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Updated: 16 सितम्बर, 2018 11:58 AM
अरिंदम डे
अरिंदम डे
  @arindam.de.54
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राजस्थान में भाजपा अध्यक्ष ने जो कुछ भी कहा, उसमें आप अहंकार के संकेत देख सकते हैं या ये आत्मविश्वास कि चाहे कुछ भी हो जाये 2019 में उन्हें ही जीत हासिल होगी. उन्होंने कहा कि अखलाक की मौत पर बवाल मचा, पुरस्कार वापस किए गए फिर भी भाजपा जीती. उन्हें भरोसा है कि विपक्ष की रणनीति चाहे जो हो, बीजेपी 2019 में जीत जाएगी. इस भाषण से पार्टी के कार्यकर्ताओं में जोश जरूर आया होगा लेकिन क्या इसमें कहीं कोई डर भी छुपा हुआ था?

क्या भाजपा 2019 का मैदान मार लेगी? क्या यह जीत इतनी आसान होगी? यह बहस का मुद्दा है और अभी इन सवालों के जवाब दे पाना बहुत मुश्किल है. लोकतंत्र में, मतदाता की मनोदशा और वोटिंग बिहेवियर बदलता रहता है. कोई भी भविष्यवाणी हो, वो जोखिमों से भरी होगी. कई विशेषज्ञ भी शायद इस बात से सहमत होंगे. वैसे भी चुनाव अभी दूर है. एक बात तो है कि, आज भी इस देश में चुनाव 'विभाजन और शासन' की विचारधारा से ही लड़ा जाता है. कांग्रेस अपने तरीके से ध्रुवीकरण करती थी आज दूसरे तरीके से ध्रुवीकरण की कोशिश की जा रही है. और आनेवाले समय में भी यह होता रहेगा क्योंकि लोकतंत्र बहुमत की तानाशाही है.

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भाजपा अध्यक्ष ने जो कुछ भी कहा है वह कोई पहली बार नहीं कहा गया है. यह फिलहाल चालू नैरेटिव का ही एक हिस्सा है. इस नैरेटिव के साथ परेशानी यह है कि- अगर आप किसी का नाम ले लेते हैं तो वह सिर्फ एक आदमी नहीं रह जाता. उनकी व्यक्तिगत पहचान से अलग, एक प्रतिनिधि पहचान बन जाती है. उन सबका जो पीड़ित हो शोषित हो, 'इनकार' जिनके जीवन में एक शब्द नहीं रोज़ सामने आने वाली हकीकत है. समाज में, गांवों में, स्कूलों, कॉलेजों में, अपने कार्यस्थलों में इस इनकार से वह रोज़ मुखातिब होते हैं. स्मार्टफोन और सस्ती नेट कनेक्टिविटी के सौजन्य से जैसे-जैसे शिक्षा और जागरूकता फैली है, वैसे-वैसे नई पीढ़ी का उम्मीदें बदल गयी हैं. रोटी कपड़ा और मकान से अलग वह सम्मान और समानता को भी अहमियत देने लगा है.

जाति, आरक्षण की स्थिति, राजनीतिक विचारधारा, या धर्म बांटने के हज़ारों तरीके हैं. जोड़ने का क्या है? जनता समस्याओं से जूझ रही है चाहे किसान हो या मध्यम वर्ग. किसान अपनी बात कहने दिल्ली तक पहुंच गए हैं, मध्यम वर्ग रोज़ उछलते तेल की कीमत से परेशान है, डेवलपमेंट है पर उतनी नौकरियां नहीं हैं. वैसे जिस लहजे पर चुनावी घोषणाएं होती हैं उसे किसी भी सरकार के लिए पांच सालों में पूरा कर पाना लगभग नामुमकिन ही होता है.

सोशल मीडिया के ज़माने में चुनाव परसेप्शन का खेल बन गया है. काम हुआ है या नहीं हुआ इससे ज़्यादा सरकार की छवि अहमियत रखती है. यह हिंसा यह बंटवारा- धर्म बनाम जाति की लड़ाई - इससे छवि ख़राब होती है और कोई अगर इस चीज़ को सही ठहराना चाहता है तो हो सकता है कि उसकी राजनीतिक कीमत उसे चुकानी पड़े.

आजकल लगता है कि हर राजनीतिक दल एकदूसरे पर दोषारोपण करना ज्यादा जरूरी समझते हैं. जनता के लिए उनके पास कोई ठोस योजना नहीं है. आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से इत्तर अगर कोई पार्टी यह भी कहने का कष्ट करे कि उनकी नीतियां क्या होंगी तो यह शायद जनता में कुछ उम्मीदें जगा सकता है.

विचारधाराओं का विरोध राजनीति में कोई नई बात नहीं है लेकिन हर विरोध के लिए एक जगह होनी चाहिए. जैसे कि सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है. विरोध के लिए जगह नहीं होगी तो विपक्ष को मुद्दा मिल जाता है. समय आ गया है कि तोड़ने की राजनीति का त्याग कर जोड़ने का प्रयास किया जाए. साम्प्रदायिकता का यह जिन्न जितनी देर बोतल में बंद रहे उतना ही अच्छा है और अगर वो बाहर आ गया तो मामला बिगड़ जाएगा.

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अरिंदम डे अरिंदम डे @arindam.de.54

लेखक आजतक में पत्रकार हैं

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