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Updated: 19 अक्टूबर, 2020 07:03 PM
मशाहिद अब्बास
मशाहिद अब्बास
 
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बिहार का विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Elections) अब बेहद करीब है, चुनावी रंग पूरे बिहार (Bihar) में दिखने लगा है. चुनाव का माहौल दूर से ही नज़र आने लगा है. राज्य में नेताओं का काफिला निकल रहा है तो पत्रकारों का जमघट भी लग रहा है. हर एक सियासी पार्टी के अपने अपने दावे हैं और अपने अपने वादे हैं. सबकी कोशिश यही है कि किसी तरह से बिहार की जनता को लुभा लिया जाए. गठबंधन, महागठबंधन और बिना किसी बंधन के लोग जनता के बीच पहुंच चुके हैं. विकास (Development) के दावे हैं, सुशासन और सुरक्षा का वादा है. रोजगार (Employment) की बाते हैं, लेकिन इन सब पर हावी है जातिवाद (Casteism) का फैक्टर. राज्य की सभी राजनीतिक पार्टियां बिहार के हर वर्ग के लोगों को रिझाने और लुभाने में जुटी हुयी है. बिहार में जातिवाद हर चुनाव में रहा है जो बहुत हद तक चुनाव को बनाता और बिगाड़ता है. बिहार में कभी सवर्ण वोटों के लिए मारामारी हुआ करती थी, सवर्ण वोटों से ही जीत और हार तय हो जाया करती थी. लेकिन अब बिहार में पिछड़े वर्ग के लोगों का दबदबा है जिसको रिझाने कि कोशिशें हर एक पार्टी पूरे दमखम के साथ कर रही हैं.

Bihar Election, Bihar, Nitish Kumar, Tejasvi Yadav, Chirag Paswanये अपनेआप में अजीब है कि बिहार चुनाव में सिर्फ और सिर्फ एक मुद्दा है और वो है जातिवाद

सबसे पहले बात करते हैं उच्च जाति के वोटों की, जोकि तकरीबन 15 फीसदी के आसपास हैं. इसमें भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और कायस्थ जाति के लोग आते हैं. ये पूरा वोटबैंक कभी कांग्रेस पार्टी का ही हुआ करता था. लेकिन भाजपा कांग्रेस के इस वोटबैंक पर हर साल सेंध लगाती रही और आज ये अधिकतर भाजपा के खेमे मे हैं. अब राजद इसमें सेंध लगाने की कोशिश में है. तभी तो दर्जनों टिकट इन्हीं जाति के लोगों को बांटे गए हैं. इस विधानसभा चुनाव में जिस तरीके से टिकट दिया गया है, उससे साफ ज़ाहिर है कि राजनितिक दल जाति का गुणा गणित करके ही टिकट जारी कर रहे हैं.

जब ही तो जिस इलाके में जिस जाति के लोग अधिक हैं उधर उसी जाति का उम्मीदवार उतारा जा रहा है. एक एजेंसी के सर्वे के अनुसार बिहार में 50 प्रतिशत से अधिक पिछड़े वर्ग की आबादी है. इऩ्हीं में दलित और मुस्लिम भी शामिल हैं. लेकिन इनके बीच कभी भी एकता नहीं बन पाई है और यह हमेशा बिखरे हुए ही वोट करते हैं. बिहार में यादव भी करीब 15 प्रतिशत हैं जो लालू प्रसाद यादव के साथ तो हैं मगर अगर स्थानीय उम्मीदवार यादव किसी अन्य पार्टी से सामने आ जाता है तो यह बंट जाते हैं.

बिहार में मुख्य तीन पार्टियां हैं जो हमेशा लड़ाई में होते हैं, इसमें भाजपा, जेडीयू और राजद है. इतिहास ये है कि इन तीन में से जब भी कोई दो पार्टी एक साथ आई है तो उसे सरकार बनाने में कोई मुश्किल नहीं देखने को मिलती है. इस चुनाव में भी नितीश को भाजपा का समर्थन मिला है तो नितीश की राह मुश्किल तो नहीं है लेकिन आसान भी नहीं है. बिहार में अति पिछड़ा जाति यानी लोहार, कहार, मल्लाह, माली, बढ़ई, सोनार ये सभी जाति के वोट नितीश कुमार के खाते मे हैं. हालांकि ये नितीश कुमार से दूर भी हो रहे हैं.

लेकिन नीतिश के लिए बेहतर ये है कि ये टूटकर तेजस्वी की ओर नहीं जा रहे हैं बल्कि भाजपा का दामन थाम रहे हैं जो नितीश के साथ हैं. बिहार में इस विधानसभा चुनाव में जो सबसे बड़ा परिवर्तन होने वाला है वो दलित वोटों का है, जिनका वोट करीब 15 प्रतिशत के आसपास है. इसमें भी 5 प्रतिशत पासवान हैं जो रामविलास पासवान के साथ होते थे.

इन सभी का झुकाव एनडीए की ओर हमेशा से रहा है, लेकिन इस विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान नितीश से अलग थलग पड़े हैं तो क्या ये वोटबैंक बिखर जाएगा या फिर दलित वोट एक ही खेमे में जाएगा ये पूरे चुनाव का सबसे दिलचस्प पहलू रहेगा और यही बिहार के चुनाव की दशा और दिशा तय करेगा.

बिहार के चुनाव में एक सबसे बड़ा बदलाव जो हाल के चुनावों में देखा गया वह यह कि सत्ता के खिलाफ एक माहोल तो तैयार होता है लेकिन ज़मीन पर वह माहोल नदारद रहता है. जातिवाद का आलम यह है कि एक सीट पर मसलन उच्च जाति के वोटर अधिक हैं तो उसी जाति के कई उम्मीदवार उतर जाते हैं और सीट कोई दूसरी जाति का उम्मीदवार जीत जाता है.

अगर सीधे शब्दों में कहा जाए तो बिहार के चुनाव में वोटकटुआ उम्मीदवार बहुत अधिक हैं. हालांकि बिहार में युवा वर्ग बेहद शिक्षित है और बिहार से बाहर निकल कई जगह अपना वर्चस्व कायम किए हुए हैं लेकिन वह अपने परिवार की जातिवाद की रूढ़ीवादी सोच को नहीं बदल पा रहे हैं जिससे बिहार का चुनाव जातिवाद तक ही सीमित रहा जाता है.

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लेखक

मशाहिद अब्बास मशाहिद अब्बास

लेखक पत्रकार हैं, और सामयिक विषयों पर टिप्पणी करते हैं.

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