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Updated: 03 फरवरी, 2023 12:54 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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भारत जोड़ो यात्रा (Bharat Jodo Yatra) पूरी हो चुकी है. कन्याकुमारी से कश्मीर तक. अब ये भी चर्चा चल रही है कि यात्रा का दूसरा चरण भी तय है. दूसरा चरण दो महीने बाद शुरू होगा या तीन महीने बाद, ये अभी नहीं तय है.

ऐसा भी नहीं है कि भारत जोड़ो यात्रा के खत्म हो जाने के बाद कांग्रेस हाथ पर हाथ धरे बैठी है. 26 जनवरी, 2023 से नयी यात्रा शुरू हुई है. हाथ से हाथ जोड़ो यात्रा. कांग्रेस नेता राहुल गांधी का जनता के नाम पत्र लेकर लोगों तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं.

भारत जोड़ो यात्रा के समापन से पहले राहुल गांधी ने ट्विटर पर लिखा भी है, 'भारत जोड़ो यात्रा मेरी जिंदगी का सबसे सुंदर और गहरा अनुभव है... ये अंत नहीं है, पहला कदम है... ये एक शुरुआत है!'

हाथ से हाथ जोड़ो यात्रा में जगह जगह रैली का कार्यक्रम है. राज्यों की राजधानियों में महिला यात्रा भी निकाली जाएगी - और महिला यात्रा का नेतृत्व कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा करेंगी. जाहिर है, यूपी चुनाव में नाकाम रहे महिला कार्ड को फिर से आजमाने की कोशिश होगी.

भारत जोड़ो यात्रा वो पहला टास्क है जिसे राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने आगाज से अंजाम तक पहुंचाया है. भारत यात्री बन कर कन्याकुमारी से कश्मीर तक बगैर छुट्टी लिये सफर पूरा करने के बाद तो शायद ही कोई ये कह पाये कि राहुल गांधी तो पार्ट टाइम पॉलिटिक्स ही करते हैं.

कांग्रेस अध्यक्ष न बनने की जिद पूरी कर चुके राहुल गांधी की मुख्यधारा, और सत्ता की राजनीति में दिलचस्पी अब भी पैदा हो पायी है या नहीं समझना मुश्किल है - लेकिन अपने प्रति एक आम धारणा को तो वो खत्म कर ही चुके हैं. ये धारणा कि वो राजनीति को लेकर गंभीर नहीं हैं. ये धारणा कि राहुल गांधी में नेतृत्व क्षमता नहीं है. पूरी यात्रा के दौरान राहुल गांधी डंके की चोट पर कहते रहे कि वो नेतृत्व नहीं कर रहे हैं - लेकिन देख कर तो ऐसा बिलकुल नहीं लगा.

जगह जगह प्रेस कांफ्रेंस कर अपनी बातें रखना. क्षेत्रीय दलों की विचारधारा को लेकर अपनी बात रखना और उस पर कायम रहना - और जब राजनीतिक विरोधियों की तरफ से कोई रिएक्शन आये तो अपने तरीके से काउंटर करना, आखिर ये सब क्या है?

लेकिन ऐसा भी नहीं है कि राहुल गांधी की किस्मत रातोंरात बदल गयी हो. सब कुछ अच्छा ही अच्छा नजर आने लगा हो. अगर राहुल गांधी ने विपक्षी खेमे के अरविंद केजरीवाल और केसीआर जैसे नेताओं से दूरी बनायी है, तो शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे नेताओं का भारत जोड़ो यात्रा के समापन समारोह से परहेज क्या कहलाता है?

राहुल गांधी पूरे रास्ते अपने मुद्दों पर बने रहे. संघ और बीजेपी के नफरत फैलाने के अपने इल्जाम को लेकर भी, और महाराष्ट्र पहुंच कर विनायक दामोदर सावरकर की माफी को लेकर भी - लेकिन लाल चौक पर तिरंगा फहराने को लेकर आखिर तक कन्फ्यूजन भी बनाये रखा था.

आखिर क्यों पंजाब में रवनीत सिंह बिट्टू और जम्मू-कश्मीर में रजनी पाटिल जैसे नेता अलग अलग बयान देते रहे? कठुआ रेप जैसे मामले में भी राहुल गांधी का स्टैंड समझ में नहीं आया. जिस कठुआ गैंगरेप को लेकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी इंडिया गेट पर कैंडल प्रोटेस्ट कर रहे थे, उसी घटना को लेकर विवादों में आये चौधरी लाल सिंह से राहुल गांधी के माफी मांगने का कोई तुक समझ में नहीं आया. गुलाम नबी आजाद से माफी मांगना घर की बात मानी जा सकती है.

और हां, जिस तरह से वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में चुनावी राज्यों के वोटर का खास ख्याल रखा है, अगर इसे भारत जोड़ो यात्रा का असर नहीं तो क्या समझा जाये?

