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Updated: 26 अगस्त, 2022 08:42 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की नयी महागठबंधन सरकार ने बिहार विधानसभा में विश्वास मत हासिल कर लिया है. बीजेपी का सवाल था कि जब ध्वनिमत से विश्वास प्रस्ताव पास हो गया तो वोटिंग की जरूरत ही क्या है? लेकिन बहुमत होने के बावजूद सत्ता पक्ष ने वोटिंग की मांग की थी. ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आये, निश्चित तौर पर नीतीश कुमार ने ऐसा ही कुछ सोच कर ही ये फैसला लिया होगा.

सत्ता पक्ष की मांग पर वोटिंग हुई और विपक्ष में बैठी बीजेपी (BJP) ने बहिष्कार किया. फ्लोर टेस्ट से पहले स्पीकर विजय सिन्हा ने इस्तीफा दे दिया था. पहले वो इस्तीफा न देने पर अड़े हुए थे. बाद में सफाई दी कि वो पहले ही, सरकार गठन के बाद इस्तीफा देना चाहते थे, लेकिन विधायकों के अनर्गल आरोप लगाने के कारण जवाब देने के लिए रुके हुए थे.

जब बिहार (Bihar Politics) में सरकार के विश्वास मत की तैयारी चल रही थी, तभी सीबीआई ने ताबड़तोड़ छापेमारी शुरू कर दी. बिहार में सीबीआई ने आरजेडी नेताओं के 25 ठिकानों सहित देश भर में कुल 42 जगहों पर रेड डाले. डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव की पार्टी आरजेडी के 2 राज्य सभा सांसदों के अलावा लालू यादव के करीबी भोला यादव सहित कुछ पूर्व विधायकों के यहां सीबीआई ने छापा मार कर गहन छानबीन की है. गुरुग्राम के एक मॉल पर हुई छापेमारी के दौरान खबर आयी कि वो तेजस्वी यादव का है. तेजस्वी यादव ने विधानसभा में ही तेजस्वी यादव ने मॉल का मालिकाना हक होने से इनकार कर दिया - और ये बताने की कोशिश की कि वो बीजेपी से जुड़े किसी का है क्योंकि बीजेपी के ही एक नेता ने उसका उद्घाटन किया था.

केंद्र की सत्ता में होने की वजह से छापों को लेकर बीजेपी फौरन ही नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के निशाने पर आ गयी - और तेजस्वी यादव ने सीबीआई के साथ साथ ईडी और आईटी को एक साथ 'जमाई' करार दिया.

सवाल ये है कि ऐसे में जबकि महाराष्ट्र के बाद झारखंड में भी वैसी ही साजिश रचने का आरोप लगा कर विपक्ष बीजेपी को टारगेट कर रहा है, दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल आम आदमी पार्टी के 40 विधायकों के खरीद-फरोख्त का इल्जाम लगा रहे हैं - बीजेपी ऐसे खास संयोगों के दौरान प्रयोग से बचने की कोशिश क्यों नहीं करती? केंद्र की सत्ता में होने के कारण जांच एजेंसियों की लगातार एकतरफा कार्रवाई होने पर बीजेपी से जोड़ कर सवाल तो उठेंगे ही.

बीजेपी को मालूम है और बार बार देखा है कि बिहार में वो तभी सफल हो पाती है जब नीतीश कुमार उसके साथ होते हैं, लेकिन नीतीश कुमार के हटते ही पार्टी औंधे मुंह लुढ़क जाती है. बीजेपी जांच एजेंसियों की छापेमारी में अपनी भूमिका से चाहे जितना भी इनकार करे, लेकिन होता तो यही है कि हर बार बदनामी ही हाथ लगती है - आखिर बीजेपी नेतृत्व बिहार में नीतीश कुमार की मदद के बिना आगे बढ़ने का कोई पुख्ता इंतजाम अब तक क्यों नहीं कर सका है?

बिहार में बीजेपी की मुश्किल बहुत बड़ी है

बीजेपी आखिर क्यों भूल रही है कि वो एक बार फिर नीतीश कुमार और लालू यादव की जोड़ी से सीधे सीधे टकरा रही है - और टकराव का ये रास्ता बीजेपी वैसी हालत में अख्तियार कर रही है जब उसके पास क्षेत्रीय स्तर पर कोई नेता नहीं है जो बिहार की सबसे मजबूत जोड़ी को टक्कर दे सके. अगर यूपी की तरह बिहार में भी योगी आदित्यनाथ जैसा कोई नेता होता तो कहानी निश्चित रूप से अलग हो सकती थी.

