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Rahi Masoom Raza Birthday: 'समय' को स्टोरीटेलर बनाकर नये ज़माने के व्यास बन गए राही!

    • नाज़िश अंसारी
    • Updated: 01 सितम्बर, 2020 05:14 PM
  • 01 सितम्बर, 2020 05:14 PM
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Rahi Masoom Raza Birthday: एक ऐसे समय में जब हम हिंदू मुस्लिम (Hindu-Muslim) से लेकर भाषाओं पर अधिकार तक कई विषयों को लेकर लड़ रहे हों हमारे लिए राही मासूम रज़ा (Rahi Masoom Raza) जैसे लोगों को याद करना इस लिए भी जरूरी हो जाता है क्योंकि इनकी रचनाएं जितनी देश के हिंदुओं के लिए थीं उतना ही हक़ उसपर मुसलमानों का भी था.

धपक के चलते आदमी पर आप तरस खाते हैं. हंस देते हैं. दरगुज़र करते या टीवी पर पैर से लिखते/पेंटिंग करते देख ताली बजाते हैं. शायद ही कभी सुना हो किसी की लंगड़ाई चाल को भी लड़कियां अदा कह के दीवानी हो जाएं. एएमयू के उर्दू लेक्चरार, मजाज़ के बाद सबसे ज़्यादा मास अपीलिंग पर्सनालिटी, 'हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चांद' जैसी दिलफरेब ग़ज़ल कहने वाले, 1 सितम्बर 1927 को उत्तरप्रदेश के गाज़ीपुर के गंगौली में जन्में. यह हैं सैयद मासूम रज़ा आब्दी उर्फ राही मासूम रज़ा (Rahi Masoom Raza). शुरूआती तालीम गाज़ीपुर में हुई. पोलियो के चलते कुछ दिन पढ़ाई छूटी. एक वक़्फे बाद इंटर करके अलीगढ़ आ गये. AM से उर्दू में एमए और 'तिलिस्म ए होशरुबा' में पीएचडी की. पढ़ते पढ़ते वहीं पढ़ाने लगे. यह ज़िंदगी के शुरुवाती दिन थे. अलीगढ़ के बदरबाग में रहते हुए उन्होंने हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों मे गिना जाने वाला 'आधा गांव' (Aadha gaon) लिखा. टोपी शुक्ला (Topi Shukla), ओस की बूंद, हिम्मत जौनपुरी, दिल एक सादा कागज़ लिखते हुए वे वाम विचारधारा के नज़दीक आए. बाद में इसी पार्टी के कार्यकर्ता की हैसियत से काम करने लगे.

एक बार गाज़ीपुर नगरपालिका क्षेत्र से कामरेड पब्बर राम को समर्थन दिया. उन्हीं के अपोजिट कांग्रेस ने राही के अब्बा को खड़ा किया. राही ने उनसे चुनाव ना लड़ने की गुज़ारिश की. आज़ादी से पहले के कांग्रेसी होने के नाते अब्बा अपनी बात पर अड़े रहे. राही भी उसूलों के पक्के. कामरेड पब्बर राम के लिए समर्थन जारी रखा. बेहद ताज्जुब, अब्बा ढेर वोटों से हार गये.

उसूलों के मामले में नॉन कॉम्प्रोमाइजिंग मिजाज़ के चलते अलीगढ़ की प्रोफेसरी छोड़ बम्बई आये. यहां भी जद्दोजहद कब कम थी.

हर गली हिज्र की इक गली, बम्बई शहर में,

दर्द के रास्ते हैं कई, बम्बई शहर में.

उनकी क़ाबिलियत पर भरोसा करने और साथ देने वालों में 'धर्मयुग' के सम्पादक धर्मवीर भारती और 'सारिका' के कमलेश्वर थे. हिन्दी फिल्म के हीरो के मल्टी...

