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Updated: 10 नवम्बर, 2020 01:06 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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8 जून, 2020 को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पहली डिजिटल रैली 'बिहार जनसंवाद' किया था. ये रैली तो मोदी सरकार के साल भर पूरे होने के जश्न का हिस्सा रही, लेकिन तभी अमित शाह ने दावा किया कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के नेतृत्व में दो तिहाई से ज्यादा बहुमत से एनडीए की सरकार बनेगी.

अमित शाह के दो तिहाई बहुमत से सरकार बनने के दावे पर भले ही किसी को भरोसा न हुआ हो, लेकिन किसी को भी ऐसा तो नहीं ही लगा था कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में एनडीए को सरकार बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा. तब तो ऐसा ही लग रहा था कि नीतीश कुमार के सामने है ही कौन जो उनको चैलेंज कर सके? तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) की कौन कहे, खुद बीजेपी को भी अपने पास कोई ऐसा नेता नहीं लगा जो नीतीश कुमार के मुकाबले खड़ा हो सके.

बिहार की एकतरफा लड़ाई को कड़े मुकाबले में बदलने के लिए अगर कोई जिम्मेदार है तो सिर्फ बीजेपी है - एनडीए की सरकार अभी भले बन जाये लेकिन तेजस्वी यादव का मजबूत होना बीजेपी की रणनीतियों के लिए करारा झटका है!

भारी बहुमत के साथ केंद्र सत्ता में दोबारा पहुंची बीजेपी और देश में सबसे ताकतवर बीजेपी विधानसभा चुनाव (Bihar Election Result 2020) में आखिर क्यों बिहार के राजनीतिक हालात समझने में चूक जाती है?

अपनी ही चाल में फंस गयी बीजेपी

बिहार में चुनावी सरगर्मी तेज हो जाने के बाद भी काफी दिनों तक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चुनौती देने वाला कोई नजर नहीं आ रहा था, लिहाजा बीजेपी विपक्षी राष्ट्रीय जनता दल के खिलाफ रणनीति तैयार करने की बजाये नीतीश कुमार को ही घेरने में जुट गयी.

नीतीश कुमार को घेरने के मकसद से ही अंडर कवर मिशन चिराग पासवान शुरू हुआ - और चुनाव नतीजों के रुझान बता रहे हैं कि वो काफी असरदार रहा है. चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी रुझानों में तो मजबूत मौजूदगी जता ही रही है, नतीजे आने के बाद ये भी साफ होगा कि किसे कितना नुकसान हुआ?

नुकसान सिर्फ नीतीश कुमार को ही हुआ या बीजेपी का भी नुकसान हुआ है? चिराग पासवान खुद फायदे में रहे या उनको भी नुकसान हुआ ये बाद में ही मालूम हो सकेगा.

बीजेपी के लिए सत्ता में रह कर भी दबाव बनाये रखने खातिर ज्यादा जरूरी रहा कि वो जैसे भी संभव हो सके, तेजस्वी यादव को कम से कम सीटों पर समेटने की कोशिश करती.

तेजस्वी यादव का कमजोर होना बीजेपी के लिए ज्यादा फायदे की बात होती. तेजस्वी यादव के मजबूत होने से बिहार में भी बीजेपी के लिए महाराष्ट्र जैसी स्थिति पैदा हो गयी है.

tejashwi yadav emerjes strong in bihar electionनीतीश कुमार नहीं, तेजस्वी यादव का ताकतवर होना बीजेपी के लिए मुसीबत है!

बीजेपी शुरू से ही ऐसी रणनीति के साथ चल रही थी कि जैसे भी हो सके, नीतीश कुमार उसके प्रभाव में बने रहें. प्रभाव भी इतना हो कि वो चाह कर भी कोई नया राजनीतिक समीकरण न खड़ा कर सकें. नीतीश कुमार को काबू करने के मकसद में बीजेपी कुछ हद तक सफल भी लगती है. चिराग पासवान अलग चुनाव लड़कर भी बीजेपी के साथ ही हैं - और बात जब कुर्सी पर आएगी तो नीतीश कुमार को भी चिराग पासवान की मदद से भला गुरेज क्यों होगी? हां, तब चिराग पासवान मोलभाव अच्छे से कर सकेंगे - और ये सुनने को मजबूर नहीं होना पड़ेगा कि कोई घर परिवार का होगा तभी मंत्री बन पाएगा.

बीजेपी के लिए बिहार में कम से कम इस स्थिति में होना चाहिये था कि उसे नजरअंदाज करके कोई भी सत्ता पर काबिज न हो सके. किसी भी राजनीतिक दल के पास इतनी संख्या न हो कि वो बीजेपी के बगैर बिहार में सरकार बना सके. बीजेपी के लिए सबसे जरूरी था कि वो तेजस्वी यादव को कम से कम सीटों पर रोक पायी होती.

अगर बिहार में बीजेपी के बगैर बाकियों के मिल कर सरकार बनाने का मौका मौजूद है तो बीजेपी के लिए ये बिलकुल हार जैसा ही है. लाख जतन के बावजूद बीजेपी बिहार में ऐसी स्थिति तैयार करने में तो नाकाम ही रही है कि उसे नजरअंदाज करना ज्यादा मुश्किल न हो - महाराष्ट्र ताजातरीन और बेहतरीन मिसाल है.

2015 बनाम 2020

पांच साल पहले बीजेपी और नीतीश कुमार आमने सामने रहे - और इस बार नीतीश कुमार न सिर्फ बीजेपी के साथ रहे, बल्कि पूरी तरह पार्टी नेतृत्व के प्रभाव में रहे. कह सकते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर ही काफी हद तक निर्भर भी नजर आये.

