• होम
  • सियासत
  • समाज
  • स्पोर्ट्स
  • सिनेमा
  • सोशल मीडिया
  • इकोनॉमी
  • ह्यूमर
  • टेक्नोलॉजी
  • वीडियो
होम
समाज

साहित्य के शौकीनों को 'न्‍यू हिन्दी' से खौफ कैसा? वह एक पुल ही तो है...

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 10 जनवरी, 2019 09:01 PM
  • 10 जनवरी, 2019 09:01 PM
offline
न्‍यू हिन्दी को लेकर लाख आलोचना हो मगर हमें उसके सकारात्मक पहलुओं पर भी नजर डालनी होगी और समझना होगा कि हिन्दी का बदलता स्वरुप वक्त की जरूरत है.

भारत 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाता है. वहीं पूरा विश्व 10 जनवरी को इसे सेलेब्रेट करता है. हिन्दी के वाक्‍य में 'सेलेब्रेट' शब्‍द लिखने से नाराज मत होइए. वैसे, साहित्य प्रेमियों का एक बड़ा वर्ग इस बात पर खासा परेशान है कि हिन्दी भाषा में अंग्रेजी के शब्‍द जबर्दस्‍ती क्‍यों घुसाए जा रहे हैं. उनकी चेतावनी है कि भाषा के साथ ये गड़बड़झाला किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. साथ ही हिन्दी के इस नए रूप के आलोचक ये भी मानते हैं कि भलाई इसी में है कि हम हिन्दी को हिन्दी ही रहने दें. इन सारी बातों के इतर सच्चाई कुछ और है.

जो बाजार का रुख है वो बता रहा है कि लोग नई वाली हिन्दी को पसंद कर रहे हैं

दिल्ली में पुस्तक मेला लगा है. वीकेंड के इतर वीकडेज में भी ठीक ठाक लोग आ रहे हैं. हिन्दी की किताबें बिक भी खूब रही हैं. सवाल उठता है कि लोग क्या पढ़ रहे हैं? क्या जिन किताबों को बिलिंग काउंटर पर ले जाया जा रहा है. उनमें अब भी मुंशी प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, राही मासूम रजा, इस्मत चुग़ताई, धर्मवीर भारती, सआदत हसन मंटो, महाश्वेता देवी जैसे लेखक अब भी अपनी बादशाहत कायम किये हुए हैं? जवाब है- नहीं. ये सुनने में थोड़ा अटपटा लगेगा मगर ये वो सत्य है जिसे हम नकार नहीं सकते.

लोग ट्रेडीशनल हिन्दी राइटर्स के मुकाबले उन राइटर्स को हाथों हाथ ले रहे हैं जो उनकी तरह दिखते हैं. उनकी तरह बातें करते हैं और जिनकी लाइफ स्टाइल इनसे मिलती जुलती है. पाठक ऐसे राइटर्स को न्‍यू हिन्दी के राइटर्स कह रहे हैं. इनकी हिन्दी, न्‍यू हिन्दी है. ये राइटर्स फेसबुक पर सक्रिय हैं. ट्विटर पर ट्वीट करते हैं और अगर सम्बन्ध अच्छे हुए तो आपकी वर्तनी की गलतियों वाली कविताओं को न सिर्फ पढ़ते हैं बल्कि आपके इनबॉक्स में आकर उस कविता पर प्रतिक्रिया भी देते...

भारत 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाता है. वहीं पूरा विश्व 10 जनवरी को इसे सेलेब्रेट करता है. हिन्दी के वाक्‍य में 'सेलेब्रेट' शब्‍द लिखने से नाराज मत होइए. वैसे, साहित्य प्रेमियों का एक बड़ा वर्ग इस बात पर खासा परेशान है कि हिन्दी भाषा में अंग्रेजी के शब्‍द जबर्दस्‍ती क्‍यों घुसाए जा रहे हैं. उनकी चेतावनी है कि भाषा के साथ ये गड़बड़झाला किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. साथ ही हिन्दी के इस नए रूप के आलोचक ये भी मानते हैं कि भलाई इसी में है कि हम हिन्दी को हिन्दी ही रहने दें. इन सारी बातों के इतर सच्चाई कुछ और है.

