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मेरा मां बनने से जी घबराता है, लेकिन सबसे बड़ा डर तो कुछ और है...

    • संध्या द्विवेदी
    • Updated: 04 फरवरी, 2018 01:15 PM
  • 31 जनवरी, 2018 10:55 AM
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माफ करना मैं औरत हूं, मगर मां बनने का एहसास मुझे गुदगुदाता नहीं, मेरे भीतर संशय पैदा करता है. संशय कि सालों की मेहनत पर कहीं पानी न फिर जाए, मां के नाम के डिब्बे में कहीं मेरी पहचान न कैद होकर रह जाए, कहीं अपने पुरुष मित्रों से पीछे न छूट जाऊं. सबसे बड़ा संशय तो यह है कि यह सब खुलेआम कहने पर मॉन्सटर न करार दे दी जाऊं.

जब भी बच्चों के पालन पोषण से जुड़ी कोई कानूनी टिप्पणी सामने आती है तो वह मां के कर्तव्यों का ही बोध कराती है. जैसा कि होना था इस हालिया अदालती सुनवाई के दौरान भी वही हुआ. जनवरी के पहले हफ्ते में मद्रास हाईकोर्ट के जज ने अभिभावकता से जुड़े कुछ सुझाव केंद्र सरकार को दिए. इसमें जज ने केंद्र सरकार से सवाल करते हुए कहा है- क्यों न संयुक्त अरब अमीरात की तर्ज पर किसी भी औरत के लिए अपने नवजात शिशु को स्तनपान अनिवार्य रूप से कराने का कानून बना दिया जाए? सुनवाई के दौरान यह भी कहा गया कि- क्यों न आर्टिकल 19 के तहत स्तनपान को नवजात शिशु का मौलिक अधिकार बना दिया जाए?

क्यों न स्तनपान को अनिवार्य कर दिया जाए?

सुझाव और भी हैं. जैसे कार्यस्थलों पर क्रेच बनाना, मातृत्व अवकाश को बढ़ाकर 270 दिन यानी 9 महीने का कर देना. यह सुझाव पहली नजर में सामाजिक बोध कराने वाले और सह्दयता के सूचक लगते हैं. लेकिन अभिभावकता से जुड़े फैसले जब भी आते हैं मां के कर्तव्यों की ही याद दिलाते हैं. जजमेंट में पिता की भूमिका के बारे में जिक्र तक नहीं होता.

ठीक वैसे ही जैसे घर परिवार और समाज में शादी के एक साल पूरे होते ही औरत को इस सवाल से जूझना पड़ता है कि मां कब...

जब भी बच्चों के पालन पोषण से जुड़ी कोई कानूनी टिप्पणी सामने आती है तो वह मां के कर्तव्यों का ही बोध कराती है. जैसा कि होना था इस हालिया अदालती सुनवाई के दौरान भी वही हुआ. जनवरी के पहले हफ्ते में मद्रास हाईकोर्ट के जज ने अभिभावकता से जुड़े कुछ सुझाव केंद्र सरकार को दिए. इसमें जज ने केंद्र सरकार से सवाल करते हुए कहा है- क्यों न संयुक्त अरब अमीरात की तर्ज पर किसी भी औरत के लिए अपने नवजात शिशु को स्तनपान अनिवार्य रूप से कराने का कानून बना दिया जाए? सुनवाई के दौरान यह भी कहा गया कि- क्यों न आर्टिकल 19 के तहत स्तनपान को नवजात शिशु का मौलिक अधिकार बना दिया जाए?

क्यों न स्तनपान को अनिवार्य कर दिया जाए?

सुझाव और भी हैं. जैसे कार्यस्थलों पर क्रेच बनाना, मातृत्व अवकाश को बढ़ाकर 270 दिन यानी 9 महीने का कर देना. यह सुझाव पहली नजर में सामाजिक बोध कराने वाले और सह्दयता के सूचक लगते हैं. लेकिन अभिभावकता से जुड़े फैसले जब भी आते हैं मां के कर्तव्यों की ही याद दिलाते हैं. जजमेंट में पिता की भूमिका के बारे में जिक्र तक नहीं होता.

ठीक वैसे ही जैसे घर परिवार और समाज में शादी के एक साल पूरे होते ही औरत को इस सवाल से जूझना पड़ता है कि मां कब बनोगी? पास-पड़ोस और घर की महिलाएं यह सुझाव देते नहीं थकतीं कि नौकरी-वौकरी तो चलती रहेगी, मगर एक बच्चा जरूरी है. मेरी जानकारी में शादी के बाद शायद ही किसी पुरुष को इस सवाल से दो चार होना पड़ा हो, तुम पिता कब बन रहे हो, नौकरी-वौकरी तो चलती रहेगी मगर पिता बनने के सुखद एहसास से गुजरना जरूरी है.

