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Updated: 04 नवम्बर, 2017 05:24 PM
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मुकुल रॉय बीजेपी ज्वाइन कर चुके हैं. ये एक तरह से पॉलिटिक्स के म्युचुअल फंड जैसा लगता है, लेकिन थोड़ा अलग. इसमें फायदा तो दोनों को है लेकिन रिस्क फैक्टर काफी कम है. रिस्क का क्या कहें बल्कि सेफ गेम है, दोनों ही के लिए.

ऊपरी तौर पर इसमें कुछ खास बातों पर ध्यान जा रहा है. मुकुल के महज एक कदम बढ़ाने से नारदा और शारदा जैसे तमाम झंझावातों से मुक्ति मिल जाएगी - और बीजेपी को तृणमूल के नेटवर्क और उसकी कार्यशैली की पूरी जानकारी आसानी से मिल जाएगी.

मुकुल को एक साये की जरूरत थी और बीजेपी को जड़ों से जुड़ने की - ऐसे में दोनों एक दूसरे के लिए पूरक साबित हो सकते हैं. लेकिन मुकुल रॉय के इस कदम से बीजेपी को कितना फायदा होगा - और ममता को कितना नुकसान? फिलहाल बड़ा सवाल यही है.

बीजपी को मुकुल से कितना फायदा

क्या असम में भी बीजेपी सरकार इसीलिए बना पायी क्योंकि हिमंता बिस्वा सरमा ने तरुण गोगोई का साथ छोड़ दिया था? क्या यूपी में मायावती को सत्ता में आने से इसीलिए रोका जा सका क्योंकि स्वामी प्रसाद मौर्य बीजेपी के साथ आ गये थे? क्या उत्तराखंड में बीजेपी सत्ता इसीलिए हथिया सकी क्योंकि विजय बहुगुणा कांग्रेस के बड़े नेताओं को लाकर मैदान खाली कर दिये थे. इन सभी सवालों का एक जवाब 'हां' या 'ना' नहीं हो सकता. फिर भी मुकुल रॉय के बीजेपी ज्वाइन करने के फायदे और नुकसान समझना हो तो इन्हीं सवालों के जरिये समझा जा सकता है.

amit shah, mukul royदीदी नहीं, अब तो मोदी मोदी...

क्या मुकुल रॉय के बीजेपी ज्वाइन करने से कोई बड़ा बैंक पार्टी से जुड़ जाएगा? हरगिज नहीं, क्योंकि मुकुल रॉय के साथ ऐसा कुछ भी नहीं है. क्या मुकुल रॉय के जरिये बीजेपी पश्चिम बंगाल के किसी खास तबके से कनेक्ट हो पाएगी? ऐसी भी कोई संभावना नहीं है.

तो क्या सिर्फ मुकुल रॉय को भी बीजेपी की जरूरत थी और उन्होंने कुछ नेताओं के जरिये अपना मतलब निकाल लिया. नहीं, बिलकुल ऐसा नहीं है. मुकुल रॉय को बीजेपी में लाने से पहले खासी माथापच्ची हुई है - और फिलहाल ये बीजेपी के लिए बड़ा सौदा है.

दरअसल, बीजेपी को पश्चिम बंगाल में अपनी जड़ें जमानी हैं. विधानसभा चुनाव से लेकर निकाय चुनाव में बीजेपी सारे हथकंडे अपना चुकी है लेकिन नाकामी ही हाथ आयी. यहां तक कि मुस्लिम कैंडिडेट भी मैदान में उतारे लेकिन वही ढाक के तीन पात.

बीजेपी नेता मान कर चल रहे हैं कि मुकुल रॉय का काम इसी मर्ज की नब्ज पहचाननी होगी. डायग्नोसिस से लेकर इलाज तक कहां चूक हो रही है मुकुल रॉय मार्गदर्शन करेंगे.

ममता को मुकुल के जाने से कितना नुकसान

मुकुल रॉय पश्चिम बंगाल में ममता की जीत के आर्किटेक्ट माने जाते रहे हैं. ममता भी उन पर आंख मूंद कर भरोसा करती रहीं. वैसे ब्लाइंड फेथ की भी एक उम्र होती है. कभी न कभी आंख खुल ही जाती है, भले ही किसी एक ही कि क्यों न खुले.

हिमंता बिस्वा सरमा के चले जाने से तरुण गोगोई की सत्ता चली गयी. स्वामी प्रसाद मौर्य के रूठ जाने से मायावती सत्ता से मरहूम रह गयीं. विजय बहुगुणा ने तो ऐसा खेल खेला कि सत्ताधारी पार्टी का नाम भर बदला मंत्रियों के के नेमप्लेट बदलने तक की जरूरत नहीं रही होगी. सभी राज्यों में परिस्थितियां बिलकुल अलग रहीं. तरुण गोगोई अपना प्रभाव खो चुके थे, मायावती का प्रभाव न के बराबर हो गया था और विजय बहुगुणा निमित्त मात्र बने रहे.

क्या मुकुल रॉय भी ऐसा ही गुल खिला पाएंगे? क्या मुकुल रॉय के कंधे पर बंदूक रख कर बीजेपी ममता बनर्जी को नुकसान पहुंचा पाएगी?

ममता बनर्जी की स्थिति फिलहाल न तो तरुण गोगोई जैसी है और न ही मायावती की तरह और न ही तृणमूल कांग्रेस उत्तराखंड में कांग्रेस की हालत में है. ममता बनर्जी दोबारा चुनाव जीत कर लौटी हैं. वो भी तब जब चुनाव के ऐन पहले नारदा स्टिंग का मामला उछाला गया. स्टिंग में क्या रहा और हकीकत क्या है - ये सब जांच का मामला है और नतीजे आने के बाद ही तस्वीर साफ हो पाएगी.

सच तो ये है कि ममता अपने वोटर को अच्छी तरह समझाने में कामयाब रहीं कि ये सब उनके खिलाफ राजनीतिक साजिश है. स्टिंग में जिन लोगों पर सवाल उठे, ममता ने टिकट देकर न सिर्फ उन्हें जिताया बल्कि मंत्री भी बनाया. ये सब सिर्फ और सिर्फ ममता की लोकप्रियता के बूते मुमकिन हो पाया. मुकुल रॉय लंबे समय तक ममता के साथ रहे हैं, जाहिर है उनकी कमजोरी और उनके मजबूत पक्ष से वाकिफ होंगे - लेकिन मुकुल को भी मालूम होना चाहिये कि वो भी मुकुल रॉय तभी बन पाये जब ममता का हाथ उनके सिर पर मजबूती से बना रहा. ममता के बनने में कई मुकुल रॉय होंगे लेकिन मुकुल के लिए तो एक ही ममता रहीं.

ममता के साये में मुकुल मां, माटी और मानुष की राजनीति करते रहे, लेकिन क्या अब वो बीजेपी को भी उनसे जोड़ पाएंगे? कहना मुश्किल है.

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