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जब तक ज़िंदा है, जीने की ख्वाहिश और ज़िंदा हैं सपने... तब तक पाश ज़िंदा रहेंगे!

    • नाज़िश अंसारी
    • Updated: 09 सितम्बर, 2021 11:05 PM
  • 09 सितम्बर, 2021 11:05 PM
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जब तक निक्कियों के ब्याह में गिरवी रखी जाती रहेगी ज़मीन. और नागरिकता बचाए रखने के लिए बेचा जाता रहेगा ज़मीर. जब तक देश आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है. उल्लू बनने की प्रयोगशाला है. जब तक प्रेमियों के चुंबन प्रेमिका का चेहरा खूबसूरत बनाते रहेंगे. और आलिंगन उनके शरीर को सांचे में ढालते रहेंगे. जब तक ज़िंदा है जीने की ख्वाहिश और ज़िंदा हैं सपने. तब तक पाश ज़िंदा रहेंगे.

जब प्राइम टाईम की बहस दाना चुगते मोर की कैं-कैं पर केंद्रित होने लगे. अभिव्यक्ति का अर्थ साहिब ए मसनद के गाव-तकिये ठीक करना हो. जब जीने के लिये चुप्पी पहला और आखिरी विकल्प बना दी जाए तब उन पंजाबी कविताओं के वरक़ पलटना चाहिये जो किसी इन्क़लाब में ज़िन्दाबाद होने जितनी ही ज़रूरी थीं. जिन्हें तमाम आंदोलनों में नारों की तरह दोहराया गया बार-बार. 9 सितम्बर 1950 को जालंधर ज़िले के सलेम गांव में एक मध्यवर्गीय किसान के घर जन्में अवतार सिंह संधू 'पाश' ने जब होश सम्भाला, पजाब का नक्सली आंदोलन चरम पर था. हाशिये के उस पार ढकल दिये गये वंचितों के लिये इसी 'चरम' से उन्होंने बिगुल बजाया. अपनी कटार सी कविताओं से बिगुल में फूंक मारी और पहले ही कविता संग्रह (लौह-कथा) से श्रेष्ठ पंजाबी कवियों की पहली पंक्ति में आ खड़े हुए.

पाश की रचनाओं को लेकर यूं तो कई बातें हो सकती हैं लेकिन इनकी रचनाएं कुछ ऐसी हैं जो व्यक्ति को सोते में से जगाती हैं

पंजाबी भाषा में अमृता प्रितम के अलावा पाश ही ऐसे कवि हुए जिन्हें हिन्दी पाठकों से भरपूर प्यार मिला. 'ज्ञानी' डिग्री होल्डर (पंजाबी स्नातक) पाश को उच्च शिक्षित ना होने का मलाल था. लेकिन उससे कहीं ज़्यादा इस बात की बेचैनी कि

क्यों गिड़गिड़ाता है

मेरे गांव का एक किसान

मामूली से पुलिसिये के आगे

आख़िर क्यों

बैलों की घंटियां 

और पानी निकालते इंजन के शोर में

घिरे हुए चेहरो पर जम गई है

एक चीख़तीं ख़ामोशी

जिसे सब उपेक्षित कर आगे बढ़ जाना समझदारी कहते...

जब प्राइम टाईम की बहस दाना चुगते मोर की कैं-कैं पर केंद्रित होने लगे. अभिव्यक्ति का अर्थ साहिब ए मसनद के गाव-तकिये ठीक करना हो. जब जीने के लिये चुप्पी पहला और आखिरी विकल्प बना दी जाए तब उन पंजाबी कविताओं के वरक़ पलटना चाहिये जो किसी इन्क़लाब में ज़िन्दाबाद होने जितनी ही ज़रूरी थीं. जिन्हें तमाम आंदोलनों में नारों की तरह दोहराया गया बार-बार. 9 सितम्बर 1950 को जालंधर ज़िले के सलेम गांव में एक मध्यवर्गीय किसान के घर जन्में अवतार सिंह संधू 'पाश' ने जब होश सम्भाला, पजाब का नक्सली आंदोलन चरम पर था. हाशिये के उस पार ढकल दिये गये वंचितों के लिये इसी 'चरम' से उन्होंने बिगुल बजाया. अपनी कटार सी कविताओं से बिगुल में फूंक मारी और पहले ही कविता संग्रह (लौह-कथा) से श्रेष्ठ पंजाबी कवियों की पहली पंक्ति में आ खड़े हुए.

पाश की रचनाओं को लेकर यूं तो कई बातें हो सकती हैं लेकिन इनकी रचनाएं कुछ ऐसी हैं जो व्यक्ति को सोते में से जगाती हैं

पंजाबी भाषा में अमृता प्रितम के अलावा पाश ही ऐसे कवि हुए जिन्हें हिन्दी पाठकों से भरपूर प्यार मिला. 'ज्ञानी' डिग्री होल्डर (पंजाबी स्नातक) पाश को उच्च शिक्षित ना होने का मलाल था. लेकिन उससे कहीं ज़्यादा इस बात की बेचैनी कि

क्यों गिड़गिड़ाता है

मेरे गांव का एक किसान

मामूली से पुलिसिये के आगे

आख़िर क्यों

बैलों की घंटियां 

और पानी निकालते इंजन के शोर में

घिरे हुए चेहरो पर जम गई है

एक चीख़तीं ख़ामोशी

जिसे सब उपेक्षित कर आगे बढ़ जाना समझदारी कहते रहे, पाश का संवेदनशील मन वहीं अरझता है. सवाल पूछता है. हां, कई बार उड़ते सूरज से. और ईश्वर से भी...