धपक के चलते आदमी पर आप तरस खाते हैं. हंस देते हैं. दरगुज़र करते या टीवी पर पैर से लिखते/पेंटिंग करते देख ताली बजाते हैं. शायद ही कभी सुना हो किसी की लंगड़ाई चाल को भी लड़कियां अदा कह के दीवानी हो जाएं. एएमयू के उर्दू लेक्चरार, मजाज़ के बाद सबसे ज़्यादा मास अपीलिंग पर्सनालिटी, 'हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चांद' जैसी दिलफरेब ग़ज़ल कहने वाले, 1 सितम्बर 1927 को उत्तरप्रदेश के गाज़ीपुर के गंगौली में जन्में. यह हैं सैयद मासूम रज़ा आब्दी उर्फ राही मासूम रज़ा (Rahi Masoom Raza). शुरूआती तालीम गाज़ीपुर में हुई. पोलियो के चलते कुछ दिन पढ़ाई छूटी. एक वक़्फे बाद इंटर करके अलीगढ़ आ गये. AM से उर्दू में एमए और 'तिलिस्म ए होशरुबा' में पीएचडी की. पढ़ते पढ़ते वहीं पढ़ाने लगे. यह ज़िंदगी के शुरुवाती दिन थे. अलीगढ़ के बदरबाग में रहते हुए उन्होंने हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों मे गिना जाने वाला 'आधा गांव' (Aadha gaon) लिखा. टोपी शुक्ला (Topi Shukla), ओस की बूंद, हिम्मत जौनपुरी, दिल एक सादा कागज़ लिखते हुए वे वाम विचारधारा के नज़दीक आए. बाद में इसी पार्टी के कार्यकर्ता की हैसियत से काम करने लगे.

एक बार गाज़ीपुर नगरपालिका क्षेत्र से कामरेड पब्बर राम को समर्थन दिया. उन्हीं के अपोजिट कांग्रेस ने राही के अब्बा को खड़ा किया. राही ने उनसे चुनाव ना लड़ने की गुज़ारिश की. आज़ादी से पहले के कांग्रेसी होने के नाते अब्बा अपनी बात पर अड़े रहे. राही भी उसूलों के पक्के. कामरेड पब्बर राम के लिए समर्थन जारी रखा. बेहद ताज्जुब, अब्बा ढेर वोटों से हार गये.

उसूलों के मामले में नॉन कॉम्प्रोमाइजिंग मिजाज़ के चलते अलीगढ़ की प्रोफेसरी छोड़ बम्बई आये. यहां भी जद्दोजहद कब कम थी.

हर गली हिज्र की इक गली, बम्बई शहर में,

दर्द के रास्ते हैं कई, बम्बई शहर में.

उनकी क़ाबिलियत पर भरोसा करने और साथ देने वालों में 'धर्मयुग' के सम्पादक धर्मवीर भारती और 'सारिका' के कमलेश्वर थे. हिन्दी फिल्म के हीरो के मल्टी टैलेंटेड होने से मुराद ऐक्टिंग, डांसिंग, ऐक्शन, कमेडियन होना है. लेकिन किसी लिटरेरी शख्सियत के मल्टी टैलेंटेड होने से मुराद राही मासूम रज़ा होना है. वे जॉन स्टुअर्ट मिल नहीं थे कि लिख के गिराए कागज़ को नौकर से उठवाते. होटल का एकांत कमरा भी नहीं चाहिये था उन्हें. ना मेज़ की दराज़ में रखे सड़े सेब की महक.

अपने काम के जरिये राही मासूम रजा ऐसा बहुत कुछ कर गए हैं कि उन्हें याद करना आज वक़्त की जरूरत है

हमेशा अपने घर के हॉल में तकिए पर लेट कर लिखते. लोग आ रहे. जा रहे. उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था. एक वक़्त में तीन क्लिप बोर्ड पर बारी बारी लिखते. एक पर रूमानी. दूसरे पर जासूसी तो तीसरे पर किसी अखबार के लिये मज़मून. क़व्वालियां सुनने की शौक़ीन बीवी की पसंद बजती रहती. घर आया कोई मेहमान बतियाया करता. और लिखना जारी रहता.

उर्दू में ग़ज़ल/नज़्म, हिन्दी में उपन्यास के बाद कई बॉलीवुड फिल्मों के लिये स्क्रीनप्ले और डायलॉग लिखे.'मैं तुलसी तेरे आंगन की', 'मिली' और 'लम्हे' के लिये फिल्मफेयर अवार्ड भी जीता. लेकिन उन्हें अमर, बहुचर्चित, बहुप्रशंसित बनाया नब्बे के दशक के बीआर चोपड़ा द्वारा निर्देशित टीवी सीरियल 'महाभारत' ने.

