संसद का बजट सत्र हंगामें में धुल गया, लेकिन जिम्मेदार कोई नहीं !
इस पूरे बजट सत्र में लोकसभा में मात्र 23 प्रतिशत और राज्य सभा में 28 प्रतिशत काम हुआ. मज़ेदार बात ये कि इसके लिए दोनों ही, सत्ता और विपक्ष, एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं, लेकिन नुकसान जनता का हो रहा है.
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संसदीय लोकतंत्र में संसद को सुचारु रूप से चलाने का ज़िम्मा सरकार और विपक्ष दोनों के ऊपर होता है. लेकिन इस बार बजट सत्र जो कि पहला चरण 29 जनवरी से 9 फरवरी तक और दूसरा चरण 5 मार्च से 6 अप्रैल तक चला दोनों ही चरण हंगामे की भेंट चढ़ गए. इस पूरे बजट सत्र में लोकसभा में मात्र 23 प्रतिशत और राज्य सभा में 28 प्रतिशत काम हुआ. सबसे ज़्यादा खराब स्थिति दूसरे चरण में रहा जहां लोकसभा में 127 घंटे 45 मिनट तथा राज्यसभा में 124 घंटे का समय बर्बाद हुआ. लोकसभा में 4 प्रतिशत और राज्यसभा में 8 प्रतिशत काम ही हो सका. लोकसभा में करीब 28 विधेयक पेश किए जाने थे जिसमे सिर्फ 5 विधेयक ही पारित किए जा सके. वहीं राज्यसभा के एजेंडे में 39 विधेयक शामिल थे, जिसमे सिर्फ एक ग्रेच्युटी भुगतान संशोधन विधेयक 2017 ही पारित हो सका. यहां तक कि दोनों सदनों में किसी भी मुद्दे या फिर विधेयक पर चर्चा भी नहीं हो पाई. बजट सत्र के दूसरे चरण में आंध्र प्रदेश के विशेष दर्जे की मांग, कावेरी जल प्रबंधन बोर्ड का गठन, एससी/एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला, मूर्तियां तोड़ना, बैंक घोटाले, इत्यादि विषयों को लेकर संसद हंगामें के भेट चढ़ गया.
लेकिन इन सबके बीच मज़ेदार बात ये कि इसके लिए दोनों ही, सत्ता और विपक्ष, एक दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं. जहां एक तरफ कांग्रेस पार्टी कार्यकर्ताओं से भाजपा को बेनकाब करने के लिए 9 अप्रैल को एक दिन का उपवास करने को कहा है, वहीं इसके विरोध में भाजपा सांसद 12 अप्रैल को देशभर में अनशन करने का ऐलान किया है. लेकिन इन सबके बीच सबसे बड़ा सवाल ये कि अगर दोनों पक्ष एक दूसरे के खिलाफ संसद छोड़कर सड़क पर हैं तो संसद की कार्यवाही नहीं चलने देने के लिए जिम्मेदार कौन है? आखिर क्यों संसद जनता के हित से जुड़े विषयों के विचार-विमर्श का केंद्र से शोर-शराबे का मंच बन गया है? क्यों ये सांसद जनता के पसीने की कमाई को अपने निजी हितों के लिए बर्बाद कर रहे हैं? आखिर क्यों सत्ता या विपक्ष देश या जनता के हितों से जुड़े विषयों पर चर्चा करने से कतराते हैं? क्या भारत में संसद की आवश्यकता खत्म हो चुकी है?
एक रिपोर्ट के अनुसार इस बजट सत्र में जनता की कमाई का करीब 190 करोड़ रुपए खर्च हुए. इसमें सांसदों के वेतन-भत्तों तथा अन्य सुविधाओं और कार्यवाही से संबंधित इंतजाम पर खर्च शामिल हैं. अब ज़रा सोचिए, जहां जनता के टैक्स के करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं वहां हमारे माननीय सांसद देश और जनता के हित से जुड़े विषयों पर चर्चा करना भी मुनासिब नहीं समझते. खैर, पैसा तो जनता का है, इन्हें फिक्र भी क्यों हो? और तो और जब इन महाशयों के फायदों से जुड़ा कोई मामला हो तो सारे पक्ष और विपक्ष एक होकर इसे पास करवा लेते हैं. मसलन सांसदों ने अपने वेतन भत्ता बढ़ाने के प्रावधान को वित्त विधेयक का हिस्सा बना लिया था, जिसे बिना कोई बहस कराए चुपचाप पास करा लिया था, जिससे इन सांसदों का मूल वेतन 1 अप्रैल, 2018 से बढ़कर दोगुना यानी 1 लाख रुपए हो गया है.
सरकार के लिए संसद ना चलना फायदेमंद ही साबित हुआ. सरकार हर रोज़ उजागर हो रहे बैंक घोटालों, कांग्रेस द्वारा लड़ाकू रॉफेल विमानों के सौदे में धांधली, देश के विभिन्न भागों में हो रहे जातीय और सांप्रदायिक तनाव, आदि सवालों पर विपक्ष के सवालों का सामना करना पड़ता, जो कि उसके लिए आसान नहीं होता. हालांकि, एनडीए ने ऐलान किया है कि इनके सांसद 23 दिनों का वेतन और भत्ता नहीं लेंगे. लेकिन क्या इन पैसों से संसद में प्रमुख मुद्दों पर चर्चा नहीं होने की भरपाई की जा सकती है? तीन तलाक बिल जिसे राज्यसभा से पास होना था, वह भी ठंडे बस्ते में चला गया. लोकसभा में ‘कंज्यूमर प्रोटेक्शन बिल', ‘नेशनल मेडिकल कमीशन बिल’, ‘इंटर स्टेट रिवर वाटर डिस्प्यूट बिल’ धरे के धरे रह गए तो राज्यसभा में आखिर समय तक कोशिश के बावजूद सरकार ‘प्रिवेंशन ऑफ करप्शन बिल’ भी पास नहीं करा सकी. बेहतर तो यही होता कि सत्ता और विपक्षी पार्टियां एकजुट होकर संसद की कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाने का कोई रास्ता निकालते जो देश और जनता के हित में होता.
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