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Firaq Gorakhpuri बन रघुपति सहाय ने बताया कि सेकुलरिज्म-भाईचारा है क्या?

    • बिलाल एम जाफ़री
    • Updated: 28 अगस्त, 2020 11:13 PM
  • 28 अगस्त, 2020 11:13 PM
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एक ऐसे वक़्त में जब हमारे आस पास नफरत अपने पैर पसार चुकी हो, अगर हमें असली सेकुलरिज्म (Secularism ) और भाईचारा (Communal Harmony) सीखना समझना हो तो हमें अपनी जिंदगी में फ़िराक़ गोरखपुरी (Firaq Gorakhpuri) को उतार लेना चाहिए,

अब अक्सर चुप - चुप से रहें हैं, यूं ही कभू लब खोलें हैं,

पहले 'फ़िराक़' को देखा होता, अब तो बहुत कम बोलें हैं...!!!

जिस वक्त फ़िराक़ (Firaq Gorakhpuri) ने ये शेर लिखा था उस वक़्त सूरत ए हाल क्या रही होगी उसका अंदाजा मौजूदा वक़्त में लगा पाना मुश्किल है. मगर इस शेर का शुमार फ़िराक़ के चुनिन्दा शेरों में है. 28 अगस्त ये वो तारीख है जब फ़िराक़ की विलादत (जन्म) हुई. एक ऐसे वक्त में जब हिंदू-मुसलमान (Hindu-Muslim), भाषा (Language) और उसे बांटने की लड़ाई अपने चरम पर हो हिंदी (Hindi) और संस्कृत (Sanskrit) को हिंदुओं और अरबी (Arabic) फारसी (Persian) को मुसलमानों (Muslims) की भाषा बताया जा रहा हो रघुपति सहाय का फ़िराक़ बनना और शानदार शायरी करना ही इस मुल्क का सोशल फैब्रिक है. बाक़ी बात अगर फ़िराक़ की शायरी और उनके तेवरों की हो तो ये जो बात फ़िराक़ को अपने समकालीन अन्य शायरों से इतर करती है वो है कि फ़िराक़ ने बुजुर्ग और युवा दोनों ही वर्गों के लिए लिखा. फ़िराक़ ने अगर युवाओं के लिए इश्क़ मुहब्बत की तरजीह दी तो वहीं बात जब बुजुर्गों या दानिशमंदों की आई तो फ़िराक़ ने उनके मौज़ू छुए.

अगर हमें वाक़ई इंसानियत और भाईचारा सीखना है तो हमें फ़िराक़ को अपनी ज़िन्दगी में ज़रूर उतारना चाहिए

इस बात को समझने के लिए हम फ़िराक़ का वो शेर देख सकते हैं जिसमें उन्होंने कहा कि

'बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की

सौ बात बन गई है 'फ़िराक़' एक बात की'

एक और बात जो फ़िराक़ को अलग करती है वो ये कि फ़िराक़ हकीकत के शायर थे. फ़िराक़ की शायरी में लोग अपने माजी को देख सकते हैं. साथ ही वो गुजरते हाल के साथ अपना आने वाला वक़्त भी देख सकते है.

न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई...

अब अक्सर चुप - चुप से रहें हैं, यूं ही कभू लब खोलें हैं,

पहले 'फ़िराक़' को देखा होता, अब तो बहुत कम बोलें हैं...!!!