एक और सवाल जिससे जी घबराता है वह यह कि- 'देखो बच्चा होने के बाद ऑड घंटों की नौकरी नहीं चल पाती. कम से कम दो साल के लिए तो नौकरी छोड़नी ही पड़ेगी. नैनी या कामवाली के साथ बच्चा रहेगा तो संस्कार क्या सीखेगा? वह तो उनके जैसा ही बन जाएगा.' एक और तंज जिससे हर कामकाजी औरत को गुजरना ही पड़ता है, वह यह कि- 'तुम अपने करियर को लेकर बेहद महत्वकांक्षी हो रही हो. जब बच्चा बड़ा हो जाए तो दोबारा नौकरी कर सकती हो.'

अब कैसे बताएं कि दो साल या पांच साल का गैप किसी कामकाजी औरत की इनकम को कितना कम कर देता है. ऐसे एक नहीं कई उदाहरण मिलेंगे. जिसमें मां बनने के बाद औरतों ने जिस सैलरी के साथ नौकरी छोड़ी, चार साल बाद उससे कम सैलरी पर दोबारा नौकरी ज्वाइन की. क्या समान काम के लिए समान वेतन पाना किसी औरत का मौलिक अधिकार नहीं? अगर अधिकार है तो फिर चार साल के गैप में कम हुई इनकम क्या उस अधिकार का हनन नहीं?

खासतौर पर निजी विभागों में काम करने वाली औरतों के सामने दो ही विकल्प होते हैं या तो बच्चों की देखभाल के लिए नौकरी छोड़ो और फिर कुछ सालों बाद उसी स्तर की नौकरी के लिए याचक बनकर किसी कंपनी में जाओ या फिर सुपर मॉम बनकर दोनों काम संभालो. यूनिवर्सिटी ऑफ ओट्टावा में इज ब्रेस्ट फीडिंग ट्रूली कॉस्ट फ्री? इनकम कॉंसीक्यूंसेस ऑफ ब्रेस्ट फीडिंग फॉर वुमेन नाम से शोधकर्ता फैलिस एलएस रिप्पे ने एक एक्पेरिमेंटल रिसर्च की. इस रिसर्च के रिजल्ट, इस बात की पुष्टि करते हैं कि छह महीने या उससे ज्यादा वक्त तक मां बनने के कारण छुट्टी पर रहने वाली औरतों की इनकम में कमी आती है. एक औरत जब मां बनती है तो उसकी आय में 4 प्रतिशत की कमी आती ही आती है.

मां बनने से डर नहीं लगता बल्कि...

द परफेक्ट नैनी नाम से आई एक बुक की फ्रेंच लेखिका लीला स्लीमनी ने इस बुक के बारे में दिए गए एक इंटरव्यु में साफ तौर पर कहा कि लोगों के मन में इस बात को भरना की नवजात बच्चे या छोटे बच्चों को नैनी के साथ रखना गलत है. क्योंकि यह विचार कहीं न कहीं औरतों के भीतर उस अपराध बोध को भरता है कि अगर उन्होंने अपने बच्चे को पूरा समय नहीं दिया तो वह मां से मॉंस्टर बन जाएंगी.

डियर सोसायटी एंड जजेस मेरे पास भी कुछ सुझाव हैं:

- मां बनने के एहसास को स्वर्गीय एहसास से न जोड़ा जाए. न ही मां के दूध को अमृत से ज्यादा फायदेमंद बताया जाए. बल्कि कुछ कदम ऐसे उठाए जाएं जिनसे नवजात शिशु और मां दोनों के मौलिक अधिकार कायम रहें.

पहला सुझाव- क्यों न सरकार नर्सों की तरह पेशेवर नैनीज को भी ट्रेनिंग दे.

दूसरा सुझाव- अनाथ बच्चों को गोद लेने की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया जाए. ऐसे परिवारों और बच्चों को सरकार पालन-पोषण के दौरान कुछ छूट भी दे सकती है.

तीसरा सुझाव- परिवार और सोसायटी के लिए है. केवल औरत नहीं बल्कि दोनों संस्थाएं बच्चे के पालन पोषण को अपना कर्तव्य समझें.

चौथा सुझाव- अगर छह महीने मां को छुट्टी दी जाए तो उसके बाद के छह महीने पिता को अवकाश मिले. ताकि मां और पिता दोनों अभिभावक होने का फर्ज अदा कर सकें.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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