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Women's Day 2022 : देवी को छोड़िए, वो मनुष्य का दर्जा पाने के लिए युद्धरत है!

    • सरिता निर्झरा
    • Updated: 08 मार्च, 2022 04:20 PM
  • 08 मार्च, 2022 04:20 PM
offline
Women's Day 2022: इज़्ज़त कोई मुश्किल अष्टांग सूर्यनमस्कार की प्रक्रिया नहीं है, केवल हाव भाव व्यव्हार में इतनी सी बात समझनी है कि स्त्री आप जैसी ही जीती जागती मनुष्य है. महिला दिवस पर कुछ नहीं बस - देवी सा दर्जा नहीं ,स्त्री को मनुष्य रूप में सम्मान दें.

संसार युद्ध देख रहा है. सोचती हूं युद्ध में जीत जिसकी भी हो, हर युद्ध की तरह यहां भी स्त्री हारेगी. दोनों देशों की. यूं भी स्त्री जीवन अपने आप में एक निरंतर युद्ध है. इसी मार्च में आया है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस. इसके आगे फलाना ढिमकाना कुछ भी लिख लूं, मुद्दा तो जस का तस है. है न!

मतलब मांगा क्या है. यही कि साथी - साथ खड़े रहो रहने दो.

साथ - बराबर.

साझा हो जीवन और उसकी नेमतें.

महिलाओं को इज्जत चाहिए बेहतर है कि उन्हें उचित इज्जत दी जाए

लेकिन न जी! मतलब सदियों की कंडीशनिंग ने तुम लोगो की, हां-हां मर्दों और कुछ हद तक औरतों के दिमाग पर जो जाले डाले हैं, कि साफ साफ नज़र आने वाली बात भी धुंधली नज़र आती है. मसलन पुरुष और नारी हैं तो मनुष्य जाति के ही. होमोसेपियन यू सी. तो उस नाते एक बेसिक रेस्पेक्ट मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति होने वाला स्वाभाविक सम्मान- ये तो होना ही चाहिए न. लेकिन इसमें ही कितनी दिक्क्तें है.

नारी का सम्मान करेंगे तो गाली कैसे देंगे?

अपने किये अपराधों का ठीकरा उसके चरित्र पर कैसे फोड़ेंगे?

अपनी कमियों को उस पर ऊंची आवाज़ में चिल्ला कर यहां तक कि हाथ उठा कर कैसे देंगे?

न न सम्मान की बात मत करो.

छटांक भर इज़्ज़त - मन भर का अहम

जी ये छटांक भर इज़्ज़ात स्त्रियों के हिस्से और मन भर अहम! सोचिये सोचिये ! हां सही पकड़े है!

तो स्त्री की इज़्ज़त की धज्जियां केवल उस एक घनौने अपराध से नहींं उड़ती. एक स्त्री की अस्मिता को उसके अलावा भी रोज़मर्रा के जीवन में कई कई बार...

संसार युद्ध देख रहा है. सोचती हूं युद्ध में जीत जिसकी भी हो, हर युद्ध की तरह यहां भी स्त्री हारेगी. दोनों देशों की. यूं भी स्त्री जीवन अपने आप में एक निरंतर युद्ध है. इसी मार्च में आया है अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस. इसके आगे फलाना ढिमकाना कुछ भी लिख लूं, मुद्दा तो जस का तस है. है न!

मतलब मांगा क्या है. यही कि साथी - साथ खड़े रहो रहने दो.

साथ - बराबर.

साझा हो जीवन और उसकी नेमतें.

महिलाओं को इज्जत चाहिए बेहतर है कि उन्हें उचित इज्जत दी जाए

लेकिन न जी! मतलब सदियों की कंडीशनिंग ने तुम लोगो की, हां-हां मर्दों और कुछ हद तक औरतों के दिमाग पर जो जाले डाले हैं, कि साफ साफ नज़र आने वाली बात भी धुंधली नज़र आती है. मसलन पुरुष और नारी हैं तो मनुष्य जाति के ही. होमोसेपियन यू सी. तो उस नाते एक बेसिक रेस्पेक्ट मनुष्य का दूसरे मनुष्य के प्रति होने वाला स्वाभाविक सम्मान- ये तो होना ही चाहिए न. लेकिन इसमें ही कितनी दिक्क्तें है.

नारी का सम्मान करेंगे तो गाली कैसे देंगे?

अपने किये अपराधों का ठीकरा उसके चरित्र पर कैसे फोड़ेंगे?

अपनी कमियों को उस पर ऊंची आवाज़ में चिल्ला कर यहां तक कि हाथ उठा कर कैसे देंगे?

न न सम्मान की बात मत करो.

छटांक भर इज़्ज़त - मन भर का अहम

जी ये छटांक भर इज़्ज़ात स्त्रियों के हिस्से और मन भर अहम! सोचिये सोचिये ! हां सही पकड़े है!

तो स्त्री की इज़्ज़त की धज्जियां केवल उस एक घनौने अपराध से नहींं उड़ती. एक स्त्री की अस्मिता को उसके अलावा भी रोज़मर्रा के जीवन में कई कई बार उछाला जाता है. आज के दिन आपकी तवज्जो उन बातों पर. पारम्परिक भाषा में गालियों की महत्ता पर ज़्यादा टिप्पणी देने की आवश्यकता नहीं है, आप समझ ही गए होंगे.