जिस वक्त फ़िराक़ (Firaq Gorakhpuri) ने ये शेर लिखा था उस वक़्त सूरत ए हाल क्या रही होगी उसका अंदाजा मौजूदा वक़्त में लगा पाना मुश्किल है. मगर इस शेर का शुमार फ़िराक़ के चुनिन्दा शेरों में है. 28 अगस्त ये वो तारीख है जब फ़िराक़ की विलादत (जन्म) हुई. एक ऐसे वक्त में जब हिंदू-मुसलमान (Hindu-Muslim), भाषा (Language) और उसे बांटने की लड़ाई अपने चरम पर हो हिंदी (Hindi) और संस्कृत (Sanskrit) को हिंदुओं और अरबी (Arabic) फारसी (Persian) को मुसलमानों (Muslims) की भाषा बताया जा रहा हो रघुपति सहाय का फ़िराक़ बनना और शानदार शायरी करना ही इस मुल्क का सोशल फैब्रिक है. बाक़ी बात अगर फ़िराक़ की शायरी और उनके तेवरों की हो तो ये जो बात फ़िराक़ को अपने समकालीन अन्य शायरों से इतर करती है वो है कि फ़िराक़ ने बुजुर्ग और युवा दोनों ही वर्गों के लिए लिखा. फ़िराक़ ने अगर युवाओं के लिए इश्क़ मुहब्बत की तरजीह दी तो वहीं बात जब बुजुर्गों या दानिशमंदों की आई तो फ़िराक़ ने उनके मौज़ू छुए.

अगर हमें वाक़ई इंसानियत और भाईचारा सीखना है तो हमें फ़िराक़ को अपनी ज़िन्दगी में ज़रूर उतारना चाहिए

इस बात को समझने के लिए हम फ़िराक़ का वो शेर देख सकते हैं जिसमें उन्होंने कहा कि

'बहसें छिड़ी हुई हैं हयात-ओ-ममात की

सौ बात बन गई है 'फ़िराक़' एक बात की'

एक और बात जो फ़िराक़ को अलग करती है वो ये कि फ़िराक़ हकीकत के शायर थे. फ़िराक़ की शायरी में लोग अपने माजी को देख सकते हैं. साथ ही वो गुजरते हाल के साथ अपना आने वाला वक़्त भी देख सकते है.

न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद

मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था.

अब फ़िराक़ के इसी शेर को देख लीजिए हो सकता है ये शेर एक आशिक अपनी माशूक या फिर एक माशूक अपने आशिक़ के लिए कह रहा हो मगर जब इसे इनके अलावा भी कोई और पढ़ेगा तो उसे महसूस होगा कि जैसे ये शेर उसी के लिए लिखा गया है और उसे ये शेर अपनी ज़िंदगी के बेहद नज़दीक लगेगा.

बात बहुत सीधी है. हम लगातार गंगा जमुनी तहजीब और सेकुलरिज्म की वकालत कर रहे हैं. चाहे वो सोशल मीडिया हो या फिर हमारी आपस की बातचीत कोशिश हिंदुस्तान को एकजुट करने में है जोकि एक बहुत अच्छी बात है और साथ ही ये प्रैक्टिस होती भी रहनी चाहिए. भले ही आज हम इसके लिए कितने ही जतन क्यों न कर रहे हों मगर जब हम फ़िराक़ को देखते हैं तो लगता है कि जो पेड़ आज हमारे सामने है उसका पेड़ फ़िराक़ ने और फ़िराक़ जैसे कई और लोगों ने बहुत पहले लगाया था. हमें इसमें कुछ नया नहीं करना बस इसे सींचते रहना है. शायद यही सोचकर फ़िराक़ कह गए हों कि

बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं

तुझे, ऐ जिंदगी, हम दूर से पहचान लेते हैं.

जैसे जैसे हम फ़िराक़ को पढ़ते हैं और साथ ही उनके समकालीन लोगों का काम देखते हैं तो मिलता है कि फ़िराक़ वो है जिसका उर्दू शायरी और अदब दोनों को लंबे वक्त से इंतज़ार था. फ़िराक़ को पढ़ते हुए ये कहना हमारे लिए अतिशयोक्ति नहीं है कि वो एक ऐसे शायर हैं जो युग निर्माता हैं.

होने को तो ये बात फ़िराक़ की पूरी ज़िंदगी का सार हो सकती है मगर जब हम उनका एक शेर पढ़ते हैं तो लगता है कि आज पूछे जा रहे तमाम सवालों के जवाब फ़िराक़ ने बहुत पहले ही दे दिए हैं.

