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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 08 सितम्बर, 2022 05:03 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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कांग्रेस की 'भारत जोड़ो यात्रा' (Bharat Jodo Yatra) ऐसे वक्त शुरू हुई है, जब गांधी परिवार से अकेले राहुल गांधी ही देश में हैं. मेडिकल चेक अप के लिए सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) और उनके साथ प्रियंका गांधी वाड्रा भी देश से बाहर हैं - सोनिया गांधी ने राहुल गांधी और साथियों को हैप्पी जर्नी तो बोला ही है, उम्मीद जतायी है कि ये मुहिम कांग्रेस का कायाकल्प कर देगी.

कांग्रेस के अति महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट भारत जोड़ो यात्रा में पोटेंशियल तो वास्तव में बहुत ही ज्यादा है, लेकिन अपेक्षित कायाकल्प की राह में बाधाओं की एक लंबी श्रृंखला है. ये बाधायें यात्रा की राह में नहीं, बल्कि यात्रा से हो सकने वाले फायदों की राह में बनी हुई हैं - और ये सब नये सिरे से नहीं खड़ी हुई या की गयी हैं.

ये तो नहीं कह सकते कि कांग्रेस के कायाकल्प में सबसे बड़ी बाधा राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ही हैं, लेकिन एक बड़ा हर्डल तो वो बना ही दिये हैं. G-23 की पैदाइश की वजह भी वही है, और हाल ही में गुलाम नबी आजाद ने अपनी चिट्ठी में भी अपने हिसाब से उन कारगुजारियों का जिक्र किया है. ऐसा भी नहीं कि गुलाम नबी आजाद या हिमंत बिस्वा सरमा के दावे कांग्रेस को सच का सामना करा रहे हैं, लेकिन सारी बातें हवा हवाई तो नहीं ही लगतीं. बेशक ये सियासी बयान होते हैं, लेकिन राहुल गांधी कि गतिविधियां ही ऐसे दावों को कंफर्म भी कर देती हैं.

भारत जोड़ो यात्रा को काफी सोच समझ कर प्लान किया गया है. यात्रा का जो रूट है वो आने वाले चुनावा क्षेत्रों को भी कवर कर रहा है, लेकिन सवाल ये भी उठाये जा रहे हैं कि यात्रा के नक्शे से गुजरात और हिमाचल प्रदेश के साथ साथ छत्तीसगढ़ को क्यों छोड़ दिया गया है? अगर इसके पीछे कोई तर्क उन राज्यों में बीजेपी की सरकारें होना है, तो महाराष्ट्र में भी बीजेपी गठबंधन की ही सरकार है - और मध्य प्रदेश में तो सिर्फ बीजेपी की ही सरकार है.

ये सीधे सीधे तो नहीं कहा जा सकता कि यात्रा प्रशांत किशोर की सलाह से शुरू की गयी है, लेकिन ऐसी सलाहियतें उस सूची का हिस्सा जरूर रही हैं जो कांग्रेस नेतृत्व को दिये प्रजेंटेशन को लेकर चर्चित रहीं. कांग्रेस की तरफ से भी कहा गया था कि प्रशांत किशोर के कुछ सुझावों पर अमल किया जाएगा - और प्रशांत किशोर की तरफ से भी ऐसी ही भावपूर्ण प्रतिक्रिया आयी थी. अभी तो प्रशांत किशोर भी बिहार में अपनी यात्रा पर हैं और दिल्ली से पटना जाते जाते नीतीश कुमार उनको काफी कुछ सुनाये भी हैं, करीब करीब आरसीपी सिंह वाले ही अंदाज में.

भारत छोड़ो यात्रा के नफे नुकसान का आकलन यूपी चुनाव 2022 में प्रियंका गांधी वाड्रा के प्रदर्शन और चुनाव नतीजों से किया जा सकता है. जैसे प्रियंका गांधी के फील्ड में उतर जाने से कांग्रेस कार्यकर्ताओं को जोश में देखा गया, राहुल गांधी के भारत जोड़ो यात्रा पर निकलने से एक बार फिर ऐसा हो सकता है - लेकिन उसके बाद? बड़ा सवाल यही है. राहुल गांधी का अमेठी से पत्ता साफ हो जाने के बाद तो दुख समझा जा सकता है, लेकिन यूपी में बीजेपी की सरकार बन जाने के बाद से प्रियंका गांधी को ही वहां कितनी बार देखा गया है?

