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Updated: 21 अगस्त, 2022 08:16 PM
बिभांशु सिंह
बिभांशु सिंह
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बात वर्ष साल 2010 की है. बिहार का कई हिस्सा भीषण बाढ़ की चपेट में था. खासकर कोसी का इलाका भारी विपदा में था. देश में जहां से जिसे जो संभव हो रहा था, मदद कर रहा था. आर्थिक और राहत सामग्री के तौर पर सहायता भी प्रदान कर रहा था. इस बीच गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मेादी ने भी बिहार में बाढ़ राहत के लिए पांच करोड़ की धनराशि दी थी.

ये भी कहा जाता है कि उन्होंने राहत सामग्री भेज भी दी थी. लेकिन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सीधे इसे कबूल करने से मना कर दिया और गुजरात सरकार को वापस कर दिया. ठीक इसी दौर में भाजपा का यूपीए सरकार के खिलाफ जबरदस्त कैंपेन चल रहा था और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यक्रम भी बिहार में था. इसके एवज में एनडीए के तौर पर नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की एक तस्वीर पोस्टर के रुप में पटना की सड़कों पर प्रदर्शित होने लगी. इन पोस्टरों को लेकर नीतीश कुमार काफी तिलमिला गए.

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दरअसल, बाढ़ राहत की राशि वापस करना और नरेंद्र मोदी के साथ अपनी तस्वीर देखकर भड़कना नीतीश कुमार का स्वभाविक राजनीतिक लक्षण था. दरअसल, 2002 में गुजरात के गोधरा कांड के बाद नरेंद्र मोदी की छवि अल्पसंख्यक के धूर विरोधी के तौर पर बन गयी थी. नीतीश कुमार यह नहीं चाहते थे कि नरेंद्र मोदी न तो बिहार आये और न ही पीएम उम्मीदवार घोषित हो.

बहरहाल, बाद में नीतीश कुमार एनडीए से तो दूर हुए ही नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुखर भी हो गये. साल 2017 में नीतीश कुमार जब पुनः एनडीए गठबंघन का हिस्सा हुए तो उन्होंने पीएम की तारीफ भी शुरु कर दी. इससे पहले उन्होंने नोटबंदी को भी सार्वजनिक तौर पर अपनी सहमति भी दी थी. लेकिन, एक बार फिर एनडीए से नीतीश कुमार का गठबंधन टूट गया है और वह अब सीधे तौर पर पीएम नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुखर होने की स्वभाविक अधिकारिक रियाज कर रहे हैं.

दरअसल, नीतीश कुमार को अब क्षेत्रीय राजनीति के उपर राष्ट्रीय स्तर की राजनीति करनी है. इसी को लेकर महागठबंधन सरकार का ताना-बाना बुना गया और राजद से भी अपनी यारी साझेदारी करनी पड़ी. ऐसे में बिना सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ हमलावर हुए बिना उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर नेता के तौर पर प्रोजेक्ट होने में कामयाबी नहीं मिल पायेगी.

नरेंद्र मोदी के आने से एनडीए में असहज हुए नीतीश नीतीश कुमार समाजवादी आंदोलन से निकले हुए नेता हैं. अलबत्ता कांग्रेस का विरोध तो उनके स्वभाव में दिखता ही रहा है. जब उनकी सरकार जदयू सत्ता में आयी तो इमरजेंसी में जेल गये नेताओं को जेपी सेनानी का दर्जा देते हुए पेंशन का लाभ दे दिया. खैर, नीतीश कुमार एनडीए गठबंधन में केन्द्रीय मंत्री भी रह चुके हैं. भाजपा में उस दौरान अटल-आडवाणी का दौर था. भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व में उस समय जो नेता थे, उनसे जदयू व नीतीश काफी सहज थे.

नरेंद्र मोदी का दायरा तब गुजरात से आगे नहीं था. लेकिन, जैसे ही 2014 लोकसभा चुनाव का समय नजदीक आया कि ठीक दो-तीन वर्ष पूर्व ही एका एक नरेंद्र मोदी का नाम गुजरात से निकलकर देशभर में गूंजने लगा. हिन्दूवादी छवि और अपने भाषणों के जरिये वह न केवल प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का विकल्प बनते गये बल्कि भाजपा की मजबूरी बन गई.

उन्हें प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर अधिकारिक घोषणा करने की और इसी बात से नीतीश की तल्खी केवल नरेंद्र मोदी के नाम पर एनडीए से बढ़ गयी. लेकिन, एक बार फिर एनडीए से जदयू अलग हुई तो अब राजनीतिक का परिदृश्य पहले के मुकाबले बदल गया. अब नीतीश कुमार के पास भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सीधे विरोध करने के अलावा कोई चारा नहीं है. बगैर इसके वह राष्ट्रीय राजनीति की पटल पर उभर नहीं सकते हैं. लिहाजा, अब उनका यही मुहिम शुरु होने वाला है.

लेखक

बिभांशु सिंह बिभांशु सिंह @2275062259310470

घुमंतू स्वभाव का हूं। राजनीति, नयी व रोचक बातें खिलने की आदत है। खबर लेखन से जुड़ा हुआ हूं।

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