रब की वो कैसी रहमत है

जो कनक बोते फटे हुए हाथों

और मंडी के बीचोबीच के तख़्तपोश पर फैली हुई मांस की

उस पिलपिली ढेरी पर,

एक ही समय होती है ?

जवाब कौन देता. सवाल ही लोगों को चुभने लगे.

राजनीतिक स्पष्टवादिता, विचारों का तीखापन और एक समतावादी समाज की अवधारणा को कविताओं में समोने और भीड़ के आखिरी व्यक्ति तक को अपने अधिकार के लिये उद्वेलित कर सकने की क्षमता ने उन्हें जेल पहुंचा दिया. गनीमत यह थी कि उस वक़्त देशद्रोही की परिभाषा उतनी मॉडर्न नहीं थी जितनी आज है. सो जुर्म तय नहीं हुआ. पाश रिहाई बाद भी खामोश ना हुए. कवि की कलम ही उसका हथियार थी. उन्हें लड़ना था. तब तक-

जब तक

दुनिया में लड़ने की ज़रूरत बाक़ी है

जब तक वीरू बकरिहा

बकरियों का मूत पीता है

खिले हुए सरसों के फूल को

जब तक बोने वाले ख़ुद नहीं सूंघते 

क्यूंकि लड़े बगैर किसी को कुछ नहीं मिलता.

1985 में उन्होंने अमेरिका से 'एंटी47' पत्रिका के माध्यम से खालिस्तान का खुला विरोध किया. '88' में गर्मी की छुट्टियों में अपने गांव आये पाश को नहाते समय उग्र सिख खालिस्तानी समर्थकों द्वारा गोली मार दी गयी. अपने उसूलों से समझौता ना करने वाले पाश की कविता में आपको जितना आक्रोश मिलेगा उतना ही प्रेम भी. ज़िंदगी की बहोत छोटी और सीधी सी परिभाषा रही-

धूप की तरह धरती पर खिल जाना

और फिर आलिंगन में सिमट जाना

बारूद की तरह भड़क उठना

और चारों दिशाओं में गूंज जाना -

जीने का यही सलीका होता है

प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा

जिन्हें ज़िन्दगी ने बनिया बना दिया

पाश बनिया नहीं, कवि थे. संघर्षों के. जनसरोकारों के. किसानों के. युवाओं के. मुहब्बत के. सबसे बढकर ज़िंदगी के. पंजाब के गांव की खुशबू लिये उनकी कविताओं में महकती हुई धनिया है. ईख की सरसराहट है. बाल्टी में दहे दूध पर गाता झाग है. रेशमी घास. सरसों के फूल. गेहूं की बालियां. चांदनी रात. और है किसी साधारण प्रेमी की तरह प्रेमिका की प्रतीक्षा. हालांकि-

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना

तड़प का न होना

सब कुछ सहन कर जाना

घर से निकलना काम पर

और काम से लौटकर घर आना

सबसे ख़तरनाक होता है

हमारे सपनों का मर जाना

कह कर निम्न- मध्यवर्गीय लोगों को जागरुक करते पाश को एक प्रेमी मानना कठिन लग सकता है लेकिन वे थे. अपनी 'किन्दर' के बगैर बुद्ध नहीं, सिर्फ सिद्धार्थ. अवतार सिंह संधू नहीं सिर्फ पाश. ज़िंदगी को गले तक डूबकर जीने की चाह लिये पाश को उम्र की चालीसवीं दहलीज छूने से पहले मार दिया गया.क्या ही फर्क़ पड़ता है! पाश तो घास है. आपके किये धरे पर फिर उग आएगा.

वे उगते बढ़ते रहेंगे जब तक समाज में असमानता है. व्यवस्था में खामियां हैं. व्यक्ति का संघर्ष है. असहमति अश्लीलता है. क़ीमतों की बेशर्म हंसी तनख़्वाहों के मुंह पर थूकती है. जब तक पुलिस के सिपाही अपने भाइयों का गला घोंटने को मज़बूर हैं. दफ़्तरों के बाबू खून से अक्षर लिखते हैं.

जब तक निक्कियों के ब्याह में गिरवी रखी जाती रहेगी ज़मीन. और नागरिकता बचाए रखने के लिए बेचा जाता रहेगा ज़मीर. जब तक देश आत्मा की बेगार का कोई कारख़ाना है. उल्लू बनने की प्रयोगशाला है. जब तक प्रेमियों के चुंबन प्रेमिका का चेहरा खूबसूरत बनाते रहेंगे. और आलिंगन उनके शरीर को सांचे में ढालते रहेंगे. जब तक ज़िंदा है जीने की ख्वाहिश और ज़िंदा हैं सपने...तब तक पाश ज़िंदा रहेंगे.

कामरेड पाश को लाल सलाम के साथ सालगिरह मुबारक.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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