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Updated: 01 जुलाई, 2022 04:56 PM
सुशोभित सक्तावत
सुशोभित सक्तावत
  @sushobhit.saktawat
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सर्वोच्च अदालत का कहना है कि पैगम्बर पर टिप्पणी वाले मामले में देश-दुनिया में जो कुछ हो रहा है, उसके लिए निलंबित भाजपा नेत्री नूपुर शर्मा "सिंगल हैंडेड-ली" ज़िम्मेदार हैं. यह सुनकर मुझे लगा जैसे मैं सुन्न हो गया हूं, जैसे मेरा दम घुट रहा है, जैसे अब मुझे- या हम सबको- ज़ोर से चीख़ पड़ना चाहिए.

दूसरे शब्दों में, सर्वोच्च अदालत का यह कहना है कि हिन्दुस्तान में बोलने की आज़ादी नहीं है, बहस की संस्कृति नहीं है, यहां पर धार्मिक किताबों से उद्धरण देकर जिरह की चुनौती नहीं दी जा सकती, यहां पर ईशनिंदा क़ानून लागू है, और वास्तव में भारत धर्मनिरपेक्षता की आड़ में एक इस्लामिक मुल्क है, जो इस्लामिक तौर-तरीक़ों से चलेगा.

यानी सन् सैंतालीस में बंटवारे के बाद दो इस्लामिक मुल्क बने थे, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान. क्योंकि, भारत की सदियों लंबी सभ्यता-यात्रा का यही निष्कर्ष था कि यहां पर मज़हबी टिप्पणियों के बाद लोगों की गर्दनें काटी जाएं और इसके लिए गर्दन काटने वालों को नहीं टिप्पणी करने वालों को ज़िम्मेदार ठहराया जाए.

मुझे याद आता है पैगंबर का चित्र बनाने के बाद फ्रांस में जब एक शिक्षक की हत्या कर दी गई थी. तो, वहां के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने राजकीय सम्मान से उस शिक्षक का अंतिम संस्कार करवाया था. और, स्पष्ट रूप से यह वक्तव्य दिया था कि हमारे देश में बर्बरतापूर्ण तौर-तरीक़े नहीं चलेंगे, हम आधुनिक, मुखर, स्वतंत्र राष्ट्र हैं.

India is a Islamic Country in under the guise of Secularismक्या हिन्दुस्तान में ईशनिंदा क़ानून लागू है कि किसी ईश्वर, अवतार, पैग़म्बर पर टिप्पणी करने की क़ानून इजाज़त नहीं देता?

और, एक भारत है, जहां एक निर्धन दर्ज़ी की निर्मम हत्या उस बात के लिए की जाती है, जो उसने कही तक नहीं थी. और, अदालत उसके हत्यारों के बचाव में दलीलें देती हैं कि गुनाह बोलने वाले का था, क़त्ल करने वाले का नहीं.दूसरे शब्दों में, सर्वोच्च अदालत ने यह संकेत दे दिया है कि जो जितना शोर करेगा और तोड़फोड़ मचाएगा, जो जितना आहत होगा या आहत होने का ढोंग करेगा, जो जितना ख़ून बहाएगा और गले काटेगा, उसकी उतनी ही सुनी जाएगी. यानी अगर कोई चित्रकार वैसे चित्र बनाता है, जिन्हें आपत्तिजनक समझा जाता है और उसकी चित्रशाला में तोड़फोड़ कर दी जाती है या उसकी हत्या ही हो जाती है तो यह उस चित्रकार की ग़लती मानी जाएगी, तोड़फोड़ या हत्या करने वालों की नहीं? और यही तर्क किताब लिखने वालों, फ़िल्म बनाने वालों, थिएटर करने वालों पर भी समान रूप से लागू होगा?

अदालत ने यह विवेचना नहीं की कि क्या कहा गया था, किस परिप्रेक्ष्य में कहा गया था, क्या वह तथ्यपूर्ण था या मनगढ़ंत था और अगर वह मनगढ़ंत भी था तो क्या यह किसी का निजी ओपिनियन नहीं हो सकता, क्या भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी बाधित है, और अगर है तो किस सीमा से यह बाधा शुरू होती है और किस सीमा पर ख़त्म होती है? अदालत ने इतना अवश्य माना है कि नूपुर शर्मा को उकसाया गया था, लेकिन उसने यह टिप्पणी की है कि नूपुर ने जिस लहज़े में वह बात कही, वह शर्मनाक था और उन्हें सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगनी चाहिए.