हालांकि राही लिखने के लिये तैयार नहीं थे. लेकिन निर्देशक चोपड़ा ने अखबार वालों को पटकथा लेखक के तौर पर राही का नाम बता दिया. लोगों को यह बात पसंद नहीं आई कि एक मुसलमान, हिन्दू धर्मग्रंथ लिखे. जनता ने गाली भर भर चिट्ठियां बीआर चोपड़ा के पते पर भेजी और पूछा, देश भर के सारे हिंदू लेखक मर गये हैं क्या? जो वे एक मुसल्मान से लिखवा रहे हैं?

चोपड़ा साहब ने सारे खत उठा कर राही को भिजवा दिये. गंगा को अपनी दूसरी मां और खुद को गंगा पुत्र कहने वाले राही ने जब तमाम खुतूत पढ़े तो बोले, अब तो महाभारत मैं ही लिखूंगा. मुझसे ज़्यादा भारतीय सभ्यता और संस्कृति की समझ किसे होगी भला? सीरियल छा गया. पहली बार 'समय' को स्टोरीटेलर बनाने वाले राही नये ज़माने के 'व्यास' हो गये.

उनका साहित्य देश-विभाजन का वह दस्तावेज है जहां इंसान का धूसर, धुंधला चरित्र सामने आता है. ये प्यार करते हैंं. गालियां देते हैं. आप इनपर खीझ नहीं पाते. ये आपकी हमदर्दी बटोर ले जाते हैं. 'आधा गांव' में आई गालियों के लिये राही दो टूक कहते हैं, 'गालियां मुझे भी अच्छी नहीं लगती. लेकिन लोग सड़कों पर गालियां बकते हैं. अगर आपने कभी गाली सुनी ही ना हो तो आप इस उपन्यास को ना पढ़िये. मैं आपको शर्मिंदा करना नहीं चाहता.'

राही कहते हैं, अगर 'अली' को 'गढ़' से, 'गाज़ी' को 'पुर' से और 'दिलदार' को 'नगर' से अलग कर दिया जाए तो बस्तियां वीरान हो जाएंगी. जनसंघ का कहना है कि मुसल्मान यहां के नहीं है. मेरी क्या मजाल कि मैं झुठलाऊं उसे. मगर गंगौली से मेरा सम्बंध अटूट है. और मैं किसी को यह हक़ नहीं देता कि वह मुझसे कहे, राही तुम गंगौली के नहीं हो. इसलिये गंगौली छोड़कर चले जाओ. क्यों चला जाऊं साहब? मैं तो नहीं जाता. (मैं सोचती हूं यह बेबाक़, ज़िददी, बेखौफ़ आदमी अगर हयात होता और चंद महीने पहले 'कागज़ दिखाने' की बात की जाती तो क्या कहता?)

गंगा को मां मानने वाले राही ने अपनी नज़्म 'वसीयत' में ख्वाहिश की, मरने के बाद उन्हें गाज़ीपुर की गंगा में समो दिया जाए. 

एक नरम रफ्तार दरिया है जिसमें

कई और नदियों का पानी मिला है

यहां जो भी आया है

शफ़फ़ाफ़ पानी की सौगात लाया है

लेकिन इसी रूद ए गंगा में गुम हो गया है कोई आरया है

न तैमूर ओ बाबर की संतान कोई

न कोई अरब है ना अफ़गान कोई

न जादू अलग है

ना खुशबू अलग है

ना जमुना अलग है

ना सरजू अलग है

बस एक रूद ए गंगा है हद्द ए नज़र तक

कत्तई ताज्जुब नहीं कि 'नमामि गंगे' से जुड़े लोगों ने अब तक राही की वसीयत और नज़्म 'गंगा' नहीं पढ़ी होगी वरना जानते गंगा अकेले हिंदुओं की नहीं है. पाकिस्तान बनने की माक़ूल वजह उन्हें कभी समझ ना आई. परिवार और मुल्क़ में किसी एक का चुनाव दुनिया का सबसे मुश्किल चुनाव है. उन्होंने मुल्क़ चुना. आधा परिवार नये मुल्क़ चला गया.   पूरा जाता तब भी उन्हें यहीं रहना-मरना था.