बाद की बात और है, लेकिन अभी तो भारत जोड़ो यात्रा का असर उतना ही लगता है जैसे एसिडिटी होने पर ईनो पी लेने से थोड़ी देर के लिए तेज राहत मिल जाती है - कांग्रेस का कायाकल्प तभी मुमकिन है जब भारत जोड़ो यात्रा को को राहुल गांधी को लॉन्च करने का एक और मौका भर न रहने दिया जाये.

अगर एक बार भारत जोड़ो यात्रा लोगों के दिमाग में रजिस्टर हो जाती है, तो कोशिश ये होनी चाहिये कि लंबे अरसे तक लोग उसे भुला न सकें. ऐसी लंबी यात्राएं कोई बार बार नहीं करता. महात्मा गांधी से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर तक. यहां तक कि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे वाईएसआर रेड्डी ने भी एक बार ही लंबी यात्रा की थी - और चंद्रबाबू नायडू जैसे हाई-फाई मुख्यमंत्री को तब सत्ता से बेदखल कर दिया था जब वो अपने कामकाज की वजह से खासे लोकप्रिय हुआ करते थे.

अगर राहुल गांधी भी भारत जोड़ो यात्रा वाला जोश कांग्रेस में आगे बनाये रखते हैं तो ये यात्रा चंद्रशेखर की ही तरह उनके लिए भी शुभ साबित हो सकती है. जाहिर है ऐसा हुआ तो कांग्रेस का कायाकल्प ही समझा जाएगा!

सोनिया गांधी तो सब जानती ही हैं. सेहत सही न होने पर भी कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं और चेक-अप कराने जाने के बावजूद यात्रा में शामिल न होने के लिए शुभकामनाओं के साथ खेद भी जता रही हैं - लेकिन मुद्दे की बात तो ये है कि राहुल गांधी इन चीजों को कितनी गंभीरता से लेते हैं.

भारत यात्रियों के नाम सोनिया की चिट्ठी

जो लोग भारत जोड़ो यात्रा में पूरे वक्त कन्याकुमार से कश्मीर तक बने रहेंगे, उनको भारत यात्री कहा जा रहा है. राहुल गांधी भी भारत यात्री कैटेगरी में ही रखे गये हैं. ऐसा इसलिए भी किया गया होगा ताकि राहुल गांधी पर एक नैतिक दबाव बना रहे.

rahul gandhi, sonia gandhi, priyanka gandhiकांग्रेस का कायाकल्प तभी संभव है जब गांधी परिवार हकीकत को समझे और ऐसा करना भी चाहे!

राहुल गांधी सहित ऐसे सभी भारत यात्रियों के नाम कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की एक चिट्ठी मिली है. ये शुभकामना संदेश हैं - और सोनिया गांधी ने अपने संदेश की शुरुआत 'वणक्कम' शब्द के साथ की है - और इस तमिल शब्द के साथ हिन्दी में नमस्कार भी लिखा है.

अपने संदेश में सोनिया गांधी ने इलाज और मेडिकल चेक-अप की मजपूरियों का जिक्र करते हुए यात्रा में शामिल न हो पाने के लेकर असमर्थता और अफसोस तो जताया है लेकिन कहती हैं, 'शानदार विरासत वाली हमारी महान पार्टी कांग्रेस के लिए ये एक ऐतिहासिक अवसर है... मुझे विश्वास है कि इससे हमारे संगठन का कायाकल्प होगा... भारतीय राजनीति के लिए ये पल परिवर्तनकारी साबित होगा.'

सोनिया गगांधी आगे लिख रही हैं, 'मैं विशेष रूप से अपने उन 120 सहयोगियों को बधाई देना चाहती हूं, जो लगभग 3600 किलोमीटर लंबी ये पदयात्रा पूरी करेंगे... यात्रा कई राज्यों से गुजरेगी और इसमें हजारों नये लोग शामिल होंगे... उन्हें भी मेरी तरफ से शुभकामनाएं... वैचारिक और आत्मीय रूप से मैं हमेशा भारत जोड़ो यात्रा में शामिल रहूंगी. निश्चित रूप से मैं यात्रा को आगे बढ़ते हुए लाइव देखूंगी... तो आइए हम संकल्प लें, एकजुट हों और अपने कर्तव्यों पर दृढ़ रहें. जय हिंद.'

