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Updated: 25 दिसम्बर, 2021 02:22 PM
अशोक उपाध्याय
अशोक उपाध्याय
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यह बात 1993 की है उन दिनों अटल बिहारी वाजपेई लोक सभा में विपक्ष के नेता हुआ करते थे. उनका निवास रायसीना रोड पर था. मैं उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाई कर रहा था. साथ ही साथ संघ लोक सेवा आयोग यानी UPSC के परीक्षा की तैयारी भी कर रहा था. इस परीक्षा के लिए मैंने जिन दो विषयों का चयन किया था वो थे इतिहास एवं पाली. UPSC ने अचानक, एक समिति की सिफारिश पर, तीन विषयों- पाली, पारसी एवं अरबी को अपनी परीक्षा के सूची से हटा दिया. मेरे जैसे अनेक छात्र, जो वर्षों से इस विषय को पढ़ रहे थे, परेशान हो गए. हमने एक दो-तीन पन्नों का ज्ञापन बनवाया एवं घूम-घूम कर हर सांसद को देने लगे.

इसी क्रम में हम आठ-दस लोग करीब नौ-दस बजे सुबह ही वाजपेयी जी के रायसीना रोड स्थित निवास पर पहुंच गए. हमने कोई अपॉइंटमेंट भी नहीं लिया था. उन दिनों सुरक्षा का कोई खास तामझाम नहीं होता था. उनके घर का गेट खुला हुआ था. हम कैंपस के अंदर चले गए. उनके घर के ठीक सामने एक व्यक्ति लॉन में बैठे हुए अखबार पढ़ रहे थे. बड़ी-बड़ी मूछों एवं लम्बी कद काठी वाले वो उनके करीबी शिव कुमार शर्मा थे. हमने जब उनको बताया कि हम दिल्ली विश्वविद्यालय से आये हैं एवं वाजपेयी जी से मिलना चाहते हैं, तो उन्होंने हमें थोड़ा इंतजार करने को कहा. इंतजार लम्बा होता जा रहा था. शिव कुमार शर्मा अखबारों में खोए हुए थे. हमें लग रहा था कि शायद शिव कुमार शर्मा ने ऐसे ही बोल दिया है एवं वाजपेयी जी से मुलाकात नहीं हो पायेगी.

atal bihari vajpayeबड़े हंसमुख

करीब आधे घंटे के बाद हमने देखा कि वाजपेयी जी अपने घर से बरामदे में आए एवं शिव कुमार शर्मा जी से हमारे बारे में पूछा. फिर उन्होंने हंसते हुए हम सबों को कहा- "आओ-आओ. हम ड्राइंग रूम में आराम से बैठ के बात करते हैं". हम सभी खुश होकर उनके पीछे-पीछे ड्राइंग रूम में जाकर बैठ गए. हम में से किसी एक ने ज्ञापन की एक प्रति वाजपयी जी को सौंप दी. उन्होंने हंसते हुए कहा कि तुम लोग थोक में इसको छपवा के बांटते चल रहे हो. पर अन्य नेताओं से अलग, जो कि इसको पढ़ने की भी जरुरत नहीं समझते थे, उन्होंने चश्मा लगाकर अक्षरसः पढ़ना प्रारम्भ कर दिया.

दो चार-लाइन पढ़ने के बाद ही उन्होंने हमें छेड़ा और कहा कि "तुम लोग पाली क्यों पढ़ते हो? संस्कृत क्यों नहीं?" फिर एक जोरदर ठहाका लगार, बिना हमारे जवाब का इंतजार किये, आगे पढ़ने लगे. हमारे ज्ञापन में लिखा हुआ था कि पाली भाषा क्यों हमारे लिए बहुत जरुरी है. क्योंकि इसमें नैतिकता है, दर्शन है, भारतीय मूल्य हैं, जो हमारे दैनिक जीवन में बहुत ही जरुरी हैं. ये पढ़ते ही अटल जी रुक गए. उन्होंने हम लोगों से पूछा "दैनिक जीवन से इन चीजों का क्या लेना देना है? इसे इस ज्ञापन से हटाओ?" हमारे एक साथी ने जब ज्ञापन में लिखे शब्दों जैसे नैतिकता, दर्शन एवं मूल्यों को फिर से दोहराया तो उन्होंने कहा "अरे भाई इन चीजों का दैनिक जीवन से क्या लेना देना है. दैनिक जीवन का तो मतलब होता है नमक, तेल, हल्दी, धनियां से". ये कहकर उन्होंने एक बार फिर से एक जोरदर ठहाका लगाया.