तो, अब लहज़े पर हिन्दुस्तान में क़त्ल किए जाएंगे? और, कौन-सा लहज़ा सही है और कौन-सा ग़लत, इसके मानदंड क्या होंगे? अक्सर हम ख़बरों में पढ़ते हैं कि उकसाने पर या अपशब्द कहने पर किसी की हत्या कर दी गई. वैसे में दोषी मृतक को ठहराकर हत्यारे को दोषमुक्त किया जाएगा? या यह प्रावधान केवल धार्मिक उकसावों के लिए है, और उसमें भी केवल इस्लामिक उकसावों के लिए? अदालत को यह स्पष्ट करना चाहिए कि अब से हिन्दुस्तान में उकसावों पर हत्याएं जायज़ मानी जाएंगी या नहीं, या यह केवल साम्प्रदायिक उकसावों पर होगा? क्योंकि, अगर यह नज़ीर क़ायम हो गई तो फिर देश में अराजकता मचने से कोई रोक न सकेगा. आहत भावनाओं ने यदि एक बार जान लिया कि उनकी ताक़त क्या है, तब तो बड़े पेशेवर और योजनाबद्ध तरीक़े से भावनाएं आहत होती ही रहेंगी.

बड़ा प्रश्न : क्या हिन्दुस्तान में ईशनिंदा क़ानून लागू है कि किसी ईश्वर, अवतार, पैग़म्बर पर टिप्पणी करने की क़ानून इजाज़त नहीं देता? क्योंकि मैं तो नियमित ही वैसी टिप्पणियां देखता हूँ और कहीं आग नहीं लगती. या शायद पर्याप्त आग नहीं लगती? आग लगाने वालों को थोड़ी और उत्प्रेरणा की आवश्यकता है ताकि सर्वोच्च अदालत उनको सुने?

और, क्या हिन्दुस्तान में ईशनिंदा पर सड़कों पर दंड देने की रीति लागू हो चुकी है, क्योंकि अदालत ने स्पष्ट शब्दों में कहा है- नूपुर शर्मा "सिंगल हैंडेड-ली" ज़िम्मेदार हैं. यानी इसमें कोई और दोषी नहीं है. हत्यारे तो हरगिज़ नहीं. और तीसरे, अदालत ने कहा है कि नूपुर का लहज़ा ग़लत था, लेकिन इस पर टिप्पणी नहीं की कि क्या उन्होंने तथ्यहीन और आधारहीन बात कही थी. यानी क्या उनके द्वारा कही गई बात के मूल और प्रामाणिक स्रोतों और उनकी तथ्यात्मकता पर चर्चा करने की ज़रूरत होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए? और अगर यह पाया जाता है कि बात तो तथ्यात्मक थी किन्तु कहने का तरीक़ा ग़लत था तो इस मानदंड को सामने रखकर क्या दूसरे मामलों में भी निर्णय दिए जाएंगे? क्योंकि, हज़ार बातें हज़ार तरीक़ों से कही जाती हैं, उनमें से अनेक का लहज़ा कटाक्षपूर्ण या द्वेषभरा होता है या माना जा सकता है, जिसके बाद भीड़ को स्वयं हिंसक तरीक़ों से न्याय करने की छूट माननीय अदालत ने आज पहली जुलाई साल दो हज़ार बाईस के दिन देशवासियों को दे दी है.

या शायद, यह छूट सिर्फ़ एक मज़हब को ही दी गई है? क्योंकि उसके पास 56 मुल्क हैं, तेल है, बाहुबल है जो बुद्धिबल से बड़ा होता है, क्योंकि उसके पास सोशल मीडिया को प्रभावित करने की क्षमता है और उसके पक्ष में इंफ्लूएंसर्स और भू-राजनीतिक समीकरण हैं, क्योंकि मनुष्य-सभ्यता संख्याबल की बंधक हो चुकी है और जिसकी कोई संख्या नहीं उसकी कोई आवाज़ नहीं मानी जा सकती, और क्योंकि जिसकी लाठी जितना शोर करेगी, वही बहस में जीतेगा?

सर्वोच्च अदालत का कहना है कि नूपुर शर्मा की सुरक्षा की चिंता करना तो दूर, उलटे वे हमारी सुरक्षा के लिए चुनौती बन गई हैं. ऐसा कायरतापूर्ण बयान मैंने पहले कभी नहीं सुना. सच यह है कि अगर उदयपुर के बाद भी उलटे नूपुर को सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगने पर मजबूर किया गया, तो हम सबको अपने चेहरों पर कालिख पोत लेनी चाहिए.

लेखक

सुशोभित सक्तावत सुशोभित सक्तावत @sushobhit.saktawat

लेखक इंदौर में पत्रकार एवं अनुवादक हैं.

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