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Updated: 14 अगस्त, 2021 09:16 AM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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अफगानिस्तान (Afghanistan) से अमेरिकी सेना की पूरी तरह से वापसी से पहले ही तालिबान (Taliban) का कहर अपने चरम पर पहुंच चुका है. हालात इस कदर भयावह हो चुके हैं कि हथियारों के दम पर तालिबान ने अफगान नागरिकों पर इस्लामिक कानूनों को थोपना शुरू कर दिया है. अमेरिकी सेना की वापसी की प्रक्रिया शुरू होने से अब तक तालिबान ने अफगानिस्तान के करीब दो-तिहाई हिस्से पर अपना कब्जा जमा लिया है. अफगानिस्तान के दूसरे सबसे बड़े शहर कंधार पर भी तालिबानी लड़ाकों का परचम फहरने लगा है.

हाल ही में अमेरिकी खुफिया एजेंसी ने एक रिपोर्ट में कहा था कि तालिबान 90 दिनों में अफगानिस्तान पर कब्जा कर लेगा. लेकिन, जिस गति से तालिबानी लड़ाके अफगानिस्तान के प्रांतों पर कब्जा कर रहे हैं. ऐसा लगता नहीं है कि तालिबान को इस देश पर पूरी तरह से कब्जा करने में 90 दिन भी लगेंगे. कहना गलत नहीं होगा कि अफगानिस्तान को गृह युद्ध की ओर धकेल कर दुनिया की तमाम महाशक्तियों ने बेशर्मी के साथ मुंह मोड़ लिया है. अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी दुनियाभर के देशों से मदद की अपील कर रहे हैं, लेकिन उनकी इस अपील का कोई भी असर होता नही दिख रहा है. अफगानिस्तान के भयावह हालातों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, भारत समेत कई देशों को अपने राजनयिकों, कर्मचारियों और नागरिकों को निकालने के लिए रेस्कयू ऑपरेशन चलाने पड़ रहे हैं. दुनिया के तकरीबन सभी देशों ने अपने नागरिकों को तुरंत अफगानिस्तान छोड़ने को कह दिया है. लेकिन, ये सभी महाशक्तियां अफगान नागिरकों पर हो रहे अत्याचार और महिलाओं के साथ हो रहे दुर्व्यवहार पर चुप्पी साधे हुए हैं.

दुनिया के तकरीबन सभी देशों ने अपने नागरिकों को तुरंत अफगानिस्तान छोड़ने को कह दिया है.दुनिया के तकरीबन सभी देशों ने अपने नागरिकों को तुरंत अफगानिस्तान छोड़ने को कह दिया है.

साम्राज्यों की कब्रगाह

अमेरिका ने 9/11 हमले के बाद तोरा-बोरा की पहाड़ियों में तालिबान के संरक्षण में शरण लेने अलकायदा के आतंकी ओसामा बिन लादेन को खत्म करने के लिए 'ऑपरेशन एन्ड्यूरिंग फ्रीडम' लॉन्च किया था. अफगानिस्तान में करीब दो दशक के लंबे समय रही अमेरिकी और NATO सेना ने ओसामा बिन लादेन को खत्म किया और उसे पनाह देने वाले तालिबान को भी काफी हद तक सीमित कर दिया. लेकिन, यह अमेरिका की विफलता ही कही जाएगी कि वह दो दशक बीत जाने के बाद भी तालिबान को खत्म नहीं कर सका. हालांकि, इस दौरान दुनियाभर के देशों के सहयोग से अफगानिस्तान ने काफी प्रगति की. लेकिन, इस देश में शांति स्थापित करने की कोशिशों में कामयाबी हासिल नही हो सकी. अमेरिका का हाल भी सिकंदर, ब्रिटेन और सोवियत संघ जैसी ही हो गई है. दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका ने भी तालिबान के आगे घुटने टेक दिए. तालिबान को पूरी तरह से खत्म करने में नाकाम रहे अमेरिका को भी हताश होकर अफगानिस्तान से अपनी सेनाएं वापस बुलाने पर मजबूर होना पड़ा.

अमेरिका ने तालिबान के आगे टेके घुटने

अमेरिका ने दो दशकों में तालिबान को अफगानिस्तान की सीमाओं के पार खदेड़ दिया था. लेकिन, ऐसा लगता है कि तालिबान 'हाइड्रा' नाम के जीव की तरह अमर है. जैसे ही अमेरिका ने अफगानिस्तान से अपनी सेना की वापसी की घोषणा की. अचानक तालिबानी लड़ाकों की बड़ी संख्या अफगानिस्तान में नजर आने लगी. धीरे-धीरे तालिबान का वर्चस्व बढ़ता गया. दरअसल, पाकिस्तान लंबे समय तक इन तालिबानी लड़ाकों की पनाहगाह बना रहा. अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने पाकिस्तान की सीमा से आतंकियों के आने की बात भी कही थी. लेकिन, पाकिस्तान की हरकतों को जानते-बूझते हुए भी अमेरिका ने उस पर कोई कार्यवाही नहीं की. अमेरिका जिस तालिबान का खात्मा करने के लिए अफगानिस्तान में घुसा था. करीब दो दशक बाद उसी के साथ बातचीत करने के लिए तैयार हो गया. वहीं, अमेरिका ने तालिबान के साथ इस समझौते में अफगान सरकार को पूरी तरह से दरकिनार करते हुए अपने स्तर से फैसला लिया. सबसे महत्वपूर्ण पक्ष ये है कि तालिबान को अमेरिका ने आतंकी संगठन घोषित किया हुआ है. इसके बावजूद वह उसके साथ बातचीत को तैयार हो गया. इस बात में कोई शक नहीं है कि इससे अमेरिका की साख को ही बट्टा लगा है. अफगानिस्तान को एक कट्टर इस्लामिक आतंकी संगठन के हवाले करने की रणनीति अमेरिका जैसी महाशक्ति को पीछे ही ढकेलेगी.