Nitish Kumar, narendra modi, amit shahअगर बीजेपी अब तक बिहार में अकेले दम पर अपनी स्थिति मजबूत नहीं कर पायी, तो नीतीश कमार भी अपने बूते खड़े हो पाने की स्थिति में कभी नहीं हो पाये - लेकिन एक चीज तो है ही कि हर हाल में एक बार वो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे तो फिर कोई उतार नहीं सका है!

बेशक लालू यादव बीमार हैं और पहले की तरह एक्टिव नहीं हैं, लेकिन ये तो है कि वो फिलहाल जेल से बाहर हैं और हर तरह की सलाह के लिए हर वक्त उपलब्ध हैं. ये भी दलील हो सकती है कि अब लालू यादव की राजनीति में पहले जैसा करिश्मा नहीं रहा क्योंकि जिन दो विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के लिए आरजेडी नेता ने रैली की थी, आरजेडी को हार का मुंह देखना पड़ा था.

पहले की तरह लालू यादव के लिए भले ही काम करना मुश्किल हो, लेकिन जेल से बाहर होने का उनके समर्थकों पर भी असर तो पड़ेगा ही. ज्यादा चीजें न सही, लेकिन लेकिन घर पर होते हुए लालू यादव बच्चों को गलती करने से तो रोक ही लेंगे. लालू यादव की गैरहाजिरी में तेज प्रताप यादव जिस तरह बेकाबू हो जाते हैं, थोड़ा बहुत असर तो पड़ता ही है. रूटीन की चीजें प्रभावित तो होती ही हैं, लालू यादव ऐसी चीजों को कंट्रोल तक करते ही हैं.

बिहार में बीजेपी की स्थिति अब तक कुछ खास नहीं बदली है - जैसे नीतीश कुमार जब से मुख्यमंत्री बने, तभी से कुर्सी पर बने हुए हैं - बीजेपी भी जहां की तहां बनी हुई है, अगर थोड़े बहुत अंतर को छोड़ दें तो.

1. बीजेपी को भी बिहार में खड़े होने का पहली बार तभी मौका मिला जब लालू-राबड़ी राज के बाद नीतीश कुमार ने सत्ता की कमान संभाल ली.

2. 2013 में जब नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ छोड़ कर लालू यादव से हाथ मिला लिया, तो सत्ता से बाहर होकर बीजेपी फिर से वैसी ही स्थिति में पहुंच गयी.

3. ये जानना भी दिलचस्प होगा कि नीतीश कुमार को बीजेपी कमजोर भी तभी कर पायी जब वो एनडीए में पार्टी के साथ रहे. वरना, बीजेपी के लिए नीतीश कुमार का बाल भी बांका करना मुश्किल होता है.

4. और अब देखिये, एक बार फिर नीतीश कुमार ने बीजेपी को डंप कर दिया है - और ऐसा लगता है जैसे जांच एजेंसियों के भरोसे बीजेपी नेता बिहार में सिर्फ लकीर पीट रहे हैं.

बदनामी भी बीजेपी खुद ही मोल लेती है. भला विश्वास मत से पहले सीबीआई छापों से क्या हासिल होता है? बदनामी के सिवा?

बीजेपी और केंद्र सरकार की तरफ से कहा जाता है कि जांच एजेंसियां अपने हिसाब से काम करती हैं - लेकिन ये समझ में नहीं आता कि ये एजेंसियां अपने हिसाब से ऐसा काम क्यों करती हैं कि सत्ताधारी पार्टी की ही बदनामी होने लगे.

तेजस्वी यादव ने तो केंद्रीय एजेंसियों को बीजेपी का 'जमाई' करार दिया है. क्या बीजेपी सरकार में वास्तव में तोता पिंजरे से बाहर निकल गया है? और मालिक को टारगेट कर रहा है?

ये तो ऐसा लगता है जैसे जांच एजेंसियां दुधारी तलवार की तरह व्यवहार करने लगी हैं. विपक्ष कह रहा है कि बीजेपी जांच एजेंसियों की राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है - और राजनीतिक विरोधियों के यहां होने वाली छापेमारी बदले की कार्रवाई करार दी जाती है. नतीजे में तो बीजेपी के हाथ बदनामी ही लगती है.

