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Updated: 01 सितम्बर, 2015 03:00 PM
श्रीजीत पनिक्कर
श्रीजीत पनिक्कर
  @sreejith.panickar
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1965 की जंग में शास्त्री जी की भूमिका को क्‍या भुला दिया?

वैसे तो भारत के कई मित्र देश हैं लेकिन एक 'आतंकी' देश की उपस्थिति इन मित्र देशों से मिलने वाले फायदों पर भारी पड़ती है, यह पड़ोसी देश है पाकिस्तान. इस देश की वजह से ही भारत को जन-धन का भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है. भारत-पाक के बीच विवाद की शुरुआत लगभग सात दशक पहले बंटवारे के समय से ही शुरू हो गई थी, जो आज भी जारी है.

भारत 1965 की जंग में पाकिस्तान पर मिली जीत की 50वीं वर्षगांठ मना रहा है. तो क्या हमने सच में वह जंग जीती थी. ऐसा सिर्फ हम ही नहीं बल्कि तटस्थ पर्यवेक्षक भी कहते हैं. हालांकि पाकिस्तान भी हमेशा यह दावा करता रहा है कि 1965 की जंग में उसने भारतीय फौजों को जोरदार जवाब दिया था और इसकी याद में हर साल 6 सितंबर को वह रक्षा दिवस के रूप में मनाता है. यह वही देश है जो दावा करता है कि वह सीमा पार के आंतकवाद को प्रायोजित नहीं करता है. यह बात और है कि पाकिस्तान के इस दावों पर हर कोई हंसता है, शायद पाकिस्तान के नेता खुद भी अकेले में इस बयान पर हंसते होंगे.    
कश्मीर हमेशा से पाकिस्तान के लिए एक ऐसा रत्न रहा है जिसे वह हासिल करना चाहता है. इसके लिए उन्होंने ऑपरेशन जिब्राल्टर चलाया था, इसके असफल होने के बाद युद्ध शुरू हो गया. अमेरिकी लेखक स्टैलने वॉलपर्ट ने अपनी किताब इंडिया में लिखा है, अयूब खान एक विशालकाय व्यक्ति थे, जो कि लंबे और शारीरिक रूप से काफी मजबूत थे जबकि भारत के प्रधानंत्री लाल बहादुर शास्त्री छोटे कद के और शारीरिक रूप से कमजोर थे. लेकिन भारत की सेना पाकिस्तानी सेना से चार गुना ज्यादा बड़ी थी और उसने जल्द ही उस पाकिस्तानी धारणा को गलत साबित कर दिया जिसके मुताबिक एक मुस्लिम सैनिक 'दस हिंदू सैनिकों' के बराबर है.' वह पुस्तक के अंत में लिखते हैं कि जब संघर्ष विराम हुआ तो भारत पाकिस्तान के पंजाब की राजधानी को गंभीर नुकसान पहुंचाने की स्थिति में था और साथ ही कश्मीर के लिए सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण उरी-पुंछ दर्रे पर भी नियंत्रण पा चुका था.

जैसा कि पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेएन दीक्षित ने लिखा है, लाल बहादुर शास्त्री ने आश्चर्यजनक तौर पर भारतीय सेनाओं को लड़ाई का क्षेत्र सिर्फ जम्मू-कश्मीर तक सीमित न रखकर पाकिस्तान से जुड़ी पूरी अंतर्राष्ट्रीय सीमा तक फैलाने को कहा था और सेना लाहौर और सियालकोट को निशाना बनाने की तैयारी में थी. शास्त्री के इस फैसले ने पाक सेना को हैरत में डाल दिया और इसी कारण उसे छांब-अखूनर सेक्टर से अपनी सेना को हटाकर उसे लाहौर और सियालकोट तक ही सीमित रखना पड़ा. शास्त्री के इस कदम ने कश्मीर पर नजरें गड़ाए पाकिस्तान को रक्षात्मक होने पर विवश कर दिया. वॉलपर्ट भी अपनी किताब में युद्ध के दौरान भारत के पास मौजूद इस सामरिक बढ़त की तरफ इशारा करते हैं.

संयुक्त राष्ट्र संघ ने संघर्ष विराम का प्रस्ताव रखा जिस पर दोनों देशों ने अपनी सहमति जता दी. इसकी औपचारिकता बाद में ताशकंद समझौते के समय पूरी की गई. यह इन दोनों देशों के बीच हुए कई समझौतों में से एक था. लेकिन जैसा कि वॉलपर्ट लिखते हैं कि शास्त्री ने इस समझौते को लागू करने के लिए कभी आंखें नहीं खोलीं. उन्हें मृत पाया गया. न तो उनका पोस्ट मॉटर्म हुआ और न ही कोई आधिकारिक जांच. मुश्किल समय में काम आने वाले गुलजारी लाल नंदा को दूसरी बार कार्यवाहक प्रधानमंत्री की शपथ दिला दी गई, कहानी खत्म हो गई.

वर्तमान रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर 1965 की जंग में मिली जीत की सालगिरह को ज्यादा तवज्जो न देने के लिए भारतीय मीडिया की आलोचना करते रहे हैं. लेकिन सवाल तो यह है कि देश ने शास्त्री को क्या दिया? उनकी मौत के 69 साल बाद भी शास्त्री का परिवार सिर्फ न्याय मांग रहा है. उनके परिवार का कहना है कि जब उनका पार्थिव शरीर भारत पहंचा तो उस समय उनके शरीर पर ढेरों नीले रंग के निशान थे और साथ ही उस पर चोटों के भी कई निशान थे. सुभाष चंद्र बोस की फाइल की तरह ही हमारी सरकार शास्त्री की मौत से जुड़ी फाइल पर चुप्पी साधे हुए है.

छोटे कद और शारीरिक रूप से कमजोर शास्त्री की सबसे बड़ी पूंजी उनकी रणनीतिक ताकत थी. सबसे बड़ी बात उन्होंने उस सेना को युद्ध जीतने के लिए प्रेरित किया जिसके बारे में पाकिस्तान का मानना था कि चीन से हार के बाद उसका मनोबल काफी नीचे है. इससे यह भी पता चलता है कि शास्त्री के साथ काम करने वाले और निर्णायक पदों पर बैठे लोग कितने काबिल थे. अपने नारे, 'जय जवान, जय किसान' की बदौलत शास्त्री ने सैनिकों और किसानों दोनों को प्रेरित किया. देश की रक्षा के लिए सैनिकों और युद्ध के समय अनाज का उत्पादन बढ़ाकर आयात को घटाने के लिए किसानों की तारीफ की गई.

क्या हम शास्त्री के प्रति अपना फर्ज निभाएंगे? भारतीय सरकार को डर है कि शास्त्री की मौत से जुड़े सच से विदेश संबंध खराब होंगे. क्या लोकतांत्रिक देश में सरकार की लोगों के प्रति कुछ निश्चित जिम्मेदारियां नहीं होती हैं? निस्संदेह सोवियत रूस भारत के दो बड़े नेताओं की मौत/गुमशुदगी के रहस्य को सुलझाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. कोई भी जश्न मनाना तब तक अधूरा है जब तक आजादी दिलाने और गर्व और जुनून के साथ दुश्मनों से देश की रक्षा करने वाले नेताओं की कद्र देश नहीं करता.

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लेखक

श्रीजीत पनिक्कर श्रीजीत पनिक्कर @sreejith.panickar

लेखक 'मिशन नेताजी' के संस्थापक सदस्य हैं.

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