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Updated: 28 अप्रिल, 2017 10:34 PM
चंद्र प्रकाश
चंद्र प्रकाश
  @chandraprakash25
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गलत सौदे करने वालों की सबसे बड़ी पहचान होती है कि वो पहले सामने वाले को उसका फायदा समझाते हैं. वो ये नहीं बताते कि उनका अपना क्या स्वार्थ है. इसी फायदे के लालच में आकर लोग ठगी के शिकार होते हैं. दिल्ली और अरविंद केजरीवाल की कहानी कुछ ऐसी ही है. यह बात मैं इसलिए कर रहा हूं क्योंकि केजरीवाल से मेरी पहली मुलाकात ऐसी ही थी.

2005 या 2006 की बात है, तब मैं दिल्ली के ग्रेटर कैलाश के एक चैनल में था. मनीष सिसोदिया दफ्तर में आए थे. उनके साथ मैं पहले काम कर चुका था. आउटपुट के सामने से गुजरते उन्हें देखा तो मैंने सोचा कि हो सकता है कि अपना पिछला चैनल छोड़कर यहां ज्वाइन करने वाले होंगे. उनके साथ एक दुबला-पतला, चेक वाली टेरीकॉट शर्ट पहने एक आदमी भी था. सिसोदिया जी ने मुझे देखा तो इशारा किया कि अभी लौटकर बात करता हूं. वो और उनके साथ का आदमी, दोनों सीधे सबसे आखिर में बने चैनल के प्रमुख के कमरे में चले गए.

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मैं सोच रहा था कि अगर मामला नौकरी का होता तो सेकेंड फ्लोर के पहले कमरे में जहां एडिटर बैठते हैं वहीं काम हो जाता. जरूर ये कोई लंबा मामला है. खैर, करीब 15-20 मिनट के बाद सिसोदिया जी ने मुझे पीछे से नॉक किया और बाहर आने का इशारा किया. उनसे मेरी जान-पहचान थी. मैं उनके साथ बाहर चला आया. सिसोदिया जी ने बताया कि मैंने तो चैनल छोड़ दिया है और अब मीडिया में नौकरी का इरादा भी नहीं है. एनजीओ के काम में जुट गया हूं. कब तक वही घिसा-पिटा काम करते रहेंगे, कुछ बड़ा करना है. उन्होंने साथ आए शख्स का परिचय कराया.. ये अरविंद केजरीवाल हैं. IRS अफसर थे, लेकिन नौकरी छोड़कर आरटीआई एक्ट के लिए अभियान चला रहे हैं. अब एक्ट लागू हो गया है तो जागरुकता फैलाने में जुटे हैं.

चैनल पर रोज शाम का एक स्लॉट मिल गया है. ‘घूस को घूंसा’ नाम से प्रोग्राम चलेगा. जिसमें हम लोग जनता को आरटीआई एक्ट के बारे में बताएंगे. कुछ अखबार वालों को भी हमने इस अभियान से जोड़ा है…वगैरह-वगैरह. सारी बातचीत के दौरान अरविंद केजरीवाल नाम का वो शख्स चुप था और हम दोनों की बातें सुन रहा था. मैंने और सिसोदिया जी ने बाहर की दुकान से चाय पी, लेकिन केजरीवाल मुंह में कुछ चबा रहे थे. मैंने गौर किया कि उन्होंने पैरों में बाटा की पुरानी काली चमड़े की चप्पल पहन रखी थी. जिसमें शायद खरीदने के बाद से एक बार भी पॉलिश नहीं की गई होगी.

‘घूस को घूंसा’ के एपिसोड शुरू हो गए. कभी-कभार बतौर आउटपुट एडिटर मैं भी इस शो से जुड़े काम करता था. सिसोदिया जी से बातचीत में मेरी रुचि आरटीआई  में हो गई थी. इसलिए मैं ऑफिस में टीवी का वॉल्यूम बढ़ाकर ये शो जरूर देखता था. अब तक 3-4 बार अरविंद केजरीवाल के साथ चाय पीने के बावजूद उनकी आवाज सिर्फ इसी प्रोग्राम में सुनने को मिलती थी. शो के करीब 6-7 एपिसोड हो चुके थे. मैं रोज शो खत्म होते ही सिसोदिया जी और उनके साथी को बाहर तक छोड़ने चला जाता था और अक्सर चाय भी हो जाती थी.