अफगानिस्तान की कई प्रांतीय राजधानियों पर कब्जा जमा चुके तालिबान पर पाकिस्तान की मेहरबानी पहले से ही जगजाहिर है.अफगानिस्तान की कई प्रांतीय राजधानियों पर कब्जा जमा चुके तालिबान पर पाकिस्तान की मेहरबानी पहले से ही जगजाहिर है.

भारत के लिए खतरा बनेगा तालिबान

अफगानिस्तान की कई प्रांतीय राजधानियों पर कब्जा जमा चुके तालिबान पर पाकिस्तान की मेहरबानी पहले से ही जगजाहिर है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के बयानों से उनके मंसूबे सामने आ ही जाते हैं. इमरान खान ने हाल ही में कहा था कि जब तक अशरफ गनी राष्ट्रपति बने रहेंगे, तालिबान की अफगान सरकार से बातचीत मुश्किल है. वहीं, पाकिस्तान के सदाबहार दोस्त चीन ने भी कुछ समय पहले तालिबानी प्रतिनिधि से मुलाकात की थी. अमेरिका को नीचा दिखाने के लिए चीन कुछ भी करने को तैयार है. इस स्थिति में इस बात की संभावना भी बढ़ जाती है कि तालिबान को चीन की ओर से भी बैक डोर सपोर्ट मिलता रहेगा. शांति बहाली के प्रयासों में हाल ही में शामिल हुए भारत के लिए अफगानिस्तान एक बड़ा खतरा बन सकता है. लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और अल कायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ तालिबान के संबंधों को देखते हुए कहा जा सकता है कि अफगानिस्तान की धरती का इस्तेमाल भारत के खिलाफ फिर से किये जाने की संभावना कई गुना बढ़ जाएगी.

दुनिया के तमाम देश इस बात की आशंका जता रहे हैं कि अफगानिस्तान आतंकवाद की गढ़ बनने की ओर बढ़ रहा है. लेकिन, अमेरिका के हाथ खींच लेने की वजह से वो भी सीधे तौर पर कुछ करने की स्थिति में नही हैं. इतिहास में कंधार विमान हाईजैक समेत कई घटनाओं को देखकर इसकी पुष्टि आसानी से की जा सकती है. वहीं, बीते कुछ समय में भारत ने अफगानिस्तान में जो पकड़ बनाई है, वो पूरी तरह से कमजोर पड़ जाएगी. अगर तालिबान का अफगानिस्तान पर कब्जा हो जाता है, तो भारत के लिए स्थितियां पूरी तरह से बदल जाएंगी. जिस तालिबान से वह बात करने से कतराता रहा है, उसके साथ संबंधों को बनाने के लिए उसे फिर से शुरुआत करनी होगा. जो आसान नहीं लगती है. इंडिया टुडे को दिए अपने इंटरव्यू में तालिबान प्रवक्ता पहले ही कह चुके हैं कि भारत के साथ बातचीत केवल 'निषपक्षता' की शर्त पर ही होगी. इस स्थिति में भारत अगर अफगान सरकार के पक्ष में कोई भी बयान जारी करता है, तो ये उसके खिलाफ ही जाएगा.

अफगानिस्तान के पास बचा है एक ही रास्ता

कतर के दोहा में अफगान सरकार और तालिबान के बीच लंबे समय से बातचीत का दौर जारी है. अफगान सरकार ने देश में हिंसा और बर्बरता बंद करने के लिए तालिबान के सामने सत्ता में साझेदारी का समझौता पेश किया था. दरअसल, दक्षिणी अफगानिस्तान में कंधार और पश्चिम में हेरात प्रांत पर कब्जा करने के बाद तालिबान अब काबुल से बहुत ज्यादा दूर नही है. इस स्थिति में हिंसा रोकने के लिए अफगान सरकार का ये कदम उठाना स्वाभाविक था. लेकिन, तालिबान इसके लिए तैयार नहीं है. इसी साल मार्च में भी सत्ता-साझेदारी की चर्चा हुई थी, लेकिन तालिबान ने उसी समय साफ कर दिया था कि वह सुलह के पक्ष में नहीं है. अफगानिस्तान में तालिबान का पूरी तरह से कब्जा होना मुश्किल लगता है. अफगान सेनाएं देश के हर हिस्से की रक्षा न कर पाएं, लेकिन प्रमुख शहरों को तालिबान के हमलों से बचाने के लिए सेना किसी तरह का समझौता नहीं करेगी. उनके पास एयर फोर्स की ताकत भी है, जो तालिबानी लड़ाकों पर भारी पड़ेगी.

वहीं, पश्तून, ताजिक, उज्बेक जैसे समुदायों में बंटे अफगानिस्तान के हर हिस्से में तालिबान को मान्यता नहीं मिलेगी. राष्ट्रपति अशरफ गनी खुद कई प्रांतों के दौरे पर हैं और अफगान सरकार की ओर से मिलिशिया को शस्त्र मुहैया कराए जा रहे हैं. इस स्थिति में अफगानिस्तान फिर से गृह युद्ध की आग में जलने को तैयार है. कुल मिलाकर अफगानिस्तान में करीब दो दशकों तक तालिबान के खात्मे की कोशिश में लगे अमेरिका समेत दुनिया की अन्य महाशक्तियों ने इस देश को नर्क बनाकर इस महासंकट की ओर उसे ढकेल दिया है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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