2014 की मोदी लहर के साथ केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए बीजेपी को पहला झटका दिल्ली में लगा था, लेकिन उसे लगा कि किरण बेदी एक्सपेरिमेंट से नाराज पार्टी कार्यकर्ताओं की वजह से ही बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा था. दिल्ली में तो पांच साल बाद भी बीजेपी को दोबारा शिकस्त झेलनी पड़ी, गनीमत है बिहार में हालत सुधर गयी है.

2020 के हालात 2015 से काफी अलग रहे. 2015 में बीजेपी नेतृत्व को उस महागठबंधन से जूझना पड़ा था जिसके नेता मुख्यमंत्री नीतीश कुमार रहे और आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव भी फील्ड में डटे रहे. 2020 में के चुनाव में लालू यादव जेल में रहे और नीतीश कुमार बीजेपी के साथ. शुरू में लालू यादव के बगैर तेजस्वी यादव को कोई भी गंभीरता से नहीं ले रहा था.

लोक सभा चुनाव में आरजेडी का एक भी सीट न जीत पाना, उसके बाद बिहार के राजनीतिक सीन से लंबे वक्त तक लापता होना और कोरोना संकट और लॉकडाउन के दौरान भी बिहार से बाहर होना - ये सब ऐसे कारण रहे जो कहीं से भी तेजस्वी यादव को नीतीश कुमार के मुकाबले में खड़े नहीं होने दे रहे थे. 2015 में तो नीतीश कुमार के डीएनए पर प्रधानमंत्री मोदी का सवाल उठाना भी मुद्दा बना था और चुनावों के दौरान ही संघ प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण पर बयान भी बीजेपी के लिए नुकसानदेह साबित हुआ. इस बार तो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था.

सब कुछ तो बीजेपी नेतृत्व के कंट्रोल में ही नजर आ रहा था, फिर ऐसी चूक कैसे हो गयी कि बिहार की राजनीति पर बीजेपी की पकड़ ढीली नजर आने लगी है?

2019 के आम चुनाव के बाद बिहार में पांचवां विधानसभा चुनाव हुआ है. कह सकते हैं पहली बार बीजेपी थोड़ी संभली हुई महसूस कर रही होगी.

कहने को तो महाराष्ट्र में बीजेपी को लगे झटके की वजह और कहानी अलग है और हरियाणा में जैसे तैसे सत्ता हथियाने में कामयाब भी रही है, लेकिन झारखंड और दिल्ली के मामले तो अलग अलग रहे. ये मान सकते हैं कि झारखंड में रघुबरदास सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी फैक्टर और AJSU के साथ चुनावों के बीच ही गठबंधन तोड़ देने का भी नुकसान उठाना पड़ा - लेकिन दिल्ली में तो पूरा मौका था!

2019 में हुए महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में बाकी राजनीतिक दल जहां स्थानीय मुद्दे उठाते रहे वहीं बीजेपी नेता धारा 370 जैसे राष्ट्रीय मुद्दों के साथ चुनाव प्रचार करते रहे. न तो किसी को किसानों की समस्याओं की फिक्र नजर आयी और न ही वोटर की स्थानीय समस्यायें.

झारखंड विधानसभा चुनाव के दौरान ही अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर फैसला आया. फैसला सुप्रीम कोर्ट का रहा, लेकिन अमित शाह मोदी सरकार को क्रेडिट देते रहे. दूसरी तरह सत्ता विरोधी लहर के बीच हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस स्थानीय मुद्दों पर फोकस रहे. टिकटों के बंटवारे की गलती भी भारी पड़ी और बीजेपी के मुख्यमंत्री रघुबर दास बीजेपी के ही बागी उम्मीदवार से चुनाव हार गये.

दिल्ली चुनाव में तो बीजेपी नेताओं ने सारी सीमाएं ही लांघ डाली. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को आतंकवादी तक बता डाले. पूरे चुनाव में धारा 370, सीएए और राम मंदिर पर फोकस रहा और बीजेपी फिर से चुनाव हार गयी. बिहार चुनाव में बीजेपी नेतृत्व का जैसा रवैया नीतीश कुमार को लेकर दिखा, तकरीबन वैसा ही व्यवहार तबके प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी के साथ भी देखने को मिला था.

बिहार चुनाव में भी 2015 की तरह बीजेपी नेता नित्यानंद राय ने एक बार फिर आतंकवाद और कश्मीर का जिक्र छेड़ कर माहौल बनाने की कोशिश की. 2015 में भी कई बार इस बात की चर्चा हुई कि अगर महागठबंधन जीत गया तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे. न तब लोगों को ऐसे मुद्दों में कोई दिलचस्पी रही और न ही इस बार. आखिर बीजेपी लोक सभा और विधानसभा चुनावों के मिजाज का फर्क नहीं समझ पाती या फिर उसे कुछ खास मुद्दों से इतना लगाव होता है कि वो चाह कर भी उनके बीच ही सिमट कर रह जाती है?

अव्वल तो होना ये चाहिये था कि बिहार में सत्ता की मास्टर की बीजेपी के पास होनी चाहिये थी, लेकिन पांच साल बाद भी बीजेपी बिहार में एक वैसे ही मोड़ पर आ खड़ी हुई है जहां 2015 में नजर आ रही थी. जैसे नीतीश कुमार ने चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनने के करीब डेढ़ साल बाद पाला बदल लिया था - एक बार फिर उनके पास वैसा ही मौका है!

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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