देशभक्ति और क्या होती है भला? नाम देखकर देशभक्ति का प्रमाण पत्र बांटने वालों से राही ने पहले ही कह दिया था-

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मुझको क़त्ल करो

और मेरे घर में आग लगा दो

मेरे उस कमरे में जिसमें

तुलसी की रामायण से सरगोशी करके

कालिदास के मेघदूत से यह कहता हूं

मेरा भी एक संदेसा है

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मुझको क़त्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो

लेकिन मेरी नस नस में गंगा का पानी दौड़ रहा है

मेरे लहू से चुल्लू भर कर महादेव के मुंह पर फेंको

और उस जोगी से यह कह दो-

महादेव!

अब इस गंगा को वापस ले लो

यह मलेच्छ तुर्कों के बदन में

गाढ़ा गरम लहू बन-बनकर दौड़ रही है

पूरे होशोहवास में बटवारे का दर्द, उसकी टीस सहने वाले राही साब की संवेदना किसी विशेष समुदाय के लिये वर्गीकृत नहीं थी. सबसे बुरी तरह प्रभावित औरतों में ज़ैनब की बात करते हुए वे राधा को नहीं भूलते.

कितनी उषाओं की गहरी आंखें लुटीं

महजबीनों की वह गर्म बाहें लुटीं

कृष्ण के देश में कोई राधा न थी

राम के देश में कोई सीता न थी

हीर सड़कों पर नंगी फिराई गई

जख्मी छाती से महफिल सजाई गई.

हम आदी हो चुके हैं बलात्कार की खबरों के. और अब मॉब लिन्चिंग के भी. लेकिन एक लेखक जिसके लिये इंसानियत से बड़ा कोई धर्म ही नहीं, उसकी संवेदनाओं का फैलाव देखिये और समझिये क्यों वे छाती ठोक के कहते हैं, भारतीय सभ्यता/ संस्कृति की समझ उनसे ज़्यादा किसी में नहीं है. राही लिखते हैं कि 'भाषा कितनी ग़रीब होती है. शब्दों का कैसा ज़बरदस्त काल है. कितनी शर्म की बात है कि हम घर पर मरनेवाले और बलवे में मारे जानेवाले में फ़र्क नहीं कर सकते, जबकि घर पर केवल एक व्यक्ति मरता है और बलवाइयों के हाथों परम्परा मरती है. सभ्यता मरती है. इतिहास मरता है.

कबीर की राम की बहुरिया मरती है. जायसी की पद्मावती मरती है. कुतुबन की मृगावती मरती है. सूर की राधा मरती है. वारिस की हीर मरती है. तुलसी के राम मरते हैं. अनीस के हुसैन मरते हैं. कोई लाशों के इस अम्बार को नहीं देखता. हम लाशें गिनते हैं. सात आदमी मरें. चौदह दूकान लुटीं. दो घरों में आग लगा दी गई. जैसे कि घर, दूकान और आदमी केवल शब्द हैं जिन्हें शब्दकोशों से निकालकर वातावरण में मंडराने के लिए छोड़ दिया गया हो.'

उपन्यास से लेकर ग़ज़ल की बयाज़ तक, संवाद से लेकर काव्य तक, पटकथा से लेकर मन की व्यथा तक राही ने जो लिखा, वह आह भी था और वाह भी. बेहद नफ़ीस उर्दू और उतनी ही साफ भोजपुरी बोलने वाले राही साब कभी अपना गांव नहीं भूले. हमेशागांववालों के सम्पर्क में रहे. उन्हें पैसे का रखरखाव नहीं आया. कभी पान और कभी कलाकंद भर से स्क्रीनप्ले लिखने वाले राही को और चाहिये भी क्या था सिवाय इंसानियत और मुहब्बत के. हिंदुस्तानियत के असल और सबसे ज़बर पैरोकार को सालगिरह की मुबारकबाद.

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