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समाज

क्या 'न्यू हिन्दी' के नाम पर बाज़ारवाद की भेंट चढ़ जाएगी हमारी भाषा

    • कल्याण आर गिरी
    • Updated: 10 जनवरी, 2019 07:00 PM
  • 10 जनवरी, 2019 06:59 PM
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जब सरसों का तेल बाज़ार में था, उसी समय रिफाइन तेल बाजार में आया. सरसों के तेल को बाजार को स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बताया गया और रिफाइन तेल को स्थापित किया गया. हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में 'नई वाली हिन्दी' का मामला भी कुछ ऐसा ही है.

एक नारा है 'न्यू इंडिया' और एक है 'न्यू हिन्दी.' पिछले साढ़े चार सालों में, मैं भारत देश और भाषा हिन्दी को नया करने के नाम पर भ्रमित करते देख रहा हूं. न्यू इंडिया में क्या है? 'फांसीवाद, जातिवाद, मॉब लिंचिंग और ज़बरदस्ती अपनी बात मनवाने का चलन. सीधे अर्थों में कहें तो लोकतांत्रिक तरीके से लोकतंत्र की हत्या की जा रही है.इसी तरह 'न्यू इंडिया' में न्यू हिन्दी कह कर हिन्दी को मारा जा रहा है.

राजनीति करने वाले स्वतंत्र भारत के सत्तर वर्षों के पुरुषार्थ पर खखार कर थूकते हुए कह रहे हैं, जो विकास देश का उन्होंने साढ़े चार साल में कर दिया और किसी ने नहीं किया. जबकि न्यू इंडिया की बात करने वाले नेता की भाषा, बात कहने की शैली सब दोयम दर्जे की होती हैं जिस पर हम ताली बजा रहे होते हैं. ऐसा हमेशा हो यह संभव नहीं है.

नई वाली हिन्दी को लेकर माना जा रहा है कि इसने भाषा को खराब किया है

अब न्यू हिन्दी के बारे में-

'न्यू हिन्दी के सरदार ने हिन्दी से पैसा कमा कर दिखाने का प्रण लिया था.' एक भोजपुरी कहावत है, 'गरीब की लुगाई, गांव भर की भौजाई.' वरना हिन्दी की किताब में अंग्रेजी के शब्द चिपकाए जाने पर कोई विरोध तो करता न? समृद्ध हिन्दी, गरीबों की भाषा है. हिन्दी मिट्टी की भाषा है, हिन्दी भाव की भाषा है. इसको गरीब इसे बोलने, पढ़ने और लिखने वालों ने ही बनाया है. जो हिन्दी लिख कर बड़े हो चुके हैं अब 'शिथिलसत्व' प्राप्त कर चुके हैं. उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि हिन्दी के साथ अब क्या हो रहा है?

हिन्दी भाषियों को हिन्दी की कभी सुध थी ही नहीं. वो भाषा को दूध से भरा गिलास समझते हैं और दूध पीने के बाद उस गिलास को फेंक देते हैं. दोबारा देखने भी नहीं जाते कि उस दूध के गिलास में किसी ने महुए की शराब भर दी है. बस यहीं एक...

एक नारा है 'न्यू इंडिया' और एक है 'न्यू हिन्दी.' पिछले साढ़े चार सालों में, मैं भारत देश और भाषा हिन्दी को नया करने के नाम पर भ्रमित करते देख रहा हूं. न्यू इंडिया में क्या है? 'फांसीवाद, जातिवाद, मॉब लिंचिंग और ज़बरदस्ती अपनी बात मनवाने का चलन. सीधे अर्थों में कहें तो लोकतांत्रिक तरीके से लोकतंत्र की हत्या की जा रही है.इसी तरह 'न्यू इंडिया' में न्यू हिन्दी कह कर हिन्दी को मारा जा रहा है.

राजनीति करने वाले स्वतंत्र भारत के सत्तर वर्षों के पुरुषार्थ पर खखार कर थूकते हुए कह रहे हैं, जो विकास देश का उन्होंने साढ़े चार साल में कर दिया और किसी ने नहीं किया. जबकि न्यू इंडिया की बात करने वाले नेता की भाषा, बात कहने की शैली सब दोयम दर्जे की होती हैं जिस पर हम ताली बजा रहे होते हैं. ऐसा हमेशा हो यह संभव नहीं है.

नई वाली हिन्दी को लेकर माना जा रहा है कि इसने भाषा को खराब किया है

अब न्यू हिन्दी के बारे में-

'न्यू हिन्दी के सरदार ने हिन्दी से पैसा कमा कर दिखाने का प्रण लिया था.' एक भोजपुरी कहावत है, 'गरीब की लुगाई, गांव भर की भौजाई.' वरना हिन्दी की किताब में अंग्रेजी के शब्द चिपकाए जाने पर कोई विरोध तो करता न? समृद्ध हिन्दी, गरीबों की भाषा है. हिन्दी मिट्टी की भाषा है, हिन्दी भाव की भाषा है. इसको गरीब इसे बोलने, पढ़ने और लिखने वालों ने ही बनाया है. जो हिन्दी लिख कर बड़े हो चुके हैं अब 'शिथिलसत्व' प्राप्त कर चुके हैं. उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि हिन्दी के साथ अब क्या हो रहा है?

हिन्दी भाषियों को हिन्दी की कभी सुध थी ही नहीं. वो भाषा को दूध से भरा गिलास समझते हैं और दूध पीने के बाद उस गिलास को फेंक देते हैं. दोबारा देखने भी नहीं जाते कि उस दूध के गिलास में किसी ने महुए की शराब भर दी है. बस यहीं एक संगठित समूह गाजे-बाजे और धूम-धाम के साथ आकर हिन्दी को न्यू हिन्दी कह कर प्राचीन भाषा को नया करता है और हिन्दी से पैसा कमाने के लिए तमाम हथकंडे, झूठे आंकड़े, फर्जी प्रचार के माध्यम से स्थापित करता है कि पुरानी हिन्दी से बेहतर है न्यू हिन्दी लेकिन ये सब पैसा कमाने के लिए था.'

पैसा कमाने का भाव रखने वाला भला नहीं करता, पैसा कमाता है.' यहां आप वर्तमान राजनीति को देखिये और न्यू हिन्दी को दखिये, कमाल की समानता मिलेगी. जैसे कि - 'देश का रुतबा बढ़ गया इन साढ़े चार सालों में.' 'न्यू हिन्दी ने हिन्दी को लोकप्रिय बना दिया है.' 'भारत का विकास हुआ है.' 'साहित्य का भला हुआ है.' न्यू इंडिया के नेता लंदन में प्रायोजित सभा में अपनी तारीफ़ का सेतु बंधवाते हैं. न्यू हिन्दी में साहित्यकार लेट कर इंटरव्यू देते हैं और बड़े साहित्यकार को उसकी गलतियां गिनाने से भी नहीं चूकते.

अब आते हैं इस बात पर कि विरोध क्यों नहीं हो रहा?

न्यू इंडिया का नेता अपना विरोध करने वाले को 'आडवाणी' बना देता है. न्यू हिन्दी वाले किसी को भी 'शाह' बना सकते हैं इसलिए कोई विरोध नहीं कर पाता. लेकिन फर्जीवाड़ा हमेशा नहीं रहता. बाकी सब बढ़िया है.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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