जीतने के बाद हिमंत बिस्वा सरमा को मुख्यमंत्री बना कर ये मिसाल भी पेश कर दी है.

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