यात्रा के उम्मीदों पर खरा उतरने में संदेह क्यों?

समझा जाये तो भारत जोड़ो यात्रा कांग्रेस के सामने खड़ी चुनौतियों में किसी एनर्जी ड्रिंक ही तरह है. जैसे एनर्जी ड्रिंक पीते वक्त और कभी कभी कुछ देर बाद तक ताजगी का एहसास कराते हैं, कांग्रेस के लिए भारत जोड़ो यात्रा भी ऐसा ही अनुभव कराने वाली है, समस्या सिर्फ उसके बाद की है.

ऐसे में कांग्रेस के कायाकल्प में कहीं से कोई नयी बाधा नहीं खड़ी होने जा रही है, बल्कि जो जद्दोजहद पहले से ही चली आ रही है, अंधेरा उन्हीं ने कायम कर रखा है...

1. कांग्रेस का स्थायी अध्यक्ष न होना: एक मजबूत और घोषित स्थायी नेतृत्व के अभाव में कांग्रेस में हर तत्व और तबका बेकाबू मिसाइल की तरह व्यवहार कर रहा है - किसी को ये नहीं पता कि करना क्या है? क्यों करना है? और क्या नहीं करना है?

अगर किसी को कुछ करना हो तो भी कोई गाइड करने वाला नहीं है. अगर कोई कुछ ऐसा कर बैठे जो पार्टी हित में न हो तो उसे रोकने वाला भी कोई नहीं है - सबसे बड़ी मुश्किल तो ये है कि वक्त रहते सही फैसला लेने वाला भी कोई नहीं है.

ऐसा भी नहीं कि कांग्रेस में फैसले नहीं लिये जाते हैं. फैसले निश्चित तौर पर लिये जाते हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है. फैसले का कोई मतलब नहीं रह जाता है. बाद में निभाई जाने वाली हर रस्म लकीर पीटने जैसी ही होती है.

सफाई देने के लिए भी वही चार लोग हैं - और डैमैज कंट्रोल के लिए भी वे ही चार हैं. अगर कहीं से कोई अच्छी पहल की कोशिश हो तो रोकने वाले भी वही चार खड़े हो जाते हैं - G-23 भी तो ऐसी ही पहल रही और सबको मालूम ही है कैसे गांधी परिवार के करीबी कहे जाने वाले नेताओं की टोली कांग्रेस कार्यकारिणी में ही चिट्ठी लिखने वालो पर टूट पड़ी थी.

अब ये तो कांग्रेस को ही मालूम होगा कि सीनियर और काबिल नेताओं के पार्टी छोड़ कर जाने का क्या फायदा और नुकसान है - कांग्रेस छोड़ने वालों को राहुल गांधी की तरफ से डरपोक करार दिये जाने से क्या होता है? वो तो राजनीतिक बयान से ज्यादा कुछ नहीं होता.

2. राहुल गांधी का सुपर पावर बने रहना: राहुल गांधी, गुलाम नबी आजाद के निशाने पर तो थे ही, कपिल सिब्बल ने जब कांग्रेस में ऊलजूलूल फैसले लिये जाने पर सवाल उठाया था तो निशाने पर उनके साथ साथ प्रियंका गांधी वाड्रा भी थीं - बाद में सोनिया गांधी ने सारी तोहमत अपने पर ले ली थी, लेकिन वो भी तो राजनीतिक बयान ही था. कांग्रेस की हकीकत से हर कोई वाकिफ तो है ही.

कांग्रेस को नया और गांधी परिवार से बाहर से अध्यक्ष मिलने की सूरत में भी बहुत कुछ बदलने की उम्मीद किसी को नहीं है - गुलाम नबी आजाद तो पहले से ही 'कठपुतली' करार दे चुके हैं और वो बहुतों के मन की बात ही लगती है.

3. कांग्रेस में तीन पावर सेंटर बन जाना: अस्थायी व्यवस्था ही सही, लेकिन कांग्रेस की कमान तो सोनिया गांधी के हाथ में ही मानी जाती है. प्रियंका गांधी तो कांग्रेस की महासचिव भी हैं, लेकिन राहुल गांधी?

