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Updated: 02 मई, 2017 06:16 PM
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राजनीति में कुछ भी तय या स्थाई नहीं होता. ना जीत, ना हार, ना दोस्ती और ना ही दुश्मनी. हो सकता है कि जो पार्टी आज एक सीट भी नहीं ला पाई कल को प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आ जाए जैसे बिहार में लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल पार्टी. हो सकता है कि जो नेता आज पानी पी पीकर दूसरी पार्टी पर आरोपों की बारिश कर रहा है, कल को वो उसी पार्टी के गुणगान करने लगे और सदस्य बन जाए जैसे कि वर्तमान में केन्द्र में मंत्री रामविलास पासवान. ऐसे ही एक समय था जब मीडिया ने कहा था कि आम आदमी पार्टी दिल्ली विधानसभा में चार से ज्यादा सीटों पर जीत नहीं पाएगी.

यही नहीं कुछ समय पहले तक वामपंथी दलों के पास केंद्र की सरकार को ब्लैकमेल करने के लिए पर्याप्त संख्या में सीटें हुआ करती थीं. लेकिन आज उन्हें ना तो लोगों के वोट मिलते हैं ना ही वोट.

इसी तरह आम आदमी पार्टी (आप) के भविष्य के बारे में भी किसी तरह की कोई निश्चितता नहीं है. पार्टी की खास्ता हालत को देखते हुए कहा जा सकता है कि शायद इसका अंत नजदीक है. हालांकि पार्टी वर्तमान के संकट भरे समय का इस्तेमाल खुद के लिए संजीवनी की खोज करने में इस्तेमाल कर सकती है.

हम बताते हैं आपको कुछ ऐसी चीजें जो आप पार्टी के पुनर्जीवन की गाथा लिख सकती है.

1- दिल्ली पर ही ध्यान लगाएं:

आम आदमी पार्टी, चुनाव, हारमोहल्ला क्लिनिक एक अच्छी शुरुआत है

2015 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में आप को 70 में से 67 सीटों पर आश्चर्यजनक और भारी जीत मिली थी. लेकिन दिल्ली की इसी प्रचंड जीत ने ना सिर्फ आप पार्टी के लोगों को घमंड से भर दिया बल्कि लापरवाह भी बना दिया था. अपने घर में ही लेफ्टिनेंट गवर्नर और दिल्ली पुलिस ने पार्टी को अपंग बनाकर रख दिया था. इसका सबूत है आप पार्टी के लोगों की एक साल की छुट्टी. लेकिन दिक्कत ये हुई कि दिल्ली के प्रशासन से ज्यादा पार्टी ने दिल्ली की राजनीति से ही छुट्टी ले ली थी.

हालांकि इन्होंने कुछ काम भी किए जैसे- मोहल्ला क्लीनिक, सरकारी स्कूलों में शिक्षा की हालत में सुधार करना. लेकिन दिक्कत ये हुई कि अपने कामों को वो जनता तक ना तो पहुंचा पाए ना ही उनका काम जनता की जुबान पर चढ़ पाया. केजरीवाल ने पंजाब में चुनाव लड़ने के लिए दिल्ली को छोड़ दिया है, पार्टी पर ये इल्जाम उतने ही गहरे छप गया जितना की 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले ही इस्तीफा देने की वजह से उन्हें 'भगोड़ा' का टैग लग गया था.

दिल्ली आम आदमी पार्टी की कर्मभूमि है और दिल्ली का विकास करके ही वो देश के बाकी हिस्सों में स्थापित कर सकती है. न तो केजरीवाल और ना ही आम आदमी पार्टी दिल्ली का प्रशासन और यहां की राजनीति की उपेक्षा करके सफलता के ख्वाब देख सकती है. आज का समय स्थायी राजनीतिक अभियान के समय में ऐसा कतई नहीं हो सकता कि आप पार्टी चुनावी मेंढ़क की तरह नजर आए.

2) शासन पर ध्यान केंद्रित करें:

आम आदमी पार्टी, चुनाव, हारलोकपाल आप की नींव बनी थी

आम आदमी पार्टी लोकपाल आंदोलन की उपज है. लोकपाल आंदोलन शासन की समस्या मुख्यत: भ्रष्टाचार जैसे मामले को हल करने का एक जरिया माना जा रहा था. लोकपाल और सत्ता के विकेंद्रीकरण (स्वराज) के मुद्दे के बाद आम आदमी पार्टी को सारी समस्या का समाधान के रूप में देखा गया था. आप को समस्याओं के समाधान की पार्टी के रूप में देखा जाता है ना कि खुद एक समस्या के रूप में.

