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Updated: 31 दिसम्बर, 2020 11:16 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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2020 (Year 2020) में नेताओं के राजनीतिक निष्ठा बदलने की कहानी बीजेपी से ही शुरू भी हुई और खत्म भी - ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर शुभेंदु अधिकारी तक. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो काफी हद तक अपनी उपयोगिता साबित कर दी है, शुभेंदु अधिकारी (Suvendu Adhikari) का तो सब कुछ अभी दांव पर लगा हुआ है - और अब सारी उम्मीदें 2021 में होने वाले पश्चिम बंगाल चुनाव (West Bengal Election 2021) पर टिकी हुई हैं.

अमूमन नेताओं के पाला बदलने के वाकये चुनावों के बीचोंबीच या ऐन पहले देखने को मिलते हैं. 2020 में ऐसा ही वाकया बिहार चुनाव के दौरान देखने को मिला जब लालू प्रसाद यादव के समधी चंद्रिका राय ने आरजेडी छोड़ कर नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ज्वाइन कर लिया, लेकिन चुनाव नहीं जीत सके.

जिन पांच घटनाओं का हम यहां जिक्र करने जा रहे हैं, दो मुंबई से हैं - एक नेता ने जहां 40 साल बाद पार्टी छोड़ी, वहीं दूसरे ने महज 20 महीने के अंतराल में एक पार्टी छोड़ कर दूसरी ज्वाइन कर लिया - अब ये सारे नेता नये साल में अपने लिए कुछ बेहतर होने का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं.

शुभेंदु अधिकारी

शुभेंदु अधिकारी अगर बीजेपी की जगह कोई दूसरी पार्टी भी ज्वाइन किये होते तो तरीका और ताकत का प्रदर्शन ऐसा ही होता. पश्चिम बंगाल चुनाव के कुछ ही महीने पहले शुभेंदु अधिकारी ने ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस से सारे कनेक्शन खत्म कर बीजेपी का दामन पूरी तरह से थाम लिया है.

शुभेंदु अधिकारी पूर्वी मिदनापुर की नंदीग्राम सीट से विधायक रहे और बीजेपी ज्वाइन करने से पहले इस्तीफा दे दिया था. हालांकि, स्पीकर ने तकनीकी आधार पर उनका इस्तीफा नामंजूर कर दिया था. उससे पहले वो ममता बनर्जी मंत्रिमंडल और तृणमूल कांग्रेस में मिली सभी जिम्मेदारियों से खुद को अलग कर लिया था.

वैसे तो शुभेंदु अधिकारी का तृणमूल कांग्रेस छोड़ना ममता बनर्जी के लिए मुकुल रॉय को गंवाने से भी बड़ा झटका है, लेकिन कोई दो राय नहीं कि शुभेंदु अधिकारी ने राजनीतिक जीवन का बहुत बड़ा जोखिम उठाया है - बीजेपी ज्वाइन करने का शुभेंदु अधिकारी का फैसला कितना सही है ये तो अप्रैल-मई में संभावित पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद ही मालूम हो सकेगा.

शुभेंदु अधिकारी अभी तक ममता बनर्जी के लिए सपोर्ट का खंभा बन कर खड़े रहे. ममता बनर्जी के नंदीग्राम आंदोलन के वो आर्किटेक्ट माने जाते हैं जिसकी बदौलत 2011 में ममता बनर्जी बरसों पुराने लेफ्ट शासन को हरा कर सत्ता पर काबिज हुईं - अब वो वही काम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए कर रहे हैं. बता रहे हैं कि ममता बनर्जी नहीं, बल्कि, पश्चिम बंगाल को मोदी की ज्यादा जरूरत है.

शुभेंदु अधिकारी के बाद, जैसी कि खबर आ रही है, उनके पिता और भाई भी बीजेपी ज्वाइन कर सकते हैं. शुभेंदु अधिकारी के पूरे परिवार का आस पास के इलाके में भारी राजनीतिक दबदबा है - और छह जिलों की करीब 80 सीटों पर अधिकारी परिवार का सीधा असर माना जाता है.

year 2020 politiciansनेताओं को भी है नये साल में कुछ अच्छा होने का इंतजार

माना जा रहा है कि ममता बनर्जी को शुभेंदु अधिकारी के साथ नहीं होने का असर इलाके की विधानसभा सीटों पर पड़ सकता है और वो भी चुनाव के ऐन पहले ऐसा वाकया होना - लेकिन तब क्या होगा जब नतीजे उलटे पड़ गये?

बीजेपी का बंगाल की सत्ता पर कब्जा हो गया तो ठीक, लेकिन जरा सी कमी रह गयी और बीजेपी चूक गयी तो शुभेंदु अधिकारी को बीजेपी में क्या वो सब हासिल हो सकेगा जो ममता बनर्जी के साथ होते हुए मिलता रहा?

