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Updated: 11 दिसम्बर, 2018 06:28 PM
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मौजूदा विधानसभा चुनावों को भी आम चुनाव से अलग किया जा सकता था, अगर केंद्र के साथ साथ तीनों राज्यों में बीजेपी की सरकारें नहीं होतीं - मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान. वैसे सत्ता विरोधी लहर के दो रंग मिजोरम और तेलंगाना में नजर आये हैं जहां बीजेपी की सरकारें नहीं थीं.

यूपी से लेकर त्रिपुरा तक भगवा लहराने और गुजरात बचाने के साथ साथ कर्नाटक को भी काफी हद तक कांग्रेस मुक्त बना चुके प्रधानमंत्री मोदी 2018 के आखिरी चुनाव आते आते चूक गये लगते हैं.

राजस्थान में वसुंधरा के खिलाफ बन चुके माहौल के बावजूद मोदी ने बीजेपी की इज्जत बचाने की काफी कोशिश की है, लेकिन मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो मोदी का करिश्मा शिवराज सिंह और रमन सिंह पर कहर बन कर टूट पड़ा है.

क्या मोदी फैक्टर हानिकारक रहा?

राजस्थान को लेकर माना जा रहा था कि मोदी आये तो देर से लेकिन दुरूस्त नहीं आये. मोदी की रैलियों पर कांग्रेस खेमे से भी रिएक्शन आया किया मोदी हार को सम्मानजनक बनाने पहुंचे हैं. चुनावी नतीजों से ऐसा लगता भी है. राजस्थान से पहले मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी प्रधानमंत्री मोदी ने खूब मेहनत की, लेकिन नतीजों ने सवाल खड़े कर दिये हैं - खासतौर पर 2019 को लेकर -

1. किसानों का गुस्सा: ये केंद्र की मोदी सरकार की किसानों को लेकर नीतियां ही रहीं कि चावल वाले बाबा की भी कुर्सी लेकर ही दम लिया. मध्य प्रदेश के मंदसौर से निकली किसानों की नाराजगी राजनीतिक तौर पर बीजेपी के लिए सबसे बड़े घाटे का सौदा साबित हुई है.

narendra modiलोकतंत्र में कभी कभी ऐसा भी होना चाहिये कि नहीं?

मोदी सरकार ने भले कि किसानों के लिए मंत्रालय का नाम बदल दिया हो. किसानों की आमदनी डबल करने का वादा कर रखा हो - लेकिन वो बिचौलियों का नेटवर्क नहीं खत्म कर पायी - फसलों के MSP को लेकर किसानों की नाराजगी दूर नहीं हो पायी.

2. युवाओं का गुस्सा: चुनावों के दरम्यान नौकरी और बेरोजगारी को लेकर युवाओं की निराशा की सबसे बड़ी और बुरी खबर तो राजस्थान से ही आयी - जब चार युवाओं ने खुदकुशी जैसा आखिरी कदम उठाने का फैसला किया. जो बीजेपी 2019 में 21वीं सदी के उन युवाओं से आशावान है जो पहली बार वोट देंगे, उसे इन चुनाव नतीजों से हद से ज्यादा निराशा हो सकती है.

चुनाव प्रचार में राहुल गांधी ने लगातार युवाओं के लिए नौकरी और रोजगार का मुद्दा उठाया. यूपीए सरकार में नौजवानों को रोजगार देने में नाकाम रहने को लेकर तो वो पिछले ही चुनावों में माफी भी मांग चुके थे - मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ की चुनावी सभाओं में वो मोदी सरकार पर लगातार इस बात के लिए हमलावर रहे.

प्रधानमंत्री मोदी ने परिवार की पार्टी और 70 के हिसाब-किताब बनाम साढ़े चार साल का लेखा-जोखा में लोगों से ताली तो खूब बजवायी, लेकिन भीड़ की तादाद की तरह तालियों की गड़गड़ाहट भी वोटों में नहीं बदल पायी.

3. कारोबारी तबके का गुस्सा: यूपी चुनाव में माना गया कि नोटबंदी को लेकर लोगों ने बीजेपी का अच्छा कदम माना था, लेकिन धीरे धीरे सबको हकीकत सामने आने लगी. काले धन के खात्मे का नाम लेकर सत्ता में आयी मोदी सरकार अपने सबसे बड़े कदम नोटबंदी का अब जिक्र तक नहीं करती. नोटबंदी और जीएसटी ऐसे मसले हैं जो कारोबारी तबके की मुसीबतों का सबब बने. क्या छोटा और क्या बड़ा कारोबारी, हर कोई किसी न किसी तरीके से परेशान रहा.