3) अपना एजेंडा तय करें:

पर्मानेंट चुनाव अभियान के इस युग में आप या किसी भी और पार्टी को अब एजेंडा सेट करने की जरूरत है. जैसे की दिल्ली में प्रदूषण कम करने के विचार से दिल्ली सरकार की ऑड-इवन स्कीम प्रदुषण कम भले नहीं कर पाई हो लेकिन इससे लोगों के दिमाग पर पार्टी के प्रति एक पॉजिटिव नजरिया बना और उसे समस्या के समाधान की पार्टी के रूप में देखा था. इसी तरह लोकपाल आंदोलन ने एक एजेंडा तय कर दिया था जिसे राजनीति, मीडिया और समाज को ये चुनना पड़ा कि आखिर वे लोकपाल के पक्ष में हैं या उसके खिलाफ. हर बात में मोदी का विरोध कर आम आदमी पार्टी एक तरह से ब्रांड मोदी की मदद कर देती है.

4) कई केजरीवाल बनाएं:

दिल्ली में आप की विराट सफलता के पीछे एक बड़ा कारण अरविंद केजरीवाल के चेहरे को पार्टी के चेहरे के रूप प्रोजेक्ट करना था. कुछ अपवादों को अगर छोड़ दें तो ज्यादातर चुनावों में उन्हीं पार्टियों की जीत हुई जिन्होंने चुनाव अभियान में अपने मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री के चेहरे को आगे बढ़ाकर जनता के सामने पेश किया था.

पंजाब चुनावों में आम आदमी पार्टी इवीएम मशीन में धांधली की वजह से नहीं हारी थी बल्कि अंत तक केजरीवाल पंजाब के सीएम बनेंगे या फिर दिल्ली के सीएम बने रहेंगे के सस्पेंस के कारण हारी. किसी चुनाव के शुरू होने के पहले ही आम आदमी पार्टी को जनता के सामने चुनाव से एक साल पहले ही अपनी पार्टी की तरफ से ​​मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का भी ऐलान कर देना चाहिए.

5) ब्रांड सिसोदिया को बनाएं:

आम आदमी पार्टी, चुनाव, हारकेजरीवाल के बाद सिसोदिया ही हैं आप के नेता

जब अरविंद केजरीवाल पार्टी को देशभर में फैलाने की जद्दोजहद में लगे थे और पंजाब में उनके ही मुख्यमंत्री बनने के आसार बनने लगे तो अचानक ही मनीष सिसोदिया दिल्ली सरकार का चेहरा बनकर उभरे. हालांकि सिसोदिया को दिल्ली में केजरीवाल की जगह पेश किया गया लेकिन दिल्ली को तो बताया गया था कि वो केजरीवाल को अपना नेता चुन रहे हैं. समस्या ये है कि आप ने मनीष सिसोदिया को जनता का नेता के रूप में प्रोजेक्ट ही नहीं किया. केजरीवाल शायद देश के पहले मुख्यमंत्री हैं जिनके पास कोई भी पोर्टफोलियो नहीं है. सरकार का सारा कामकाज उपमुख्य मंत्री मनीष शिशोदिया के ही जिम्मे है. अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के प्रशासन की ओर व्यक्तिगत ध्यान देने की जरूरत है, लेकिन साथ ही पार्टी को सिसोदिया की छवि जन नेता की बनाने की जरुरत है.

6) विधायक के विरोध में उठ रही आवाजों पर ध्यान दें:

राजौरी गार्डेन उप-चुनाव में बीजेपी की जीत के बाद अब आम आदमी पार्टी के 67 में से 66 विधायक हैं. राजौरी गार्डेन विधानसभा क्षेत्र में आप पार्टी के विधायक जरनैल सिंह विधायक थे. इनके इस्तीफे की वजह से वहां की खाली सीट पर उप-चुनाव कराए गए थे. इस सीट पर बीजेपी की जीत सिर्फ इस वजह से हुई क्योंकि लोगों को जरनैल सिंह से खूब सारी शिकायत थी. लोगों का कहना था कि चुनाव में जीत के बाद से ही जरनैल सिंह ना तो लोगों को मिलते थे ना ही अपने चुनाव क्षेत्र में दिखाई देते थे. दिक्कत ये है कि लोगों को बाकी बचे 66 विधायकों से भी शिकायत है.

2015 के 70 में से 67 सीटों की जीत का अर्थ है कि पार्टी को लगभग हर निर्वाचन क्षेत्र में अपने विधायकों के प्रति जनता के विरोध को बर्दाश्त करना पड़ सकता है. यही कारण है कि हाल ही में हुए एमसीडी चुनावों में आम आदमी पार्टी को मुंह की खानी पड़ी. अगर आम आदमी पार्टी को दिल्ली में भविष्य के चुनावों में जीत हासिल करनी है तो उसे अपने विधायकों के प्रति उठने वाली जनता की आवाज को सुनना होगा और उसका काट खोजना होगा.