सरजमीं ए हिन्द पर अक्वाम ए आलम के फ़िराक़,

काफिला बढ़ता गया और हिंदुस्तान बनता गया.

फ़िराक़ वो है जिसपर रोज़ ए कयामत तक उर्दू शायरी और अदब को नाज़ रहेगा. एक मुकाम तक पहुंचने के लिए फ़िराक़ ने वक़्त के तूफानों से लगा है. फ़िराक़ हालात की आंधियों से टकराए हैं. फ़िराक़ के विषय में एक दिलचस्प बात ये भी है कि जिस वक्त फ़िराक़ शेर ओ शायरी ओ अदब की दुनिया में आए एक भाषा के रूप में उर्दू ट्रांसफॉर्म हो रही थी. अब उर्दू आशिक़ और उसकी माशूका के दरमियान की भाषा नहीं थी बल्कि अब बड़े मुद्दों को कहने के लिए अदब का सहारा लिया जा रहा था.

देवताओं का ख़ुदा से होगा काम,

आदमी को आदमी दरकार है.

अब हम इसी शेर को देखें तो जिस लहजे में इसे लिखा गया है साफ है कि तब के मौजूदा हालात पर ये फ़िराक़ का जबरदस्त व्यंग्य है. इस दो पंक्तियों को गौर से पढ़िए तो मिलेगा कि आज के मुश्किल हालातों में न तो इंसान ही हैं और जो हैं भी उनमें भी इंसानियत शायद ही बची है.

हमनें फ़िराक़ के अंदाज़ को अलहदा अंदाज बताया है तो आइए कुछ और बात करने से पहले उनकी एक नज़्म देख लें. फ़िराक़ कहते हैं कि

अगर बदल न दिया आदमी ने दुनिया को,

तो जान लो कि यहां आदमी कि खैर नहीं.

हर इन्किलाब के बाद आदमी समझता है,

कि इसके बाद न फिर लेगी करवटें ये ज़मीं.

फ़िराक़ शब्दों के किस हद तक जादूगर थे इसे हम उनके उन मिसरों से समझ सकते हैं जिसमें उन्होंने कहा है कि

तन्हाई में किसे बुलाएं ऐ दोस्त

तुम दूर हो किसके पास जाएं ऐ दोस्त

इस दौलत-ए-वक़्त से तो दम घुटता है

ये नकद-ए -शब् कहां भुनाए ए दोस्त.

चूंकि फ़िराक़ का बिर्थ डे है इसलिए उनकी शान में तमाम तरह के कसीदे पढ़कर उनकी शान में इजाफा किया जा सकता है मगर एक ईमानदारी की बात ये है कि अब जैसा माहौल है फ़िराक़ को हमारी तारीफों की इसलिए भी दरकार नहीं है क्यों कि हमारे नफरतों से घिरे होने के कारण खुद फ़िराक़ की रूह को ये तारीफें शायद झूठी और खोखली लगें.

फ़िराक़ की नज़्में एक ऐसा नश्तर हैं जो चोट तो पहुंचाती हैं साथ ही इस बात का भी सुकून देती हैं कि अगर सब मिलजुल कर और भाईचारे के साथ रहें तो कितना बेहतर है.

फ़िराक़ कहते हैं कि

हो जिन्हें शक़, वो करें और ख़ुदाओं की तलाश

हम तो इंसान को दुनिया का ख़ुदा कहते हैं.

आज फ़िराक़ हमारे बीच नहीं हैं तो क्या हुआ उनकी नज़्में और अशआर हमारी सरपरस्ती कर रहे हैं. फ़िराक़ एक कल्चर को स्थापित करके गए हैं और अब ये हमारा फ़र्ज़ है कि हम उस कल्चर के मुहाफ़िज़ बन सालों साल उसे अपने पास महफूज़ रखें.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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