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सेनेटरी नैपकिन का नाम व्हिस्पर क्यों है? औरतों के मामले फुसफुसाने वाले क्यों हैं?

    • नाज़िश अंसारी
    • Updated: 08 मार्च, 2022 04:41 PM
  • 08 मार्च, 2022 02:21 PM
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ऊपरी सुंदरता दिखाने के बजाय अपनी सेहत और शौक़ पर भी पैसे खर्च करें. ना कमा रही हों तो जानिए पति की कमाई आधी आपकी है. बेटे की सारी. बच्चों को पालते हुए उन्हें आत्मनिर्भर बनाएं. परजीवी नहीं. थोड़ा खुदगर्ज़ हो लें. ताकि आपका 'नहीं/हां/मुझे चाहिये' ज़ोर से सुनाई दे. क्योंकि गूगल बाबा कहते हैं, 'बोलने से ही सब होगा'. नॉऊ नो मोर व्हिसपर.

आर माधवन की 'डीकपल्ड' वेब सीरीज याद होगी आपको. जिसने नहीं देखी उनके लिये बता दूं इसमें नायिका की मां को ऐसा वाला आधुनिक दिखाया गया है जो गे कपल को देख बजाय बिदकने के हैप्पी हनीमून, एन्जॉय योरसेल्फ बोलती हैं. लेकिन यही मां यूरिन इन्फेक्शन के चलते अपने पति को सेक्स के दौरान कंडोम पहनने की सलाह नहीं दे पाती. चाहती हैं बेटी बाप से बात करे. इस पूरे कांसेप्ट में कंडोम, मां का बेटी से अपनी सेक्सुअल प्रॉब्लम डिस्कस करना, गे को हैप्पी कपल के तौर पर ऐक्सेप्ट करना जैसे मुद्दों पर संस्कृति के ठेकेदारों की त्योरियां चढ़ सकती हैं. हू केअर्स... और कब तब परवाह की जाएगी. कब तक वेजाइनल और यूट्रस प्रॉब्लम्स को 'औरतों वाली बीमारी' के नाम से फुसफुसा कर डिसकस किया जाएगा. मेरी जानने वाली एक 21 साल की लड़की का यूट्रस, कैंसर के चलते निकाला गया. गनीमत रही कि वो बच गयी. घर में रोना धोना मचा. बिन यूट्रस के लड़की मां नहीं बन सकती. शादी नहीं होगी. ऐसी ज़िंदगी किस काम की. बच क्यों गयी. मर क्यों ना गयी. (वैसे यह सारी बातें भी फुसफुसा कर ही कही गयी, कि बात जितने दिन दबी रहे, अच्छा है)

महिलाओं के मद्देनजर स्वास्थ्य एक बड़ा मुद्दा है जिसपर बात होनी ही चाहिए

फुसफुसाने से याद आया, सबसे ज़्यादा बिकने वाले सेनेटरी नैपकिन का नाम व्हिस्पर क्यों है? और क्यों देश भर की दुकानों में यह कागज़ या/और काली पॉलीबैग में लपेट के दिये जाते हैं? पीरियड्स को महिलाओं के बायोलॉजिकल फैक्टर के तौर पर क्यों बिना झिझक/शर्म के ऐक्सेप्ट नहीं किया जाता. जबकि 12-13 साल की उम्र में यह जननेन्द्रिय और प्रजनन प्रकिया के तहत स्कूलों में पढ़ा दिया जाता है. (वैसे हमाए टीचर ने कहा था इसे घर से पढ़ के आना.)

पीरियड क्रम्प्स में होने वाला दर्द हार्ट अटैक के बराबर होता है. ऐसा डॉक्टर्स कहते हैं....

आर माधवन की 'डीकपल्ड' वेब सीरीज याद होगी आपको. जिसने नहीं देखी उनके लिये बता दूं इसमें नायिका की मां को ऐसा वाला आधुनिक दिखाया गया है जो गे कपल को देख बजाय बिदकने के हैप्पी हनीमून, एन्जॉय योरसेल्फ बोलती हैं. लेकिन यही मां यूरिन इन्फेक्शन के चलते अपने पति को सेक्स के दौरान कंडोम पहनने की सलाह नहीं दे पाती. चाहती हैं बेटी बाप से बात करे. इस पूरे कांसेप्ट में कंडोम, मां का बेटी से अपनी सेक्सुअल प्रॉब्लम डिस्कस करना, गे को हैप्पी कपल के तौर पर ऐक्सेप्ट करना जैसे मुद्दों पर संस्कृति के ठेकेदारों की त्योरियां चढ़ सकती हैं. हू केअर्स... और कब तब परवाह की जाएगी. कब तक वेजाइनल और यूट्रस प्रॉब्लम्स को 'औरतों वाली बीमारी' के नाम से फुसफुसा कर डिसकस किया जाएगा. मेरी जानने वाली एक 21 साल की लड़की का यूट्रस, कैंसर के चलते निकाला गया. गनीमत रही कि वो बच गयी. घर में रोना धोना मचा. बिन यूट्रस के लड़की मां नहीं बन सकती. शादी नहीं होगी. ऐसी ज़िंदगी किस काम की. बच क्यों गयी. मर क्यों ना गयी. (वैसे यह सारी बातें भी फुसफुसा कर ही कही गयी, कि बात जितने दिन दबी रहे, अच्छा है)

