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Updated: 01 जुलाई, 2021 02:04 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) की सियासत में AIMIM चीफ असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) की एंट्री ने राज्य का सियासी पारा सातवें आसमान पर पहुंचा दिया है. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 (UP assembly elections 2022) से पहले सपा की छोटे दलों के साथ गठबंधन बनाने की कवायद को 'भागीदारी संकल्प मोर्चा' बनाकर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर (Om Prakash Rajbhar) पहले ही झटका दे चुके हैं. वहीं, छोटी पार्टियों का गठजोड़ कर बनाए गए इस 'भागीदारी संकल्प मोर्चा' में असदुद्दीन ओवैसी के जुड़ जाने से यूपी में जाति-वर्ग और धर्म विशेष की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों में खलबली सी मच गई है.

दरअसल, भागीदारी संकल्प मोर्चा में अलग-अलग जाति विशेषों की राजनीति करने वाले छोटे दल शामिल हैं. इस मोर्चा में असदुद्दीन ओवैसी के आने से मुस्लिम वोटबैंक में भी सेंध लगने की संभावना बढ़ गई है. असदुद्दीन ओवैसी घोषणा कर चुके हैं कि उनकी पार्टी उत्तर प्रदेश की 100 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. कयास लगाए जा रहे हैं कि इनमें ज्यादातर सीटें मुस्लिम बहुल या मुस्लिम मतदाताओं के प्रभाव वाली हो सकती हैं. AIMIM के प्रदेश अध्यक्ष शौकत अली ने 'आजतक' से बातचीत में दावा किया है कि पार्टी ने विधानसभा सीटें चिन्हित भी कर ली हैं. फिलहाल इस गठबंधन को देखकर कहा जा सकता है कि यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में सूबे की जनता के सामने एक और राजनीतिक विकल्प खुल गया है. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि यूपी की सियासत में AIMIM की एंट्री का कितना असर होगा?

असदुद्दीन ओवैसी ने जिन राज्यों में चुनाव लड़ा, वहां उनकी पसंद मुस्लिम बहुल सीटें रहीं. असदुद्दीन ओवैसी ने जिन राज्यों में चुनाव लड़ा, वहां उनकी पसंद मुस्लिम बहुल सीटें रहीं.

असदुद्दीन ओवैसी की मुस्लिम समर्थक छवि

देश का तकरीबन हर सियासी दल (एनडीए से बाहर के) असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM को दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल की AAP की तरह ही भाजपा की 'बी' टीम होने के आरोप लगाते रहे हैं. दरअसल, एआईएमआईएम पर लगने वाले इस आरोप पर काफी हद तक वो खुद ही मुहर लगाते रहते हैं. दरअसल, अविभाजित आंध्र प्रदेश में हैदराबाद की लोकसभा सीट तक सीमित एआईएमआईएम अलग तेलंगाना राज्य बनने पर यहां की सात विधानसभा सीटों पर लगातार तीन बार से जीत हासिल करती चली आ रही है. 2014 के बाद मुस्लिम समुदाय की राजनीति करने वाले इस दल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ी और इसने अन्य राज्यों में अपने पैर पसारने शुरू कर दिए हैं. महाराष्ट्र और बिहार में पार्टी ने मुस्लिम मतदाताओं के प्रभाव वाली सीटों पर जीत दर्ज की.

ओवैसी ने जिन राज्यों में चुनाव लड़ा, वहां उनकी पसंद मुस्लिम बहुल सीटें रहीं. जिसकी वजह से मुस्लिम समुदाय को 'वोटबैंक' मानने वाली राजनीतिक पार्टियों का खेल खराब होने लगा. जिसकी वजह से उन पर 'बी' टीम के आरोप लगते रहे. उत्तर प्रदेश में पैर जमाने की कोशिशों में जुटी AIMIM का विजन पहले से ही साफ हो चुका है. वहीं, संवैधानिक अधिकारों के जरिये शरीयत की वकालत करने वाले असदुद्दीन ओवैसी देशभर में मुस्लिम युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं. मुस्लिमों के अधिकारों पर ओवैसी के भाषण सोशल मीडिया पर धड़ाधड़ शेयर होते हैं. तेलंगाना से बाहर एआईएमआईएम ने जिन भी राज्यों में चुनाव लड़ने का मन बनाया, वहां उसे कुछ न कुछ मिला ही है. पश्चिम बंगाल में जीत भले न मिली हो, लेकिन मीडिया के जरिये देश भर में पार्टी का प्रचार तो हुआ ही.