तो सोचिये जब आप कहते हैं तेरी... गाली किसे पड़ी? सामने वाले को या उसकी बेखबर माँ अथवा बेकसूर बहन को? सो दिस गोस वाइस वर्सा! आपको दी गयी गलियां भी घर बैठी- जी सही समझ रहे हैं न? अभी से शर्मिदगी को अपने पास न आने दे. आगे और है.

शिक्षा के बाद आप जन ने हमको कामकाजी, 'धनोपार्जन' यानी 'जॉब' की 'इजाज़त' दे दी. लेकिन सीमा में रह कर. मतलब 9 से 5. हद से हद 6. अच्छा चलो 7. इसके बाद? खुदा खैर करे ये कौन सा ऑफिस है जो रात नौ बजे तक चलता है? आउट स्टेशन ट्रिप! अरे नहीं इज़्ज़तदार घरों में इस तरह की नौकरियां अच्छी नहीं मानी जाती.

और हां कपड़े. एड़ी तक सुघड़ सुशील, टखनों तक स्टाइलिश, घुटनो तक मॉडर्न, घुटनों से ऊपर! ऐसे वैसे कपड़ों में घूमेंगी 'तभी तो होता है ये सब'. पड़ोस के बाइनोकुलर अंकल आंटियां- 'समय का कोई भरोसा ही नहीं. देर रात भी आती है. कपड़ो से तो पूरी आज़ाद ख्याल छुट्टे छूटी मालूम होती है. भला ये कौन सी नौकरी है? ज़रूर कुछ दाल में काला है. पर हमें क्या!' इसे भी अस्मिता पर हमला ही मान सकते है.

ऑफिस में महिलाएं तो होंगी ही. उनके डीप नेक ब्लॉउस, साड़ी से झलकती कमर पर जो नज़र घूमती है यकीन जानिए जोंक सी महसूस होती है. और गलती से फ़ाइल लेते देते, प्रेसेंटेशन बताते समझाते कंधे पर टिका हाथ गर्म लोहे सा महसूस होता है. जी चाहता है कहीं से सच की गर्म रॉड मिलती तो... उस डिस्कम्फर्ट, लिजलिजे एहसास को स्त्री कभी भूल नहीं पाती.

कंसेंट का कॉन्सेप्ट सोशल डिक्शनरी में है ही नहीं. और शर्म का गहना तो स्त्रियों का है, आप भला क्यों उसे शिरोधार्य करें. वैसे आज वो हैं कल आपकी बिटिया हो सकती है.

जस्ट टेलिंग! रेलक्स...

इसी ऑफिस में किसी हॉउस पार्टी में केक काटने के बाद मौजूद फीमेल स्टाफ से यह कहते हुए ठहाके लगाना कि - अरे आप बांट दो न केक आपका तो रोज़ का यही काम है! बिलकुल वैसा ही है जैसे पुरुष से कहा जाये की ऑफिस की गाड़ी से सभी को घर छोड़ दे क्योंकि रोज़ गाड़ी ही तो चलाता है. रियली इट्स नॉट फनी.

पीरियड क्रैम्प यूं तो हर्ट अटैक के बराबर का दर्द देता है और उसे हम हर महीने सहते है. प्रकृति की देन है लेकिन आप जो हमारे गुस्से, खराब दिन या बिगड़े मूड को, 'दैट पीरियड ऑफ़ द मंथ 'बोल कर मुस्करा लेते हैं न, कसम से जी चाहता है की हर्ट अटैक आपको देदे! बी ए बिट लेस ईडीऑटिक प्लीज़!

जिस मातृत्व पर न्योछावर हो कर समाज हमे मां से बढ़कर देवी का स्थान देता है उसी मातृत्व के बाद बढ़े वज़न और बच्चे में उलझी मां को शर्मिंदा करने में आप जन पीछे नहीं रहते! द लेटेस्ट - नेहा धूपिया को अपने बढ़े वज़न के नाते सोशल मिडिया पर ट्रोल किया गया बिना ये जाने की प्रेग्नेंसी के नाकाबिले बर्दाश्त दर्द के बाद उस कमज़र्फ को पैदा कर के उसकी मां का भी यही हाल हुआ होगा.

और आखिर में पुरुषार्थ को शर्मिंदा करती हुई हरकत जब घर की स्त्री पर हाथ उठा देते हो तुम. उसकी अस्मिता आत्मसम्मान सबकी धज्जियां उड़ती है और भरे पूरे घर में वो रीते हाथ रह जाती है. मतलब क्या क्या बताएं. इस सबके बावजूद आज की स्त्री खड़ी है, डटी है, लड़ रही है - स्त्री आगे बढ़ रही है.

इज़्ज़त कोई मुश्किल अष्टांग सूर्यनमस्कार की प्रक्रिया नहीं है, केवल हाव भाव व्यव्हार में इतनी से बात समझनी है की स्त्री आप जैसी ही जीती जागती मनुष्य है. महिला दिवस पर कुछ नहीं बस - देवी सा दर्जा नहीं, स्त्री को मनुष्य रूप में सम्मान दे.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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