जो बाजार का रुख है वो बता रहा है कि लोग नई वाली हिन्दी को पसंद कर रहे हैं

दिल्ली में पुस्तक मेला लगा है. वीकेंड के इतर वीकडेज में भी ठीक ठाक लोग आ रहे हैं. हिन्दी की किताबें बिक भी खूब रही हैं. सवाल उठता है कि लोग क्या पढ़ रहे हैं? क्या जिन किताबों को बिलिंग काउंटर पर ले जाया जा रहा है. उनमें अब भी मुंशी प्रेमचंद, फणीश्वरनाथ रेणु, राही मासूम रजा, इस्मत चुग़ताई, धर्मवीर भारती, सआदत हसन मंटो, महाश्वेता देवी जैसे लेखक अब भी अपनी बादशाहत कायम किये हुए हैं? जवाब है- नहीं. ये सुनने में थोड़ा अटपटा लगेगा मगर ये वो सत्य है जिसे हम नकार नहीं सकते.

लोग ट्रेडीशनल हिन्दी राइटर्स के मुकाबले उन राइटर्स को हाथों हाथ ले रहे हैं जो उनकी तरह दिखते हैं. उनकी तरह बातें करते हैं और जिनकी लाइफ स्टाइल इनसे मिलती जुलती है. पाठक ऐसे राइटर्स को न्‍यू हिन्दी के राइटर्स कह रहे हैं. इनकी हिन्दी, न्‍यू हिन्दी है. ये राइटर्स फेसबुक पर सक्रिय हैं. ट्विटर पर ट्वीट करते हैं और अगर सम्बन्ध अच्छे हुए तो आपकी वर्तनी की गलतियों वाली कविताओं को न सिर्फ पढ़ते हैं बल्कि आपके इनबॉक्स में आकर उस कविता पर प्रतिक्रिया भी देते हैं.

नई हिन्दी में पटक रचना से अपने को जुड़ा हुआ देख रहा है

अपने पसंदीदा फुटबॉल क्लब की टीशर्ट और घुटनों से फटी जींस पहने ये लेखक, कई मायनों में उन पारंपरिक लेखकों से अलग हैं जिन्होंने हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर स्थापित किये थे. इन लेखकों को एकांत नहीं भीड़ भाड़ पसंद है. ये पब जाते हैं. गेट टुगेदर करते हैं और इनका पब जाना और गेट टुगेदर करना इनकी रचनाओं के पात्रों में झलकता भी है. माना जा रहा है यही वो एकमात्र कारण है जिसके चलते एक पाठक ने अपने को इनसे और इनकी रचनाओं से जोड़ लिया है. पाठक जब इनको पढ़ रहा होता है तो पढ़ते वक़्त उसे बस यही महसूस होता है कि जो भी इसने लिखा वो उसकी जिंदगी से जुड़ा हुआ है.

चूंकि न्‍यू हिन्दी के लेखकों की रचनाएं भी अलग हैं और अगर इनका अवलोकन किया जाए तो खुद सारी बातें साफ हो जाती हैं. पता चलता है कि अपनी प्रेमिका या फिर किसी अन्य महिला मित्र से मिलते हुए किताब के पात्र ने पूरा एक वाक्य अंग्रेजी में बोल दिया. या फिर उन शब्दों का इस्तेमाल कर लिया जिनका इस्तेमाल किया जाना ट्रेडीशनल हिन्दी के पुरोधाओं को नागवार गुजर गया.

भारत जैसे देश में आलोचना में वक़्त नहीं लगता. न्‍यू हिन्दी के लेखकों और इनकी नई वाली हिन्दी की खूब आलोचनाएं हो रही हैं. लोग पानी पी-पीकर इनसे सवाल पूछ रहे हैं.