भारत जोड़ो यात्रा में हाजिरी लगाने वाले कौन लोग थे?

भारत जोड़ो यात्रा की सारी तस्वीरें फोटोशॉप की हुई तो नहीं ही हो सकतीं. जगह जगह यात्रा में शामिल होने वाले सेलीब्रिटी का अपना तर्क हो सकता है, लेकिन वो भीड़ जो साथ साथ चल रही थी?

rahul gandhi, mallikarjun khargeश्रीनगर में तिरंगा फहराने को लेकर जैसा कंफ्यूजन दिखा, ऐसा होना राहुल गांधी के लिए घातक हो सकता है

आस पास चलने वालों के लिए राहुल गांधी आकर्षण के केंद्र हो सकते हैं, लेकिन जो भीड़ में बहुत पीछे पीछे चल रहे थे वे? वे कौन लोग थे? हर भीड़ वोट देने वाली नहीं होती. पोलिंग बूथ की लाइन और बाकी जगहों की कतारों में बुनियादी फर्क होता है.

बीजेपी और उसके समर्थकों की तरफ से दी जा रही ये दलील भी मान लेते हैं कि भारत जोड़ो यात्रा में आम लोग नहीं बल्कि कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता चल रहे थे - सवाल ये है कि कांग्रेस के पास अचानक से कार्यकर्ताओं की बाढ़ आयी कहां से?

कहते तो यहीं हैं कि कांग्रेस के पास पूरे देश में दफ्तर हैं, लेकिन लोग वहां तभी नजर आते हैं जब कोई प्रोग्राम होता है. लेकिन वो भी वैसी भीड़ नहीं होती जो भारत जोड़ो यात्रा में देखने को मिली है? क्या कांग्रेस ने पैसे देकर भीड़ इकट्ठा की होगी?

जो सेलीब्रिटी या समाज के अलग अलग वर्गों के लोग और बुद्धिजीवी शामिल हुए उनका अपना एजेंडा भी मान सकते हैं. निश्चित तौर पर ज्यादातर वे लोग ही नजर आये जिनका संघ और बीजेपी की विचारधारा से विरोध रहा है.

अगर राहुल गांधी ये सब देख कर समझने लगे हैं कि अकेले ही चले थे, और कारवां बनता गया तो ये सही आकलन नहीं होगा. शुरुआत बेशक इवेंट मैनेजमेंट से होती है, लेकिन टिकाऊ नहीं बिकाऊ ही होता है - अगर राहुल गांधी का वो ट्वीट जिसमें लिखा है कि अभी तो ये शुरुआत है, उनके मन की बात है तो ठीक है वरना अरमानों को लुढ़कते देर नहीं लगती.

क्षेत्रीय दलों का परहेज क्या इशारा करता है

सिर्फ बीजेपी ही नहीं, राहुल गांधी के प्रति विपक्षी खेमे के नेताओं का भी उनके प्रति रवैया बहुत नहीं बदला है - भारत जोड़ो यात्रा के दौरान तो ये लगा ही था, श्रीनगर में हुए समापन समारोह में ये तस्वीर ज्यादा साफ नजर आयी है.

भारत जोड़ो यात्रा शुरू होने से पहले भी और यात्रा जारी रहने के दौरान भी, कांग्रेस की तरफ से विपक्षी खेमे के राजनीतिक दलों के नेताओं को बुलाया जाता रहा. शुरू से ही राहुल गांधी को सपोर्ट करने वाले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने दिल्ली में यात्रा के दाखिल होते वक्त अपनी बहन और डीएमके सांसद कनिमोड़ी को भी भेजा था.

वैसे ही महाराष्ट्र में आदित्य ठाकरे के यात्रा में शामिल होने के बाद भी उद्धव ठाकरे ने संजय राउत को आखिरी चरण में भी राहुल गांधी का सपोर्ट करने के लिए भेजा था.

आम आदमी पार्टी और भारत राष्ट्र समिति को तो राहुल गांधी ने बुलाया ही नहीं था, ममता बनर्जी की भी बहुत कम ही संभावना थी. हो सकता है नीतीश कुमार और अखिलेश यादव के चलते तेजस्वी यादव ने भी दूरी बना ली हो.

लेकिन सबसे ज्यादा हैरानी हुई भारत जोड़ो यात्रा के समापन समारोह में एनसीपी नेता शरद पवार या उनके किसी प्रतिनिधि की गैरमौजूदगी से. वो भी तब जबकि महाराष्ट्र में राहुल गांधी के साथ एक दिन सुप्रिया सुले ने मार्च भी किया था. सीपीआई नेता डी. राजा ने तो हिस्सा लिया, लेकिन सीपीएम नेता सीताराम येचुरी के दूरी बना लेने की वजह बहुत समझ में नहीं आ रही है. हो सकता है, राहुल गांधी के केरल में काफी दिनों तक यात्रा करने से हुई नाराजगी दूर न हो पायी हो.

