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Updated: 31 जुलाई, 2015 12:58 PM
शिवानंद तिवारी
शिवानंद तिवारी
  @shivanand.tivary
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पिछले कुछ दिनों से चर्चा है कि लालू और नीतीश के गठबंधन का अंत होने जा रहा है. कुछ पत्रकार मित्रों ने इसकी संभावना पर मेरी राय भी जाननी चाही थी. मैंने इसकी सम्भावना से इंकार कर दिया था. क्योंकि तब लड़ाई त्रिकोणात्मक हो जायेगी और भाजपा चुनाव नतीजा निकलने का इंतज़ार किये बगैर अभी से ही मि‍ठाई बांटना शुरू कर देगी. लालू और नीतीश चुनावी मैदान के मझे हुए खिलाड़ी हैं. वे क्यों गठबंधन तोड़कर जानबूझकर आत्महत्या करना चाहेंगे! हालांकि यह तथाकथित महागठबंधन भाजपा को बिहार में रोक देगा इस पर मुझे यकीन नहीं है.

लेकिन लम्बे अरसे से नीतीश को जानने के बाद मुझे इस गठबंधन का अंत असंभव भी नहीं लग रहा है. नीतीश अभी दिल्ली गए थे. अरविंद केजरीवाल के साथ गलबहियां वाली उनकी तस्वीर बिहार के अख़बारों में भी छपी. लेकिन लालू के साथ उनकी कोई भी ऐसी तस्वीर अभी तक नहीं छपी है जिसके जरिये एकता का संदेश लोगों के बीच जा सके. जबकि भाजपा गठबंधन अपनी एकता का प्रदर्शन करते हुए धूम-धड़ाके के साथ चुनाव मैदान में उतर चुका है.

दरअसल, नीतीश को गुड़ खाने में परहेज नहीं है. लेकिन गुलगुला वे कभी नहीं खाएंगे. अपने को दुनिया भर में सबसे ज्यादा पाक-साफ समझने वाले नीतीश कुमार को लगता है कि लालू के साथ दिखाई देने पर उनकी धवल छवि में दाग लग जायेगा. जेठ में सावन की हरियाली दिखाने में माहिर उनकी सलाहकार मंडली उनको समझा रही है कि लालू के साथ गठबंधन से उनको नुकसान है. उनको कांग्रेस और वामपंथियों के साथ गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ना चाहिए. सुशासन, विकास और पाक-साफ छवि के आधार पर उनको इतना वोट मिलेगा कि वह ईवीएम मशीन में समायेगा नहीं.

नीतीश अगर लालू से अलग होंगे तो उनकी कोशिश होगी कि अलगाव की तोहमत लालू पर लगे. उसका आसार दिखने लगा है. सीटों के बटवारे में लालू को वे अपने से कम सीट लेने का दबाव बना रहे हैं. लालू का आधार बड़ा है. नीतीश की पूंजी समाज में नहीं बल्कि मीडिया और अपने को सेकुलर समझने वाले बुद्धिजीवियों के बीच में है. फिर अगर जीत होती है तो सरकार उनकी बननी है. दूसरी ओर अगर लालू नीतीश से कम सीट पर लड़ेंगे तो उनको अपना आधार संभालना कठिन हो जायेगा. नीतीश को गठबंधन का नेता मानकर वे पहले ही जहर पी चुके हैं. अब नीतीश से कम सीट पर लड़ने का मतलब है अपने आधार को नीतीश के आधार से कमजोर मान लेना. लालू अगर ऐसा कर भी लेते हैं तो उनका आधार अपने को कमतर मानने को तैयार होगा इस पर मुझे गंभीर शुबहा है. ऐसी हालत में वह क्या करेगा कहना कठिन है.

अगर सेकुलरिज्म की लड़ाई में भूमिका देखी जाय तो नीतीश लालू के मुकाबले कहीं नहीं ठहरते हैं. लालू कभी भाजपा के साथ नहीं गए. दूसरी ओर नीतीश आज जो भी हैं उसका अवसर उन्हें भाजपा ने ही दिया है. छः वर्ष तक रेल मंत्री और उसके बाद बिहार का मुख्यमंत्री वे भाजपा की ही वजह से बने हैं. अब सेकुलरिज्म के नाम पर पुनः उनको मुख्यमंत्री बनाने के लिए लालू अपनी बलि क्यों दें?बिहार में भाजपा की सरकार बनने की जो प्रबल संभावना दिखाई दे रही है इसकी एकमात्र वजह नीतीश का सत्ता लोभ है. जिस दिन मुख्यमंत्री की कुर्सी से जीतन राम मांझी को हटाकर नीतीश स्वंय बैठ गए थे उसी दिन भाजपा सरकार बनने की भविष्यवाणी मैंने कर दी थी.

लेकिन लालू यहां एक गंभीर गलती कर गए. उनको जीतन राम मांझी को अपनी ओर से मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाकर चुनाव में उतरना चाहिए था. तब बिहार में कांटे की लड़ाई होती. लेकिन लालू ने मेरी सलाह नहीं मानी. बिहार के इन दोनों महाबली नेताओं की राजनीति का भविष्य अब इसी चुनाव में तय होने वाला है.

(जेडीयू के पूर्व सांसद शिवानंद तिवारी की फेसबुक वॉल से साभार. तिवारी बिहार के सक्रिय राजनेताओं में से एक हैं)

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शिवानंद तिवारी शिवानंद तिवारी @shivanand.tivary

लेखक राज्यसभा के पूर्व सांसद हैं.

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