मुकुल रॉय से बेहतर कोई भी मिसाल शुभेंदु अधिकारी के सामने नहीं हो सकती - बीजेपी ने अभी अभी तो मुकुल रॉय को अहमियत देनी शुरू की है! अब आगे जो भी 2020 में अपने राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा जोखिम उठा चुके शुभेंदु अधिकारी को नये साल 2021 से बहुत ज्यादा उम्मीदें होंगी.

ज्योतिरादित्य सिंधिया

शुभेंदु अधिकारी के सामने मुकुल रॉय के बाद बीजेपी में कोई उदाहरण हो सकता है तो वो हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया. ज्योतिरादित्य सिंधिया ने बीजेपी ज्वाइन करने के बाद अपेक्षित सारे टास्क पूरे कर दिये हैं - हो सकता है बीजेपी की अपेक्षा ज्यादा हो और ज्योतिरादित्य सिंधिया उस पर खरे न उतरे हों. ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़ने वाले विधायकों की मदद से ही बीजेपी मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार गिराने के बाद अपनी सरकार बनाने में सफल रही - और उपचुनाव जीत कर बची खुची मुश्किलें भी खत्म कर ली है. ऐसे देखें तो ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी तरफ से तो सब कुछ कर दिया है. बीजेपी की तरफ से भी ज्योतिरादित्य सिंधिया को कम तवज्जो नहीं मिला है. कहने को तो शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उनकी कैबिनेट तक में ज्योतिरादित्य सिंधिया का ही दबदबा है. हाल ही में एक फोटो खासा चर्चित रहा जब सामने खड़े एक अफसर को सिंधिया कुछ समझा रहे थे और शिवराज सिंह बगल में चुपचाप बैठे देख रहे थे.

ज्योतिरादित्य सिंधिया को हाथ के हाथ राज्य सभा पहुंचा कर बीजेपी ने भी अपनी तरफ से कुछ रस्म तो निभायी ही है, लेकिन अब तक वो मौका नहीं आ सका है जिसका ज्योतिरादित्य सिंधिया को इंतजार है - प्रधानमंत्री नरेंद्री मोदी की कैबिनेट में शामिल होने का.

ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने पिता माधवराव सिंधिया के जन्मदिन पर तब तक के अपने राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा जोखिम उठाया - सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ने की घोषणा की थी. कोरोना वायरस और लॉकडाउन की वजह से सिंधिया को सियासत के साथ साथ सेहत के मामले में भी मुश्किलें उठानी पड़ीं. सिंधिया खुद भी कोरोना वायरस से संक्रमित हो गये थे - और अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था.

नये साल 2021 में कोरोना वायरस से तो जल्दी निजात मिल पाएगी ऐसा नहीं लगता, लेकिन सिंधिया और उनके समर्थकों को केंद्र की मोदी सरकार में मंत्री बनने का बेसब्री से इंतजार रहेगा.

चंद्रिका राय

बिहार चुनाव के दौरान ही लालू प्रसाद यादव के समधी और तेज प्रताप यादव के ससुर चंद्रिका राय आरजेडी छोड़कर जेडीयू में शामिल हो गये. अपनी बेटी के साथ दुर्व्यवहार और तलाक के मुकदमे ने चंद्रिका राय को तेजस्वी यादव की पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर किया.

चंद्रिका राय ने जेडीयू ज्वाइन करने के बाद कुछ दिनों तक ये सस्पेंस बनाये रखा कि उनकी बेटी ऐश्वर्या भी चुनाव मैदान में उतर सकती हैं. तब तो चर्चा ये भी रही कि जेडीयू की तरफ से ऐश्वर्या राय को तेज प्रताप या तेजस्वी के खिलाफ उम्मीदवार बनाया जा सकता है. शायद इसी डर की वजह से तेज प्रताप यादव ने अपना चुनाव क्षेत्र भी बदल लिया था.

बाद में मालूम हुआ कि नीतीश कुमार ने राजनीतिक समझदारी और दूरगामी सोच के तहत ऐसा कुछ भी नहीं होने दिया. नीतीश कुमार ने चंद्रिया राय के लिए लिए उनके इलाके परसा पहुंच कर वोट भी मांगे - और अपनी सभा में लालू यादव जिंदाबाद के नारे भी उनको सुनने पड़े.

बरसों ये धारणा रही कि इलाके में दरोगा राय के घर से होकर ही चुनाव के नतीजे निकलते हैं. चंद्रिका राय के पिता दरोगा प्रसाद राय थे और उनके परिवार की मर्जी अक्सर ही नतीजों के मामले में निर्णायक भूमिका निभाती रही, लेकिन इस बार ये सारी धारणायें टूट गयीं. चंद्रिका प्रसाद राय आरजेडी के प्रत्याशी से ही चुनाव हार गये.