भारत जोड़ो यात्रा के मंच से डी. राजा ने सभी सेक्युलर दलों को साथ आने की अपील की, जबकि नेशनल कांफ्रेंस नेता फारूक अब्दुल्ला ने राहुल गांधी को कन्याकुमारी से कश्मीर के बाद पश्चिम से पूर्व तक ऐसी ही यात्रा करने की सलाह दी. लगे हाथ ये भी प्रॉमिस किया कि ऐसा हुआ तो वो भी राहुल गांधी के साथ साथ पदयात्रा करेंगे. कांग्रेस की तरफ से भी बताया गया है कि ऐसी योजना पर काम चल रहा है.

अब एक सवाल स्वाभाविक तौर पर उठता है कि आखिर क्षेत्रीय दलों को राहुल गांधी की यात्रा से परहेज क्यों है? क्या इसलिए कि उनको लगता है कि कांग्रेस ने उनके इलाकों में घुसपैठ की और भारत जोड़ो यात्रा जैसा ही प्रभाव रहा तो उनको भारी नुकसान हो सकता है?

चुनावी बजट की जरूरत क्यों पड़ी?

राहुल गांधी की खिल्ली उड़ाना बीजेपी नेताओं के लिए आम बात है. बिलकुल वैसा ही रिएक्शन भारत जोड़ो यात्रा को लेकर भी रहा. खासकर यात्रा की शुरुआत में. कहने को तो कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ भी अपनी रैली में लोगों को समझा रहे थे कि भारत जोड़ो यात्रा में कोई खास भीड़ नहीं हो रही है - बीजेपी का तो हक भी बनता है और पहले वो भी यही बात बार बार समझाती रही.

लेकिन एक दिन अचानक ही केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने राहुल गांधी को कोविड के चलते यात्रा रोक देने की सलाह देकर सब कुछ साफ कर दिया. उससे पहले बीजेपी की तरफ से राहुल गांधी की टीशर्ट की कीमत को लेकर विवाद पैदा किया गया, लेकिन राहुल गांधी ने भी उसे मोदी स्टाइल में ही न्यूट्रलाइज भी कर दिया. पूरी यात्रा के दौरान राहुल गांधी टीशर्ट में ही घूमते रहे. दिल्ली की सर्दी से लेकर कश्मीर की ठंडी बयार तक.

एक बार बारिश होने पर राहुल गांधी ने कुछ देर के लिए रेन कोट पहना था, बीजेपी की तरफ से प्रचारित किया जाने लगा कि राहुल गांधी ने जैकेट पहन ही लिया, लेकिन ज्यादा देर तक ये कैंपेन टिक नहीं सका. बर्फबारी के बीच राहुल गांधी ने कश्मीर का पारंपरिक पोशाक भी पहना था.

सिर्फ 2024 के आम चुनाव ही नहीं, 2023 में नौ राज्यों के लिए हो रहे विधानसभा चुनाव को लेकर अभी तक बीजेपी के सामने कोई खास चैलेंज महसूस नहीं किया जा रहा है. निश्चित तौर पर चुनौतियां त्रिपुरा में भी हैं और मध्य प्रदेश में भी - लेकिन ये भी तो है कि राजस्थान जैसा ही मौका बीजेपी को तेलंगाना में भी मिल रहा है.

अब अगर बीजेपी भी अंदर से ऐसे ही बेफिक्र है तो चुनावी राज्यों के लिए बजट में खास घोषणाओं की क्यों जरूरत पड़ी? क्या सिर्फ नॉर्थ-ईस्ट के राज्यों को ही केंद्र सरकार की तरफ से पैकेज की जरूरत थी? क्या ये इसलिए नहीं क्योंकि त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में चुनाव हो रहे हैं.

और वैसे ही कर्नाटक को लेकर 5300 करोड़ रुपये के स्पेशल पैकेज की घोषणा क्यों की गयी? सिर्फ इसीलिए न कि कर्नाटक में कुछ ही दिनों में विधानसभा के लिए चुनाव होने जा रहे हैं!

आदिवासी वोटर पर मेहरबानी भी तो इसीलिए मालूम पड़ती है क्योंकि त्रिपुरा से लेकर मध्य प्रदेश तक इसी साल चुनाव होने हैं. महिलाओं के लिए कल्याणकारी योजनाएं और किसानों की नाराजगी दूर करने की कवायद की क्या जरूरत थी? गरीबों के लिए मुफ्त राशन की घोषणा तो पहले ही हो चुकी थी, उसके खास तौर पर जिक्र किये जाने को भला कैसे समझा जाये?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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