वो तो बाकियों की तरह एक मामूली सांसद ही हैं, वायनाड से. फिर भी कांग्रेस में सबसे बड़े पावर सेंटर वही बने रहते हैं. राहुल गांधी के बाद दूसरे नंबर पर भी सोनिया गांधी नहीं बल्कि पंजाब चुनाव के समय से प्रियंका गांधी वाड्रा ही लगती है. क्योंकि तभी से भाई-बहन की जोड़ी को कांग्रेस के नये नेतृत्व के रूप में देखा जाने लगा है.

ऐसे देखें तो कांग्रेस में अघोषित तौर पर तीन तीन पावर सेंटर बन जाते हैं - राहुल गांधी, प्रियंका गांधी वाड्रा और सोनिया गांधी. जो नेता राहुल गांधी तक नहीं पहुंच पाते और सोनिया गांधी भी उनके लिए सुलभ नहीं हो पातीं, प्रियंका गांधी का ही आसरा रहता है.

अक्सर देखा गया है कि प्रियंका गांधी सुलभ भी हो जाती हैं - सचिन पायलट से लेकर नवजोत सिंह सिद्धू तो ऐसी मुलाकातों के मिसाल रहे ही हैं. बाद में प्रियंका गांधी भी राहुल गांधी और सोनिया गांधी तक पहुंचने का माध्यम बन जाती हैं.

अगर ये तीनों पावर सेंटर मिल जुल कर काम करते रहें तब भी कोई दिक्कत नहीं होती, लेकिन ऐसे मुद्दों पर जहां आम सहमति की जरूरत होती है - नतीजे हमेशा ही खतरनाक होते हैं.

4. जनता का भरोसा खो देना: भ्रष्टाचार के मुद्दे पर 2014 में सत्ता गंवाने वाली कांग्रेस अब तक ऐसे आरोपों से पूरी तरह उबर नहीं पायी है. ऊपर से राहुल गांधी और सोनिया गांधी का नेशनल हेराल्ड मनी लॉन्ड्रिंग केस में प्रवर्तन निदेशालय के फेरे में फंस जाना भी मुश्किलें खड़ा कर रहा है.

राहुल गांधी, सोनिया गांधी और कांग्रेस नेता लाख सफाई देते फिरें लेकिन लोग उनकी बातें अनसुना कर देते हैं - और उनके राजनीतिक विरोधियों की बातें मान लेते हैं. जब तक कांग्रेस ऐसी मुसीबतों से पार नहीं पा लेती, फजीहत खत्म होती नहीं लगती.

भ्रष्ट ही नहीं, कांग्रेस नेतृत्व को लेकर लोगों के मन में हिंदू विरोधी और पाकिस्तान परस्त वाली धारणा अंदर तक जगह बना चुकी है - नतीजा ये होता है कि ये सब एक पैकेज बन कर कांग्रेस को लोगों से काफी दूर कर देता है.

2014 के बाद से कांग्रेस ऐसी सारी बाधाओं से जूझते हुए लोगों का भरोसा फिर से हासिल करने की कोशिश कर रही है, लेकिन कांग्रेस के मौजूदा सेट अप में कुछ भी हासिल कर पाना असंभव सा हो जाता है.

5. PM की कुर्सी पर दावेदारी और गठबंधन से परहेज होना: विपक्षी खेमे में नीतीश कुमार की एंट्री के बाद से नये समीकरण बनने जरूर लगे हैं, लेकिन अब तक तो यही देखने को मिला है कि प्रधानमंत्री पद पर राहुल गांधी को लेकर रिजर्वेशन के चलते ही केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी को खुला मैदान मिल जा रहा है.

राहुल गांधी के तेवर से तो यही लगता है कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को सत्ता से उखाड़ फेंकना चाहते हैं, लेकिन ऐन उसी वक्त ऐसा भी लगता है जैसे वो खुद न खेल पाने की सूरत में बाकियों का खेल बिगाड़ देते हैं.

विपक्ष को एकजुट करने की हाल फिलहाल कई कोशिशें हुई हैं, लेकिन कांग्रेस ड्राइविंग सीट भी नहीं छोड़ पा रही है और मंजिल तक न तो खुद पहुंच पा रही है, न ही साथियों को पहुंचने दे रही है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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