एक दो पैराग्राफ़ पढ़ने के बाद वो फिर रुके और पूछा कि "तुम लोग पाली पढ़ते हो, बताओ भगवान बुद्ध ने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय किस परिपेक्ष्य में बोला था". मैंने जब उनको बताने का प्रयास किया तो वो बोले "तुमको कुछ भी नहीं पता? बुद्ध ने बहुजन हिताय बहुजन सुखाय बहुजन समाज पार्टी के लिए बोला था"! यह कहकर उन्होंने फिर से एक जोरदार ठहाका लगाया. हम लोग भी हंसने लगे. अब तक वो हमलोगों का दिल जीत चुके थे.

पूरा ज्ञापन पढ़ने का बाद वो बोले, "तुम लोग हर सांसद के पास जा ही रहे हो तो हर किसी से हस्ताक्षर करवा के एक ज्ञापन प्रधान मंत्री को दो. ये ज्यादा असरदार होगा." अब तक हमें लगने लगा था कि वो सचमुच हमरी मदद करना चाहते हैं. मैंने कहा कि क्यों न श्रीगणेश आप से ही कर दें? तो उन्होंने कहा "मुझे कोई आपत्ति नहीं है. पर मेरे हस्ताक्षर के बाद कोई कांग्रेसी या वामपंथी सांसद हस्ताक्षर करने में हिचकेगा. तुम लोग पहले उनसे हस्ताक्षर करवा लो मैं उनके बाद में कर दूंगा".

हम सभी उनकी बात से सहमत होकर ड्राइंग रूम से बाहर निकलने लगे. तभी उन्होंने कहा, "अरे रुको, तुम लोग दीवाली के बाद आए हो. बिना मिठाई खाए कैसे जाओगे". हम और प्रसन्न होकर पुनः ड्राइंग रूम में जा बैठे. थोड़ी देर बाद वाजपयी जी एक थाली मिठाई लेकर खुद ड्राइंग रूम में आए और कहा कि लो खाओ. हम में से किसी ने थाली उनके हांथों से लेकर कहा कि पहले आप खाएं. उन्होंने हमारे प्रस्ताव को स्वीकार कर के खाना प्रारम्भ कर दिया और पूछा "अच्छा बताओ, ये कौन सी मिठाई है?" किसी ने कहा कलाकंद. मिठाई खाते हुए वाजपेयी जी ने कहा कि "बिलकुल नहीं. मुझे पता है कि आजकल बंगाली मिठायों का बोल-बाला है पर ये राजस्थानी मिठाई है एवं इसका नाम है..." उनके जेहन में उस मिठाई का नाम नहीं आ रहा था. उन्होंने फिर हंसते हुए कहा कि "छोडो, नाम से क्या मतलब है. खाओ. बचना नहीं चाहिए". मिनटों में हम पूरी थाली की मिठाई चट कर गए. किसी ने उनसे कहा कि "सर ये तो ख़त्म हो गया. और है क्या?". उन्होंने फिर से चुटकी ली एवं कहा कि "अरे! तुम लोग सब खा गए" यह कहते हुए वो थाली लेकर चले गए एवं पुनः थोड़ी सी मिठाई लेकर आए और बोले "लो खा लो. फिर से मत मांगना. अब नहीं है." हमें लग रहा था कि हम उनको कितने सालों से जानते हैं. फटाफट थाली साफ हो गई. हम सब के सब मिठाई खा कर हंसते हुए उनके घर से निकल गए.

पाली फिर से UPSC के सिलबस में आ गया पर मैं इस परीक्षा को पास नहीं कर पाया. आजीविका के लिए पत्रकारिता का माध्यम चुना. इस दौरान कई नेताओं से मिलने का एवं उनको जानने का मौका मिला. पर किसी अनजान व्यक्ति से इस आत्मीयता से बात करके उनका दिल जीतने वाला नेता मुझे आज तक नहीं मिला.

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लेखक

अशोक उपाध्याय अशोक उपाध्याय @ashok.upadhyay.12

लेखक इंडिया टुडे चैनल में एडिटर हैं.

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