पश्चिम बंगाल और यूपी में क्या है अंतर?

बिहार विधानसभा चुनाव में 5 सीटें जीतने के बाद एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने पश्चिम बंगाल का रुख किया था. वो बात अलग है कि बंगाल को समझने में ओवैसी मात खा गए. वैसे, मात खाने वालों में ओवैसी अकेले नहीं थे. उनके साथ कांग्रेस, वामदल, अब्बास सिद्दीकी की आईएसएफ और भाजपा भी शामिल थे. पश्चिम बंगाल में हार AIMIM के लिए उतना बड़ा झटका नहीं थी, जितना भाजपा को मिला. पश्चिम बंगाल में तमाम दलबदलुओं और पूरे लाव-लश्कर के बावजूद भाजपा कोई कमाल नहीं दिखा पाई. वहीं, असदुद्दीन ओवैसी का अब्बास सिद्दीकी की आईएसएफ के साथ गठबंधन ही नहीं जम पाया.

वैसे, बिहार की 5 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल करने वाले ओवैसी ने राज्य में बसपा से हाथ मिलाया था. ओवैसी के साथ गठबंधन से बसपा को कोई खास फायदा नहीं हुआ. लेकिन, एआईेमआईएम ने कमाल कर दिया था. यूपी में भी बसपा के साथ गठबंधन की खोज में निकले असदुद्दीन ओवैसी को पार्टी सुप्रीमो मायावती ने ही 'अफवाह' बना डाला. लेकिन, गठबंधन की ताकत को जानने वाले ओवैसी ने ओमप्रकाश राजभर के मोर्चा में भागीदारी का संकल्प ले लिया. भागीदारी संकल्प मोर्चा में जगह मिलने का बड़ा कारण मोर्चा में किसी मुस्लिम नेता का न होना भी बताया जा रहा है.

पश्चिम बंगाल में एंट्री के साथ ही असदुद्दीन ओवैसी सबसे पहले अब्बास सिद्दीकी से मिलने पहुंचे थे. बंगाल के मुसलमानों से जुड़ने के लिए ओवैसी को जो गठबंधन चाहिए था, वो हो नहीं सका. दरअसल, ओवैसी खुद सिद्दीकी के वोटबैंक में सेंध लगा रहे थे, तो गठबंधन पर बात नहीं जमी. अन्य किसी दल ने भी हाथ पकड़ने से इनकार कर दिया, तो एआईएमआईएम ने खुद ही कम सीटों पर चुनाव लड़ा और हार के बड़े धब्बे से बच गई. वहीं, जाति और धर्म की राजनीति के लिए मशहूर उत्तर प्रदेश में भागीदारी संकल्प मोर्चा के सहारे असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को कमजोर ही सही एक कंधा तो मिल ही चुका है.

वैसे भी उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम के पास खोने के लिए कुछ खास है नही. 2017 के विधानसभा चुनाव में भी पार्टी ने 38 सीटों पर चुनाव लड़कर 'शून्य' हासिल किया था. AIMIM को कुल 205,232 वोट मिले थे. वोट फीसदी 0.2 था, तो इसके हिसाब से ये आंकड़े छोटे साबित हो सकते हैं. लेकिन, अंकगणित केवल प्रतिशत निकालना ही नहीं सिखाती है. दो लाख से कुछ ज्यादा वोट पाने वाली AIMIM के वोटों के 38 सीटों की संख्या से भाग देने पर पता चलता है कि पार्टी को हर सीट पर करीब 5400 वोट मिले थे. उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर हार-जीत का अंतर इससे भी कम रहता है.

यूपी विधानसभा चुनाव 2022 तक अगर भागीदारी संकल्प मोर्चा के साथ एआईएमआईएम का गठबंधन बना रहता है, तो निश्चित तौर पर सपा, कांग्रेस और बसपा के 'वोटबैंक' पर डाका पड़ सकता है. 100 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कहकर ओवैसी स्पष्ट कर चुके हैं कि इन सीटों पर तो वोटों में सेंधमारी वो करेंगे ही. अब इससे किसको नुकसान कम या ज्यादा होगा, वो राजनीतिक दल चाहें तो हिसाब लगाकर AIMIM के साथ गठबंधन कर सकते हैं. वैसे, उत्तर प्रदेश में नवनिर्मित भागीदारी संकल्प मोर्चा 'प्रेशर पॉलिटिक्स' का दूसरा रूप ही नजर आता है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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