महिलाओं के मद्देनजर स्वास्थ्य एक बड़ा मुद्दा है जिसपर बात होनी ही चाहिए

फुसफुसाने से याद आया, सबसे ज़्यादा बिकने वाले सेनेटरी नैपकिन का नाम व्हिस्पर क्यों है? और क्यों देश भर की दुकानों में यह कागज़ या/और काली पॉलीबैग में लपेट के दिये जाते हैं? पीरियड्स को महिलाओं के बायोलॉजिकल फैक्टर के तौर पर क्यों बिना झिझक/शर्म के ऐक्सेप्ट नहीं किया जाता. जबकि 12-13 साल की उम्र में यह जननेन्द्रिय और प्रजनन प्रकिया के तहत स्कूलों में पढ़ा दिया जाता है. (वैसे हमाए टीचर ने कहा था इसे घर से पढ़ के आना.)

पीरियड क्रम्प्स में होने वाला दर्द हार्ट अटैक के बराबर होता है. ऐसा डॉक्टर्स कहते हैं. 'कहीं भी जाओ, कुछ भी करो. दाग लगने की कोई टेंशन नहीं'. कह कर सेनेटरी नैपकिन बेचने वाली कम्पनियां औरतों को टेंशन फ़्री कर सकती हैं लेकिन पेन फ़्री नहीं. 'रुकना नहीं, आगे बढ़ते रहना' कहकर यह कंपनियां औरतों की ज़िंदगी को आसान तो बनाती हैं लेकीन ब्रेक लेकर आराम करने की हिमायत नहीं करती. (जबकि उस दौरान ज़रूरत होती है)

लेबर पेन जिसकी वजह से जन्नत औरत के पांव तले रख दी गयी. प्रसव के दौरान जब यह दर्द चरम पर होता है, गाय-भैस की तरह हाहाकारी मचाती औरतों को नर्से फटकारते हुए कहती हैं, शोर ना मचाओ. बाहर आवाज़ जाएगी. आदमी लोग सुनेंगे तो क्या सोचेंगे. सब हंसेंगे तुम पर. समझ नहीं आता लेबर रुम में नीम बेहोशी की हालत में पड़ी औरत मर्दों को संवेदनशील बनाने के तरीक़ो के बारे में सोचे या नर्स की 'नीचे की तरफ ज़ोर लगाओ' के इंस्ट्रक्शन को फॉलो करे.

80-90% औरतों को बच्चे जनने के बाद खून, आयरन, कैल्शियम की कमी हो ही जाती है. उसी से कमर दर्द की शिकायत. लेकिन सबको खिला पिला कर, घर समेटने के बाद (वर्किंग हो या हाउस मेकर, अघोषित रूप से यह तय है रात में घर औरतें ही समेटिंगी) लेटते वक़्त अपने ही हाथों से कभी पैर, कमर, कभी सर में तेल लगाएंगी. उनकी नासाज़ तबियत की खबर घर में कम ही फैलती है. वजह, पति/बेटे का हाथ ज़रा तंग है इन दिनों (आर्थिक निर्भरता). किसी के पास फुर्सत नहीं है (उपेक्षित). मेरा घर बिगड़ जाएगा (स्वयं ज़िम्मेदार).

उनके मस्तिष्क की संरचना मल्टीटास्किंग के लिये परफ़ेक्ट होती है. इसी बनावट के चलते उन्हें नींद भी मर्दों के मुक़ाबले ज़्यादा चाहिये. लेकिन कम सोती ज़्यादा जगती औरतें भरपूर नींद को ख्वाब मानकर इस पर कविता कहती/ सुनती रहती हैंं. (तभी प्रेगा न्यूज़ जैसी कम्पनियां 'शी कैन कैरी बोथ' के नाम पर उनकी पीठ थपथपाकर पितृसत्ता को मज़बूत करती एक कील और ठोंक देती हैं.)

फाउंडेशन, कंसीलर, लिप्स्टिक से ऊपरी सुंदरता दिखाने के बजाय फल, मेवे, खानगी, दवाईयों, किताबो, ज़रूरतों के साथ शौक़ पर भी पैसे खर्च करें. ना कमा रही हों तो जानिए पति की कमाई आधी आपकी है. बेटे की सारी. बच्चों को पालते हुए उन्हें आत्मनिर्भर बनाए. परजीवी नहीं. खुद से प्यार कर लें. दुलार लें. थोड़ा खुदगर्ज़ हो लें. ताकि आपका 'नहीं/हां/मुझे चाहिये' ज़ोर से सुनाई दे. क्योंकि गूगल बाबा कहते हैं, 'बोलने से ही सब होगा'. नॉऊ नो मोर व्हिसपर.

एक आखिरी बात, महिला दिवस पर सब अखबार, मैगजीन, वेबसाइट्स को गुलाबी रंग से सराबोर करने वाले जान लें औरतें कलर ब्लाइंड नहीं होती. उनका ब्रेन कलर डिस्क्रिमिनेशन मर्दों के मुक़ाबले ज़्यादा बेहतर समझता है. और सभी महिलाओं को गुलाबी रंग पसंद भी नहीं होता.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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