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Updated: 01 जुलाई, 2016 07:45 PM
डा. दिलीप अग्निहोत्री
डा. दिलीप अग्निहोत्री
  @dileep.agnihotry
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किसी भी मंत्रिपरिषद में प्रायः दो प्रकार से बदलाव होते हैं. एक बदलाव प्रत्यक्ष होता है. इसमें बाकायदा शपथ ग्रहण समारोह होता है. इसके अलावा किसी मंत्री को बर्खास्त करना या इस्तीफा मांगना विभाग बदलना भी इसी श्रेणी में शुमार होता है. दूसरा बदलाव अप्रत्यक्ष होता है. इसमें किसी प्रकार का औपचारिक समारोह या प्रक्रिया का पालन नहीं होता, फिर भी हालात किसी दिग्गज मंत्री की हनक कम कर देते, किसी का रुतबा बढ़ा देते हैं, या पुनः यथास्थिति भी ला देते हैं.

उत्तर प्रदेश की मंत्रिपरिषद कुछ ही दिनों में इन दोनों प्रकार के परिवर्तनों की गवाह बनी. 27 जून को औपचारिक बदलाव हुआ. एक मंत्री बर्खास्त हुए, पांच शामिल हुए लेकिन इसके कुछ दिन पहले अप्रत्यक्ष बदलाव भी हुआ था. अमर सिंह के मसले पर आजम खां और कौमी एकता दल के मुद्दे पर शिवपाल सिंह यादव की हनक कम हुई थी. एक बार लगा कि मुख्यमंत्री अपने चाचाओं के मुकाबले मजबूत हुए हैं. लेकिन विडम्बना देखिए बलराम सिंह यादव की वापसी ने पुनः यथास्थिति ला दी. नारद राय में कौन सी खूबियां उत्पन्न हो गयीं, जो उनकी वापसी हुई, कोई नहीं जानता. रविदास मेहरोत्रा बगावत के अंतिम चरण में थे, इसलिए चलते-चलते शामिल किये गए. मुख्यमंत्री ने जिसे बर्खास्त किया, उसे शामिल करना पड़ा. मतलब साफ है कि पिछले साढ़े चार वर्षों तक जिस प्रकार सरकार चली है, वैसे ही शेष कार्यकाल में चलता रहेगा.

सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के एक कथन को सही मानें तो उत्तर प्रदेश मंत्रिपरिषद में हुए फेरबदल से खास उम्मीद नहीं करनी चाहिए. करीब एक वर्ष पहले मुलायम सिंह ने अपनी प्रदेश सरकार को हिदायत दी थी कि विकास या जनहित के कार्य तत्काल पूरे कर लें. चुनाव के कुछ महीने पहले अधिक कार्य नहीं हो सकते. यह सभी लोग जानते हैं कि चुनाव के कुछ महीने पहले उद्घाटन तो हो सकते हैं, लेकिन शिलान्यास के लिए समय कम पड़ जाता है. अब मतदाता भी अधिक जागरूक है. चुनाव के पहले बंटने वाली रेवड़ियां उसे ज्यादा प्रभावित नहीं करतीं. फैसला मुख्यतः प्रारम्भ से लेकर साढ़े चार वर्ष की अवधि पर होता है. इस हिसाब से देखें तो पहली बार मंत्री बने लोग भी ज्यादा नहीं कर सकते. वास्तविकता यह है कि किसी विभाग को ठीक से समझने में जितना समय लगता है, उतना समय अब विधानसभा चुनाव के लिए बचा है. यहां विचार का एक अन्य मुद्दा भी है. मंत्रिपरिषद के फेरबदल में सबसे दिलचस्प पहले बलराम सिंह यादव की विदाई और वापसी रही. पांच दिन पहले उन्हें बर्खास्त किया गया था. बर्खास्तगी असाधारण मामलों में होती है. जरूर ठोस वजह रही होगी लेकिन इन पांच दिनों में बलराम ने कौन सा अच्छा काम कर दिया कि उनकी वापसी हो गयी, इसका कोई जवाब नहीं है. इसी प्रकार मंत्री मनोज पाण्डेय बर्खास्त कर दिये गए. इसकी नौबत भी क्या आकस्मिक थी.