ऐसा नहीं कि जीएसटी का आइडिया लोगों को खराब लगा, लेकिन उस पर अमल में आ रही मुश्किलों से वे लगातार परेशान रहे और सरकार की ओर से उन्हें खास राहत नहीं मिल सकी. नोटबंदी पर बीजेपी की खामोशी भी तो पब्लिक समझ ही रही होगी.

4. सवर्णों का गुस्सा: नतीजों से तो ये संकेत भी मिल रहा रहा है कि एससी-एसटी एक्ट का असर भी बीजेपी के लिए घातक हुआ है. इस मुद्दे पर तो यही लगता है कि बीजेपी कांग्रेस की राजनीति को समझ नहीं पायी और फंस गयी. जब कर्नाटक में चुनाव हो रहे थे तभी सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया. कांग्रेस ने विरोध का बीड़ा उठाया और एनडीए के अंदर के विरोध के दबाव में बीजेपी ने अध्यादेश लाकर दलितों की नाराजगी दूर करने की कोशिश की. अंबेडकर जयंती के दौरान महीने भर बीजेपी के नेता दलित आबादी बहुल इलाकों में घर-घर और दर-दर घूमते या कहें कि भटकते रहे.

बीजेपी को लगा होगा कि राष्ट्रवादी भावनाएं और मंदिर मुद्दा सवर्णों को बीजेपी के बगीचे से बाहर झांकने नहीं देगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. विधानसभा चुनावों के बीच ही अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर कानून लाने को लेकर माहौल बनाया जाने लगा - पर हासिल अभी तो सिफर ही लगता है.

5. कांग्रेस का गुस्‍सा: पूरे चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी का तीन बातों पर खास जोर रहा. एक - राफेल डील में घोटाला, दो - किसानों की समस्याएं उठाना और कर्जमाफी का भरोसा और तीन युवाओं को बेरोजगारी पर मोदी सरकार की वादाखिलाफी.

ऐसा लगता है जिन मुद्दों को लेकर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी 2014 में चुनाव जीती वही अब उन पर भारी पड़ रहे हैं. मोदी ये जरूर कहते हैं कि राजीव गांधी के जमाने में केंद्र का कम से कम पैसा लोगों तक पहुंचता रहा, लेकिन मोदी राज में ये सौ फीसदी पहुंचता है. लोगों का रुख तो ऐसा लगता है कि वो इस बात से कतई इत्तफाक नहीं रखते.

जनहित वाले बिल में क्या है?

देखा जाये तो हिंदी पट्टी में बीजेपी का इससे बुरा हाल क्या हो सकता है - जिस इलाके की 65 लोक सभा सीटों में बीजेपी को 2014 में 62 मिले थे वहां नये चुनाव के मुहाने पर बीजेपी सत्ता से बेदखल हो गयी.

क्या ये बीजेपी के लिए किसी तरह के खतरे की घंटी है, खासतौर पर 2019 के लिए? जवाब काफी हद तक हां में मिलता है.

ये तो अभी कहना ठीक नहीं होगा कि सत्ता बीजेपी के हाथ से फिसलने लगी है, लेकिन ये जरूर समझा जा सकता है कि तीन राज्यों के नतीजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए अब तक का सबसे बड़ा अलर्ट हैं.

चुनाव नतीजों को लेकर आ रहे रुझानों की चर्चा के बीच ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टीवी पर लाइव आये. चुनाव नतीजों पर तो वो कुछ नहीं बोले, लेकिन संसद में हर हाल में हर मुद्दे पर चर्चा जरूर हो इस बात पर काफी जोर दिया - 'वाद हो, विवाद भी हो लेकिन संवाद जरूर हो.' साथ ही मोदी ने शीत सत्र को बेहद अहम बताते हुए कहा - 'सरकार जनहित के मुद्दों से जुड़े कई बिल लाएगी.'

अब तो सवाल यही होगा कि जनहित से जुड़े मुद्दों में अयोध्या में राम मंदिर पर कोई विधेयक या अध्यादेश भी शुमार है क्या?

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