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Updated: 18 नवम्बर, 2019 08:20 PM
प्रभाष कुमार दत्ता
प्रभाष कुमार दत्ता
  @PrabhashKDutta
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यही अपेक्षा भी थी और यही तार्किक भी है कि सुप्रीम कोर्ट में उसके फैसले पर दोबारा विचार करने के लिए याचिका (Ayodhya Review Petition) डाली जाए. आपको बता दें कि सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने अयोध्या के बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद मामले (Babri Masjid-Ram Janmbhoomi Dispute) में फैसला रामलला (Ram Mandir Verdict) के हक में सुनाया है और वह जगह भी रामलला की जन्मभूमि ही मानी जाती है. अब ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) ने फैसला किया है कि वह सुप्रीम कोर्ट में एक रिव्यू याचिका डालेगा. वैसे तो अभी ये याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर करना बाकी है और इसमें क्या होगा, ये भी अभी तक सबको पता नहीं है, लेकिन AIMPLB की ओर से आए बयानों के आधार पर दो हैरान करने वाली बातें सामने आ रही हैं. पहली है इस्लामिक कानून को माने जाने की बात और दूसरी है मुस्लिम पक्ष को मिलने वाले मुआवजे को नकारने की बात, वो मुआवजा जो अब तक मिला नहीं है.

Ayodhya Review Petitionरविवार को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुन्नी वक्फ बोर्ड को मिलने वाली जमीन को रिजेक्ट कर दिया.

अयोध्या केस में शरिया कानून?

AIMPLB के सेक्रेटरी जफरयाब जिलानी ने रविवार को लखनऊ में बोर्ड की मीटिंग के बाद कहा कि मस्जिद की वह जमीन अल्लाह की है और शरिया के तहत आती है, जिसे किसी को भी दिया नहीं जा सकता है. हालांकि, आयोध्या के मामले की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने इस्लाम के तहत की जाने वाली धार्मिक प्रैक्टिस को भी जगह दी थी, लेकिन यह नहीं कहा कि इस केस का फैसला सुनाने का आधार इस्लामिक लॉ या शरिया कानून है. कुछ पक्षों ने तो इस्लामिक देशों के ऐसे उदाहरण भी दिए, जहां डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्स के लिए मस्जिदों को गिराया गया या शिफ्ट किया गया.

बहस इस बात की है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला शरिया कानून के तहत नहीं है. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के वकील अतुल कुमार कहते हैं कि इस्लामिक लॉ भारत के संविधान या संवैधानिक कानून से ऊपर नहीं है. इस्माइल फारूकी केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्टा इस केस में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि मुस्लिमों के लिए धार्मिक गतिविधियों के लिए मस्जिद बेहद अहम है. इस्लामिक लॉ के अनुसार उसी तरह की दूसरी मस्जिद कहीं और बनाने की इजाजत नहीं है. 1994 के इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि मस्जिद इस्लाम का अहम हिस्सा नहीं हैं. 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले का रिव्यू करते हुए 25 साल पुराने फैसले को ही लागू रखा.

मुस्लिम पक्ष को मिली 5 एकड़ जमीन

अयोध्या मामले में मुस्लिम बोर्ड कोई पार्टी नहीं था. यह अयोध्या मामले की सुनवाई के दौरान एक ऑर्गेनाइजर की भूमिका में था. जमात-ए-उलेमा-ए-हिंद इस मामले में एक पार्टी था, जिसका दावा सुप्रीम कोर्ट ने 9 नवंबर के फैसले में खारिज कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या केस के अपने फैसले में संविधान की धारा 142 के तहत स्पेशल पावर का इस्तेमाल किया है, जिसमें कोर्ट ने मामले के एक पक्ष सुन्नी वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ जमीन देने का फैसला किया है, जो विवादित जमीन से करीब दोगुनी है. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करते हुए सालों से चले आ रहे हिंदु-मुस्लिम विवाद को सुलझाने की कोशिश की है. सुन्नी वक्फ बोर्ड ने फैसला किया था कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ रिव्यू याचिका नहीं डालेगा. बोर्ड ने कहा था कि भले ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मुस्लिम पक्ष को संतुष्ट नहीं किया है, लेकिन इससे ये मामला अब खत्म हो गया है.

उस जमीन को रिजेक्ट कर दिया, जो मिली ही नहीं

रविवार को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुन्नी वक्फ बोर्ड को मिलने वाली जमीन को रिजेक्ट कर दिया. बोर्ड ने मुस्लिम समुदाय की ओर से कहा कि हम जमीन लेने से इनकार करते हैं. हम ये भी उम्मीद करते हैं कि सुन्नी वक्फ बोर्ड मुस्लिम समुदाय की इस मांग को तवज्जो देगा. अब सवाल ये है कि क्या मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड या जमात-ए-उलेमा-ए-हिंद जमीन को लेने से मना कर सकता है, जबकि वह केस का पक्षकार ही नहीं है? सुप्रीम कोर्ट के वकील अतुल कुमार कहते हैं कि मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ऐसा नहीं कर सकता है, क्योंकि वह सुप्रीम कोर्ट में चल रहे अयोध्या केस में एक पार्टी नहीं था. जब तक आप एक पार्टी नहीं हैं, तब तक आप रिव्यू पिटिशन फाइल नहीं कर सकते हैं.

अयोध्या रिव्यू पिटिशन की पेंचीदगियां

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से दी जाने वाली रिव्यू याचिका का केस इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले बोर्ड की उस याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें वह अयोध्या मामले में खुद को शामिल करना चाहता था. बोर्ड का दावा था कि वह भी इस मामले से प्रभावित एक पक्ष है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट पहले से उनकी याचिका को खारिज कर चुका है, जो बोर्ड के केस को कमजोर करता है. जो किसी मामले में पक्षकार नहीं है, उसे रिव्यू याचिका देने से पहले खुद को मामले का पक्षकार बनाने ने के लिए याचिका देनी होती है. जमात-ए-उलेमा-ए-हिंद की रिव्यू याचिका पर सुनवाई होने के अधिक चांस थे. लेकिन जमात के प्रमुथ मौलाना अरशद मदनी ने इस मामले में रिव्यू याचिका दाखिल करने की बात करते हुए कहा कि उन्हें नहीं लगता इससे सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कोई असर पड़ेगा.

रिव्यू याचिका को उन्हें जजों की बेंच सुनती है, जिन्होंने फैसला दिया होता है. अयोध्या मामले में इस बेंच के प्रमुख थे रंजन गोगोई, जो रिटायर हो चुके हैं. अब नए सीजेआई शरद अरविंद बोबडे सुप्रीम कोर्ट के किसी अन्य जज को इस बेंच में शामिल करने के लिए नामित करेंगे. इस रिव्यू याचिका को पहले जजों को चैंबर में सुना जाएगा. सुनवाई के बाद सभी पांचों जज साथ बैठेंगे और केस पर सलाह-मशवरा करेंगे. अगर जजों को लगेगा कि सब सही है तो वह नोटिस जारी कर सकते हैं और सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटिशन को रजिस्टर करने के निर्देश देंगे. बता दें कि रिव्यू पिटिशन बहुत ही कम मामलों में सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार किए जाते हैं. रिव्यू पिटिशन के असफल प्रयास के बाद इससे प्रभावित पार्टी क्यूरेटिव पिटिशन दाखिल कर सकती है, वह एक जटिल प्रक्रिया है.

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लेखक

प्रभाष कुमार दत्ता प्रभाष कुमार दत्ता @prabhashkdutta

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में असिस्टेंट एडीटर हैं.

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