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अखिलेश यादव, शिवपाल सिंह यादव और आजम खां

मंत्रिपरिषद फेरबदल में जो बातें प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दीं, उनसे ज्यादा महत्वपूर्ण अप्रत्यक्ष बदलाव था. प्रारम्भ से ही आजम खां और शिवपाल यादव सर्वाधिक प्रभावशाली मंत्री माने जाते थे. करीब साढ़े चार वर्षों तक इनकी हनक पद से कहीं ऊपर तक दिखाई देती थी, लेकिन पिछले कुछ दिनों में इन दोनों के मामले में भी अप्रत्यक्ष फेरबदल हुआ. इसके पहले आजम खां को लगता था कि राष्ट्रीय अध्यक्ष और मुख्यमंत्री दोनों उनकी इच्छा के विरुद्ध नहीं जा सकते. कई बार आजम विवादित बयान देते थे और मुलायम और अखिलेश बाद में उनका समर्थन करते थे. सपा में अमर सिंह की एन्ट्री पर कई बार कयास लगे, लेकिन प्रत्येक चर्चा पर आजम खां ही विराम लगा देते थे. अन्ततः अमर सिंह ही अपने मन को तसल्ली देते थे. कहते थे कि वह मुलायम के दिल में हैं, दल में रहें न रहें, इससे क्या फर्क पड़ता है. लेकिन हकीकत यह है कि नेताओं का किसी दल में रहने से ही फर्क पड़ता है, दिल में रहें न रहें कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन अमर सिंह करते भी क्या. आजम खां दीवार बनकर उनके सामने आ जाते थे, और मुलायम सिंह भी दीवार गिराने की पहल नहीं करते थे. यह आजम खां का प्रभाव ही था, जो मुलायम सिंह ने उनकी पत्नी को पिछली बार राज्यसभा भेजने का फैसला किया था. तब यह माना गया था कि इसके बाद आजम अपनी तरफ से अमर सिंह का विरोध छोड़ देंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. आजम चाल समझ गये. उन्होंने विनम्रता के साथ अपनी पत्नी को राज्यसभा भेजने की पेशकश ठुकरा दी थी. लेकिन एक दिन वह भी आया जब आजम के विरोध को नजरंदाज करने का फैसला हुआ. मुलायम सिंह ने न केवल अमर सिंह को सपा में शामिल किया, वरन उन्हें राज्यसभा भी भेज दिया. आजम यह घूंट पीने को विवश हुए. यह मंत्रिमण्डल का अप्रत्यक्ष फेरबदल था. लेकिन यदि ऐसे अप्रत्यक्ष व अनौपचारिक फेरबदल शुरुआत में हो जाते, तो निश्चित ही सरकार के मुखिया अखिलेश की हनक बढ़ती. लेकिन नजारा तब बदला जब चुनाव प्रचार की तैयारी हो रही है. फिर मुलायम सिंह का वह कथन लागू हो जाता है कि चुनाव के कुछ महीने पहले खास कार्य अथवा सुधार नहीं हो सकते.

इसी प्रकार शिवपाल सिंह यादव भी अप्रत्यक्ष फेरबदल से प्रभावित हुए थे. लेकिन यहां भी कम समय वाली बात लागू होती है. साढ़े चार वर्ष तक इस सरकार पर सत्ता के कई केन्द्र होने के आरोप लगते रहे. लेकिन खुद अखिलेश इसका समाधान नहीं कर सके. सरकार ने इन्हीं आरोपों व कयासों के बीच साढ़े चार वर्ष बिता दिये. जिस प्रकार अमर सिंह की एन्ट्री ने आजम खां का कद कम किया था, इसी प्रकार कौमी एकता दल के विलय को नामंजूर करने का फैसला शिवपाल को नागवार लगा. क्योंकि कौमी एकता दल का विलय औपचारिक तौर पर उन्होंने ही सम्पन्न कराया था. उस समय अखिलेश यादव जौनपुर में थे. यह विचित्र था कि मुख्यमंत्री और प्रदेश पार्टी अध्यक्ष होने के बाद उनको विश्वास में लेने की बात तो दूर उन्हें जानकारी ही नहीं थी. बाद की गतिविधि सबको पता है. मुख्यमंत्री ने माध्यमिक शिक्षामंत्री बलराम यादव को बर्खास्त कर दिया. उन पर आरोप था कि वह कौमी एकता दल को सपा में मिलाने का प्रयास कर रहे थे. लेकिन इसकी जानकारी उन्होंने अखिलेश यादव को नहीं दी थी. लेकिन पांच दिन बाद उन्हें पुनः मंत्री बना दिया गया. इस प्रकरण की तुलना डी.पी. यादव मामले से नहीं की जा सकती. क्योंकि डी.पी. यादव को जब अखिलेश ने सपा में लेने से इन्कार किया था, तब वह सत्ता में नहीं थे. इसलिए नया विश्वास दिलाने में सफल रहे थे. अब साढ़े चार वर्ष की सत्ता के बाद किए गए कार्य ही ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं. इसलिए केवल इन्हीं के आधार पर मतदाता फैसला करते हैं.

लेखक

डा. दिलीप अग्निहोत्री डा. दिलीप अग्निहोत्री @dileep.agnihotry

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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