7) जनता को संरक्षण देने की समस्या का समाधान खोजें:

आम आदमी पार्टी, चुनाव, हारआप की डगर कांटो भरी

पारंपरिक राजनेताओं के विपरीत आप के ज्यादातर विधायक और नेता अमीर नहीं हैं. इसी कारण से वो ना तो जरुरतमंदों की समय पड़ने पर पैसे देकर सहायता कर सकते हैं. साथ ही पार्टी का भ्रष्टाचार के प्रति रुख और दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं होने के कारण भी पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को ज्यादा सहायता नहीं कर सकते हैं. जबकि इन्ही कार्यकर्ताओं ने चुनाव जीतने में पार्टी की मदद की थी. आखिर क्यों कोई आप पार्टी को चुनाव जीतने में मदद करेगा जब खुद आप सरकार उनके बच्चे का स्कूल में दाखिला नहीं करा पा रही थी? साफ सी बात है कई तरह के दिक्कतों के बावजूद भी पार्टी को कार्यकर्ताओं को आकर्षित करने में मेहनत करनी पड़ेगी.

8) पीड़ित होने का रोना बंद करें:

लेफ्टिनेंट गवर्नर और दिल्ली पुलिस ने मोदी सरकार के साथ मिलकर दिल्ली सरकार का काम करना मुश्किल कर रखा है. लेकिन अगर आप पार्टी सिर्फ इस बारे में ही रोते रहे या शिकायत करते रहती है तो इससे जनता के बीच पार्टी के बारे में निगेटिव मैसेज जाएगा. लोग ये समझेंगे कि पार्टी शासन करने में असमर्थ है, या फिर उन्हें लगेगा कि ये एक ऐसी पार्टी है जो केवल शिकायत ही करती रहती है और ये ऐसी पार्टी है जो सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के साथ लड़ाई करने के ही मौके तलाशती रहती है. इसलिए आप ने इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली है. हालांकि यहां पर आप गलत नहीं है. आखिर क्यों पार्टी अपने साथ हो रहे अन्याय को जनता के सामने नहीं लाएगी जबकि उसके विधायकों को झूठे मामले में फंसाया जा रहा है.

9) मोदी की नीतियों पर हमला करें, मोदी पर नहीं:

आम आदमी पार्टी, चुनाव, हारमोदी-मोदी करना भारी पड़ा

लगता है आम आदमी पार्टी ने फैसला कर लिया है कि अब उन्हें मोदी पर हमला नहीं करना है. उन्हें ये समझ आ चुका है कि दिन-रात मोदी पर हमला करना असल में मोदी के पक्ष में ही जा रहा है. मोदी और बीजेपी हर चुनाव में एक विपक्षी पार्टी की तरह उतरी थी. चाहे वो यूपी हो, बंगाल, महाराष्ट्र या फिर ओडिशा. विपक्षी पार्टी की नीतियों के आलोचना करने और विपक्षी नेताओं पर व्यक्तिगत हमलों के बीच एक बड़ी ही पतली रेखा सा अंतर होता है.

10) हर चुनाव लड़ें:

आम आदमी पार्टी किसी राज्य में चुनाव लड़े किसमें नहीं ये कभी सवाल होना ही नहीं चाहिए. हार और जीत की चिंता छोड़ आम आदमी पार्टी को पंचायत से लेकर संसद तक के हर चुनाव लड़ना चाहिए ताकि वो मतदाता के सामने कांग्रेस और बीजेपी की तरह वो खुद को एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में पेश कर सके. दिखा सकें. 2014 के लोकसभा चुनावों में लड़ने का फैसला करने से पहले क्या पार्टी को पता था कि पंजाब में उसे चार सीटों पर जीत मिल जाएगी? हर चुनाव को जीता नहीं जा सकता ना ही युद्ध की तरह लड़ा जा सकता है. जिस चुनाव में आप हारने भी जा रहे हों वहां भी पार्टी के पाने के लिए बहुत कुछ होता है. वो अपने लोकल लीडरशीप, नेटवर्क, और वोटरों के दिमाग में अपनी जगह बनाने का एक विकल्प देता है.

( शिवम विज का यह विश्‍लेषण मूलत: हफिंगटन पोस्‍ट पर प्रकाशित हुआ है )

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लेखक

शिवम विज शिवम विज @shivamvijdillidurast

लेखक एक पत्रकार हैं.

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