चंद्रिका राय के लिए ज्यादा मुश्किल तब हुई होती जब नीतीश कुमार सत्ता गंवा बैठे होते, लेकिन कमजोर होकर भी नीतीश कुमार का मुख्यमंत्री बने रहना चंद्रिका राय के लिए राहत की बात है. वैसे भी अभी मंत्रिमंडल विस्तार होना है, ऐसे में नये साल में चंद्रिका राय ने कुछ उम्मीदें पाल रखी हैं तो अभी निराश होनेवाली जैसी कोई बात नहीं है.

एकनाथ खडसे

चार दशक मामूली नहीं होते, वो भी राजनीति में. उसके बाद बचा ही कितना होता है. फिर भी महाराष्ट्र के कद्दावर नेता एकनाथ खडसे ने बीजेपी छोड़ने का फैसला किया और शरद पवार की पार्टी एनसीपी ज्वाइन कर ली. वो पार्टी जिसके खिलाफ बरसों बरस मोर्चा लिये रहते थे. बिलकुल ही विपरीत विचारधारा वाली पार्टी. हालांकि, देखें तो ज्योतिरादित्य सिंधिया और शुभेंदु अधिकारी का भी मामला मिलता ही जुलता है.

एकनाथ खडसे के ऐसा मुश्किल फैसला लेने की वजह रही महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से उनकी राजनीतिक दुश्मनी. कभी एकनाथ खडसे खुद ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के बारे में सोच रहे थे, लेकिन देवेंद्र फडणवीस कैबिनेट में मंत्री बन कर संतोष करना पड़ा. सब कुछ ठीक ठाक चल रहा था तभी भ्रष्टाचार के एक मामले के चलते इस्तीफा देना पड़ा. बाद में वो मामले से बरी भी हो गये लेकिन देवेंद्र फडणवीस ने दोबारा मौका नहीं दिया. और तो और जब विधानसभा चुनाव हुए तो टिकट भी काट दिया. कहने को तो खडसे की बेटी को बीजेपी का टिकट दिया गया, लेकिन एकनाथ खडसे का आरोप है कि बीजेपी नेताओं ने ही पंकजा मुंडे की तरह उनकी बेटी को भी चुनाव हरा दिया.

जब एमएलसी चुनावों में भी उनको जगह नहीं मिली और न ही जेपी नड्डा की नयी बीजेपी टीम में तो एकनाथ खडसे चुपचाप एनसीपी ज्वाइन कर लिये. एकनाथ खडसे को उम्मीद है कि 2020 में न सही, नये साल में उद्धव ठाकरे सरकार में उनको मंत्री जरूर बनाया जाएगा.

उर्मिला मातोंडकर

बॉलीवुड एक्टर उर्मिला मांतोडकर ने अगर सीधे शिवसेना ज्वाइन किया होता तो 2020 के ऐसे नेताओं के बीच की चर्चा से वो बाहर होतीं, लेकिन जिस तरीके से वो एक विचारधारा की पार्टी से दूसरी विचारधारा वाली पार्टी में शिफ्ट कीं - ये नेताओं में ही देखने को मिलता है.

एकनाथ खडसे ने तो 40 साल बाद पाला बदला, उर्मिला मातोंडकर ने तो 20 महीने में ही दो-दो पार्टी बदल ली. उर्मिला मातोंडकर ने हाल ही में शिवसेना को अपना लिया है, मालूम नहीं शिवसेना कब तक अपना पाएगी?

उर्मिला मातोंडकर ने तो कांग्रेस तो 2019 में ही ज्वाइन किया और छोड़ भी दिया. 27 मार्च, 2019 से 10 सितंबर, 2019 तक उर्मिला मातोंडकर कांग्रेस में रहीं और मुंबई नॉर्थ सीट से लोक सभा का चुनाव भी लड़ीं. जाहिर है चुनाव जीत कर तो पार्टी छोड़ती नहीं, हार गयीं इसलिए कांग्रेस से अलग हो गयीं.

बाकी नेताओं की तरह उर्मिला मातोंडकर को भी निश्चित तौर पर नये साल में उम्मीदें तो होगी ही. शिवसेना ज्वाइन करने से पहले ही वो कंगना रनौत से भिड़ी हुई थीं. हो सकता है उनके स्टैंड ने भी शिवसेना में एंट्री की राह आसान बनायी हो.

कंगना रनौत से अब तो तकरार खत्म होने का सवाल ही पैदा कहां होता है. अभी अभी कंगना रनौत ने जब मुंबई को प्यारा शहर बताया तो उर्मिला मातोंडकर का सीधा सवाल था - बहन सिर में चोट लगी है क्या? फिल्मों में अक्सर सिर में चोट लगने पर याददाश्त चली जाती है और इंसान बीती बातें भूल जाता है. कंगना रनौत ने कुछ महीने पहले मुंबई को पीओके जैसा बताकर विवाद खड़ा कर दिया था. उर्मिला मातोंडकर का कटाक्ष उसी बात को लेकर है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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