मेरे ख़्याल से वो पहला मौका था जब केजरीवाल ने सीधे मेरी ओर मुखातिब होकर मुझसे बात की. उन्होंने पूछा कि बुधवार को टीआरपी का चार्ट आ गया होगा. वो आप हमें दे सकते हैं क्या? मुझे थोड़ी हैरत हुई कि इनके जैसे आदमी को टीआरपी से क्या लेना-देना. मैंने बताया कि मेरे पास टीआरपी डेटा नहीं आता, लेकिन आप कहेंगे तो मैं किसी सीनियर से पूछकर आपके सभी एपिसोड्स की टीआरपी बता दूंगा. तब टीआरपी को एक खुफिया आंकड़ा माना जाता था और ऊपर के 4-5 लोगों के अलावा किसी को इसकी हवा तक नहीं होती थी. केजरीवाल ने अगला सवाल पूछा कि आपके ऑफिस में इस प्रोग्राम को लेकर कैसा 'रिस्पॉन्स' है. मैंने जवाब दिया कि ये टॉपिक ऐसा है कि लगभग सभी लोग पॉजिटिव हैं. किसी ने ऐसा खास रिस्पॉन्स तो दिया नहीं. जैसे कोई भी शो होता है वैसे चल रहा है. तब मुझे पता चला कि केजरीवाल चाहते हैं कि शो को प्राइम टाइम का कोई स्लॉट मिले, ताकि ज्यादा लोग उसे देख सकें.

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इसके अलावा भी और काफी बातचीत हुई, वो सवाल पूछते रहे और मैं जवाब देता रहा. लेकिन इतना जरूर समझ में आ गया कि ये आदमी कमाल का महत्वाकांक्षी है. वो किसी चीज से खुश नहीं थे. चैनल पर शो को मिले स्लॉट से खुश नहीं थे. बिना ये सोचे कि मैनेजमेंट ने उन्हें कितना बड़ा मौका दिया है. उन्हें ये लग रहा था कि हिंदी चैनल के किसी ऊपरी आदमी ने प्राइम टाइम स्लॉट मिलने में अड़ंगा लगा दिया होगा. इसीलिए वो लोगों का रिस्पॉन्स पूछ रहे थे. उन्होंने जानना चाहा कि किससे बात की जाए तो इस शो का स्लॉट सुधरवाया जा सकता है. मैंने कहा- शायद हमारे एडिटर कुछ मदद कर सकें. शायद इस बारे में सिसोदिया जी से उनकी पहले ही बात हो चुकी थी. इसलिए किसी पुरानी बात को ही कंटिन्यू करते हुए सिसोदिया जी ने कहा- वही मैं कह रहा था, प्राइम टाइम मिलना थोड़ा मुश्किल काम है. लेकिन इसके बावजूद केजरीवाल तमाम चैनलों के बड़े नामों के बारे में पूछताछ करते रहे.

उन्हें पता चल चुका था कि इससे पहले मैं कई और बड़े मीडिया ग्रुप में काम कर चुका हूं. वो जानना चाहते थे कि एनडीटीवी इंडिया के तमाम बड़े नामों की 'काट'  कौन है. उनकी रुचि ऑफिस की इंटरनल पॉलिटिक्स के बारे में भी जानने की थी. बातचीत में एक सवाल आया कि फलां अखबार तो खुद ही भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है उसने ‘घूस को घूंसा’ अभियान को स्पॉन्सर कैसे कर दिया. तब की सोशल नेटवर्किंग साइट ऑर्कुट पर आरटीआई  के पेज पर कई लोगों ने इस बात को लेकर नाराजगी जताई थी. मैंने उसी दिन बातचीत में केजरीवाल को इस बारे में बताया तो उन्होंने बड़ी हिकारत इस बात को खारिज कर दिया. उनका जवाब था कि अगर ऐसे देखने लग गए तो फिर हो गया. आपके चैनल के खिलाफ केस नहीं है क्या? मैं समझ चुका था कि केजरीवाल का कॉन्सेप्ट क्लियर है. अब वो मुझे समझाने में लगे थे- हमें कोऑपरेट कीजिए. हमारी टीम में शामिल होइए. आगे बहुत काम करना है. सोचिए अगर यहां से शुरुआत होगी तो कहां तक जाएंगे. हमारा मिशन बहुत बड़ा है. आरटीआई तक ही रुक नहीं जाना है. वगैरह वगैरह.

उनको लग रहा था कि मैं 'अंदर की खबर' नहीं दे रहा हूं. वो शायद शुरुआत थी. क्योंकि तब वो चैनल में मेरे अलावा किसी को नहीं जानते थे. आगे की कहानी सबको पता ही है कि कैसे अरविंद केजरीवाल एक के बाद एक मीडिया के बड़े लोगों से ताल्लुक बनाते गए और उनको ‘फायदा’ दिखाकर अपना फायदा निकालते गए.

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लेखक

चंद्र प्रकाश चंद्र प्रकाश @chandraprakash25

लेखक टीवी टुडे से जुड़े हैं.

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