बिहार विधानसभा चुनावः कारण जो तय करेंगे जीत-हार
बिहार की 83 फीसदी आबादी हिंदू है और राज्य के 6 करोड़ 70 लाख वोटर्स में से 31 फीसदी वोटर्स 18 से 29 की उम्र के हैं, आइए जानें बिहार चुनाव से जुड़े ऐसी बातें जो जीत-हार में बड़ी भूमिका निभाएंगी.
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बिहार के विधानसभा चुनावों पर पूरे देश की नजरें लगी हुई हैं. ये चुनाव न सिर्फ 16 महीने पुरानी मोदी सरकार का लिटमस टेस्ट हैं और खुद मोदी की इमेज दांव पर लगी है. साथ ही यह नीतीश कुमार के लिए भी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है. अगर वह इस बार जीते तो देश के सबसे मजबूत विपक्षी नेता बनकर उभरेंगे. आइए जानें बिहार चुनाव से जुड़े ऐसी बातें जो जीत-हार में बड़ी भूमिका निभाएंगी.
बिहार के वोट बैंक का गणितः बिहार की 83 फीसदी आबादी हिंदू है जबकि 17 फीसदी जनसंख्या के साथ मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय में आते हैं. हिंदू तीन प्रमुख जाति समूहों में बंटे हुए हैं. सवर्ण, पिछड़ी जातियां (जिसे पिछड़ा वर्ग या ओबीसी के नाम से भी जाना जाता है) और दलित (जिसे अनुसूचित जाति के नाम से भी जाना है.). बिहार की कुल आबादी में दलित 16 फीसदी, सवर्ण 15 से 20 फीसदी, और ओबीसी करीब 50 फीसदी हैं.
सवर्णों का वर्चस्व कांग्रेस राज में बढ़ाः 1947 से 1967 तक कांग्रेस के 20 साल के शासनकाल के दौरान बिहार विधानसभा में सवर्णों का वर्चस्व रहा. राज्य की आबादी में सवर्णों का प्रतिशत भले ही एक चौथाई से कम हो लेकिन कांग्रेस राज के दौरान बिहार विधानसभा में उनका प्रतिनिधित्व करीब 50 फीसदी था. वहीं राज्य की आबादी में 50 फीसदी संख्या वाले ओबीसी का प्रतिनिधित्व महज 20 फीसदी ही था.
गैर कांग्रेसी सरकार में ओबीसी की सत्ता में भागीदारी बढ़ीः 1967 में ओबीसी की बढ़ती राजनीतिक शक्ति की बदौलत पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी. महज दो सालों में सत्ता में ओबीसी की भागीदारी 10 फीसदी बढ़कर 30 फीसदी हो गई. लेकिन विपक्षी पार्टियों की कमजोरी का फायदा उठाकर कांग्रेस 1989 तक राज्य की सत्ता में अपना दखल बरकरार रखने में सफल रही.
लालू राज से शुरू हुआ सवर्णों के वर्चस्व घटने का सिलसिलाः 1990 में ओबीसी पार्टियों की प्रणेता के रूप में उभरे जनता दल ने लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में बिहार में सारे जातीय समीकरण बदलकर रख दिए. लालू राज के 15 वर्षों के शासनकाल में सवर्णों की सत्ता में भागीदारी बहुत ही तेजी से घटी और ओबीसी का वर्चस्व उतनी ही तेजी से बढ़ा. राज्य के इतिहास में पहली बार ओबीसी ने सत्ता की भागीदारी में सवर्णों को पीछे छोड़ दिया. इस दौरान ओबीसी की भागीदारी बढ़कर करीब 50 फीसदी हो गई जबकि सवर्णों की 25 फीसदी से भी नीचे आ गई.
नीतीश राज में फिर बढ़ा सवर्णों का वर्चस्वः 2005 में नीतीश के सत्ता में आने के बाद सवर्णों की सत्ता में भागीदारी फिर से बढ़ी. हालांकि यह फिर कभी ओबीसी की भागीदारी को पीछे नहीं छोड़ पाई लेकिन फिर नीतीश के 10 वर्षों के शासनकाल में इसमें करीब 10 फीसदी का इजाफा हुआ. इस दौरान ओबीसी की भागीदारी सवर्णों के मुकाबले कम तेजी से बढ़ी.
बिहार चुनावों में जातियों की अहम भूमिका होगी |
बिहार चुनावों के लिए तीन बातों पर नजर रखना जरूरीः
1. नीतीश के बीजेपी और लालू के ‘साथ’ का टेस्टः बिहार ने नीतीश कुमार के 10 वर्षों के शासनकाल में तेजी से विकास किया है. 2014-15 में बिहार की प्रति व्यक्ति आय 8.4 फीसदी की तेजी से बढ़ी, जो कि इसे दूसरा सबसे तेज विकास करने वाला राज्य बनाती है. तो क्या जनता नीतीश के विकास कार्यों से संतुष्ट है और उन्हें वोट देगी? या बिहार के बेहतर भविष्य का सपना दिखाने वाले बीजेपी के साथ जाएगी? बीजेपी लोगों को समझा रही है कि बिहार का विकास उन आठ सालों में ही हुआ जब वह नीतीश के साथ थी. साथ ही वह नीतीश के लालू के साथ जाने पर लोगों को यह कहकर डरा रही है कि अगर नीतीश को वोट दिया तो बिहार में जंगल राज वापस आ जाएगा.
2. महिलाओं की होगी अहम भूमिकाः आम तौर पर माना जाता है कि चुनावों में पुरुष ज्यादा वोट देते हैं. 1962 के चुनावों में बिहार के कुल 44 फीसदी वोटों में से 55 फीसदी पुरुष और 32 फीसदी महिला वोटर्स थे. यानी कि महिला और पुरुष वोटर्स के बीच करीब 20 फीसदी का अंतर था. यह अंतर अगले तीन दशकों तक बरकरार रहा. 1990 में यह घटना शुरू हुआ और 2010 में महिला वोटर्स ने पहली बार पुरुष वोटर्स को पीछे छोड़ दिया. मजेदार बात यह है कि 2005 में लालू को सत्ता से बेदखल करने में महिला वोटर्स की अहम भूमिका रही. ऐसे में नीतीश को अगर सत्ता में दोबारा आना है तो उन्हें महिला वोटर्स के समर्थन की सबसे ज्यादा जरूरत पड़ेगी.
3. युवाओं का रोल सबसे महत्वपूर्णः बिहार के 6 करोड़ 70 लाख वोटर्स में से 31 फीसदी वोटर्स 18 से 29 की उम्र के हैं. बीजेपी ने 2014 के आम चुनावों में युवा वोटर्स को आकर्षित करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया था और मोदी को भारत को आगे ले जाने वाले नेता के तौर पर प्रचारित किया था. बीजेपी की यह रणनीति कारगर रही थी और उसकी जीत में युवाओं ने अहम भूमिका अदा की थी. इसलिए इन चुनावों में काफी हद तक बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की युवा वोटर्स को आकर्षित करने पर ही उनकी जीत-हार निर्भर होगी.
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