नई हिन्दी को आगे ले जाने की दिशा में काम करता हिन्दी युग्म

न्‍यू हिन्दी क्या है? ये किस तरह ट्रेडीशनल हिन्दी से अलग है ये सवाल हमारे सामने भी था. हम भी जानने को आतुर थे कि आखिर माजरा क्या है जो इतना हो-हल्ला हो रहा है. सवाल हमने खुद न्‍यू हिन्दी के मजबूत स्तम्भ और 'Terms & Conditions Apply,''मसाला चाय' और 'मुसाफ़िर Cafe' और अक्टूबर जंक्शन जैसी बेस्ट सेलर किताब के लेखक दिव्य प्रकाश दुबे से पूछा. दिव्य ने बहुत ही सधे हुए और कम शब्दों में हमारी शंका का निवारण कर दिया. दिव्य का मानना है कि न्‍यू हिन्दी वो पुल है जिसपर चलकर पुरानी और ट्रेडीशनल हिन्दी तक आया जा सकता है.

हिन्दी को 'न्‍यू हिन्दी' क्यों बनाना पड़ा इसपर भी दिव्य के अपने तर्क हैं. दिव्य बताते हैं कि 2012 के आस पास हिन्दी की स्थिति वर्तमान स्थिति से बिल्कुल अलग थी. न ही किताबें थीं और न ही प्रकाशक उन्हें प्रकाशित करने की जहमत उठाता था. किताब छप भी गई तो उनकी संख्या 400 - 500 होती. कोई बड़ा अखबार उनका रिव्यू कर देता. हिन्दी के नाम पर कोई इवेंट हो जाता वहां रेणु या फिर प्रेमचंद पर परिचर्चा होती. चाय नाश्ता मिलना मिलाना होता और लोग अपने अपने घर चले जाते फिर उसके अगले बरस ऐसा ही इवेंट पुनः दोहराया जाता. नई हिन्दी ने इस मिथक को तोड़ा है.

नई वाली हिन्दी के पोस्टर बॉय दिव्य प्रकाश दुबे

दिव्य का मानना है कि ये न्‍यू हिन्दी के प्रति लोगों का प्यार ही है जिसके चलते आज हम हिन्दी किताबों की प्री-बुकिंग देखते हैं जबकि उसी 2012 में हिन्दी किताबों की प्री बुकिंग की कोई अवधारणा नहीं थी. तब उस समय  उन्होंने हिन्दी किताबों के लिए फ्लिप्कार्ट से बात की और चूंकि हिन्दी पाठकों की संख्या कम थी फ्लिप्कार्ट ने प्री-बुकिंग से मना कर दिया. बाद में इन लोगों ने खुद प्रयास किये और अपने जरिये ही किताबों को प्री बुक किया और फ्लिप्कार्ट को नंबर दिखाए. फ्लिप्कार्ट को नंबर चाहिए थे और बाद में वो इन किताबों को बेचने के लिए राजी हो गया.

न्‍यू हिन्दी पर बोलते हुए दिव्य ने ये भी कहा कि इस स्टाइल में जो भी लेखक रचनाएं कर रहे हैं भले ही उनकी रचनाएं अलग हों मगर इन रचनाओं की खास बात ये है कि चूंकि ये रचनाएं अपने पात्रों से शुरू होती हैं इसलिए इसमें उस भाषा का इस्तेमाल किया गया है जो पात्र बोलते हैं और पात्र कैंटीन में काम करने वाले छोटू से लेकर किसी छोटे शहर की एस्पायरिंग मॉडल तक कोई भी हो सकता है.

नई हिन्दी पर लग रहे तमाम तरह के आरोपों को खारिज करते हुए दिव्य ने कहा है कि, इस विधा में इस्तेमाल हुई भाषा का उद्देश्य हिन्दी साहित्य के पुरोधाओं की खिल्ली उड़ाना नहीं है. बल्कि वो पाठकों को इतना सहज बना रहे हैं कि वो उन उपन्यासों को पढ़ सकें जो हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हुए हैं.