बिहार में छापेमारी भी ऐसे दौर में हुई है, जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके साथी बीजेपी पर आम आदमी पार्टी के विधायकों को धमकाने का इल्जाम लगा रहे हैं. AAP का आरोप है कि विधायकों को सिसोदिया जैसा हाल करने की धमकी दी जा रही है.

बीजेपी पर ऐसी ही तोहमत पश्चिम बंगाल से लेकर महाराष्ट्र तक लगती रही है. महाराष्ट्र में तो बीजेपी लंबे संघर्ष के बाद सफल भी हो गयी है, लेकिन बंगाल जैसे राज्यों में बुरी तरह फेल होती है.

ये छापे बीजेपी को बदनाम कर रहे हैं

आपने देखा होगा, चुनावों में लगातार लालू-राबड़ी के शासन को जंगलराज के रूप में याद दिलाने वाले नीतीश कुमार तब बड़े खुश नजर आ रहे थे, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेजस्वी यादव को 'जंगलराज का युवराज' कह कर संबोधित किया था. और तब भी काफी खुश दिखे, जब सीनियर बीजेपी नेता अमित शाह ने पहले के बिहार को लालटेन युग बताया था और बीजेपी के साथ गठबंधन सरकार बनने के बाद घर घर बिजली पहुंचाने का नीतीश कुमार को कई बार क्रेडिट दिया था.

ये नीतीश कुमार ही रहे जिन्होंने तेजस्वी यादव के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में एफआईआर दर्ज होने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर महागठबंधन भी छोड़ दिया था, लेकिन अब वही नीतीश कुमार बीजेपी से पलट कर सवाल पूछ रहे हैं - और बीजेपी को कठघरे में खड़ा करते हुए तेजस्वी यादव को क्लीन चिट भी दे दे रहे हैं.

अगर बिहार में लालू परिवार के विरोधी वोटर नीतीश कुमार के जंगलराज के आरोपों को चुनावों में सही मान लेते हैं तो तेजस्वी यादव को उनके मुंह से मिलने वाले क्लीन चिट को भी तो उनके समर्थक सर्टिफिकेट की तरह ही लेंगे - और अगले चुनाव तक बाकी लोग सोच विचार करते रहेंगे.

नीतीश कुमार अब तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी के नेताओं के यहां हो रही छापेमारी पर नाराजगी जाहिर कर रहे हैं. कहते हैं, छापे वालों को जनता माफ नहीं करेगी.

देखा जाये तो बिहार के लोगों के बीच नीतीश कुमार अपने नये तेवर में ये सवाल तो उठा ही देते हैं कि छापेमारी उसी वक्त क्यों होती है जब बीजेपी की विरोधी सरकार को विधानसभा में विश्वास मत हासिल करना होता है.

ऐसा लगता है सीबीआई की छापेमारी से सबको अलग अलग और खास मैसेज देने की कोशिश होती है. पहला मैसेज तो उनके लिए होता है जिनके यहां छापेमारी होती है. ताकि वे डरें और समझ लें कि राजनीति के जिस छोर पर वे खड़े हैं, वो जगह बिलकुल सुरक्षित नहीं है.

एक कोशिश लोगों को भी मैसेज देने की लगती है - जिनके यहां छापे पड़ रहे हैं वे भ्रष्ट और चोर हैं और मोदी सरकार ऐसे लोगों के लिए सही जगह जेल भेजने की कोशिश कर रही है. सीबीआई फिलहाल नौकरी के बदले जमीन हड़प लेने वाले घोटाले की जांच कर रही है, वो तभी का मामला है जब लालू यादव कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार में रेल मंत्री रहे. लालू यादव के करीबी भोला यादव को सीबीआई ने इसी केस में कुछ दिन पहले गिरफ्तार किया था.

तेजस्वी यादव की तरफ इशारा करते हुए लालू यादव की आरजेडी को लेकर नीतीश कुमार अब कह रहे हैं, 'मैं 2017 में उनसे अलग हो गया था... आपने इतने सारे आरोप लगाये, लेकिन पांच साल में उनके खिलाफ कुछ नहीं मिला.'

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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