नई वाली हिन्दी में काफी अलग तरह की भाषा का इस्तेमाल किया गया है

जब दिव्य से ये प्रश्न हुआ कि वो न्‍यू हिन्दी को लेकर क्या सपना संजोए बैठे हैं तो इसपर उनका तर्क बस इतना था कि क्योंकि अभी बस शुरुआत है मगर भविष्य में या फिर आज से 15 या 20 सालों के बाद न्‍यू हिन्दी में शमिल लोग जरूर ऐसे 3 - 4 उपन्यास लेकर आएंगे जो ठीक वैसे ही देखे जाएंगे जैसे आज प्रेमचंद से लेकर रेणु तक के उपन्यास देखे जाते हैं.

न्‍यू हिन्दी को लेकर हमने लंदन में रह रहे हिन्दी लेखक और द डार्क नाईट के ऑथर संदीप नैयर से सवाल किया. न्‍यू हिन्दी को लेकर संदीप का कहना है कि, न्‍यू हिन्दी मार्केटिंग स्लोगन है. चूंकि हिंदी साहित्य बौद्धिकता, विचारधारा और विद्वता से भरा था इसलिए वह आम जनमानस से कट गया था और इसी को रिवाइव करने के लिए इस टर्म 'नई हिन्दी' की शुरुआत की गई. संदीप के अनुसार, नई हिन्दी का उद्देश्य आज के लोगों के साथ जुड़ना है इसलिए इस तरह की रचना के वक़्त इस बात का ख्याल रखा जाता है कि भाषा सरल हो और लोग उससे अपने को जुड़ा हुआ महसूस करें इसलिए उसमें अंग्रेज़ी को डाला गया है.

बात जब इस तरह की हिन्दी के उद्देश्य की हुई तो इसपर ये कहकर संदीप ने अपनी बात को विराम दिया कि उत्तरप्रदेश और बिहार के शहरी और कस्बाई युवा पाठकों को ध्यान में रखकर लिखा गया साहित्य ही नई हिन्दी वाला साहित्य है.

अंत में बस इतना ही कि न्‍यू हिन्दी का भविष्य क्या होगा उसपर कुछ कहना अभी जल्दबाजी है मगर जो वर्तमान है वो ये साफ बता रहा है कि हिन्दी का ये बदला हुआ रूप लोगों को पसंद आ रहा है और जिस तरफ आज के युवा नई हिन्दी की किताबों को पढ़ रहे हैं साफ है कि आगे आने वाले समय में भी इसे पाठकों द्वारा ऐसे ही पसंद किया जाएगा.

ये भी पढ़ें -

क्या 'न्यू हिन्दी' के नाम पर बाज़ारवाद की भेंट चढ़ जाएगी हमारी भाषा

साहित्य बदलता है, हिन्दी साहित्य बिल्कुल बदल रहा है

अब तो खुद को सुधार लो हिन्दी वाले मास्टर जी


इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

ये भी पढ़ें

Read more!

संबंधि‍त ख़बरें

  • offline
    आम आदमी क्लीनिक: मेडिकल टेस्ट से लेकर जरूरी दवाएं, सबकुछ फ्री, गांवों पर खास फोकस
  • offline
    पंजाब में आम आदमी क्लीनिक: 2 करोड़ लोग उठा चुके मुफ्त स्वास्थ्य सुविधा का फायदा
  • offline
    CM भगवंत मान की SSF ने सड़क हादसों में ला दी 45 फीसदी की कमी
  • offline
    CM भगवंत मान की पहल पर 35 साल बाद इस गांव में पहुंचा नहर का पानी, झूम उठे किसान
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.

Read :

  • Facebook
  • Twitter

what is Ichowk :

  • About
  • Team
  • Contact
Copyright © 2025 Living Media India Limited. For reprint rights: Syndications Today.
▲