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Hijab Row: मुस्लिम बेटियों को पढ़ने दीजिये, हिजाब में ही सही...

    • नाज़िश अंसारी
    • Updated: 10 फरवरी, 2022 06:59 PM
  • 10 फरवरी, 2022 06:59 PM
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हिजाब के विरोध में उतरे लोग ध्यान दें, बुर्क़े वाली को पढ़ने दीजिये. बाहर निकलने दीजिए. एक समझ बनने दीजिये. तय करने दीजिये उन्हें कि बुर्क़ा/हिजाब पहनना है या नहीं. उनके सामने नहीं, साथ आईये. नहीं हो पा रहा, तो हटिए बीच से.

मैं परिवार की पहली लड़की थी जिसने मास्टर्स किया. चूंकि मैं बड़ी थी. हर चीज़ की शुरुआत मुझ ही से होनी थी. सो उठने वाली निगाहें भी निशाने की तरह रहीं. कक्षा 6 से ही uniform की स्कर्ट 'निगाहों' में चुभने लगी. आठवीं में शलवार-कमीज़ से रिप्लेस कर दिया गया. मास्टर्स में चादर ओढ़ कर कालेज जाने वाली मैं अकेली लड़की थी. कालेज, जहां लड़कियां बुर्क़ा क्या हिजाब भी नहीं बांधती थीं. ज़्यादा पुरानी नहीं, 07-08 की बात है. नमूना टाइप फील होता. लेकिन पढ़ने के अलावा/साथ हमें इन्हीं कन्धों पर संस्कृति भी संभालनी थी. दहलीज लांघकर मरदों के बीच जाकर तालीम हासिल करने की यह छिपी शर्तें थीं.पिछली पीढ़ी में सिर्फ अम्मी ने इंटर किया. ऐसा नहीं कि बाक़ी लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा गया. बस यह था कि पढ़ने में मन नहीं लग रहा तो रहने दो. कौन सा नौकरी करनी है. ब्याह तो यूं भी हो जाना है. हो भी गये. (लगे हाथ यह भी कह लेने दीजिये भारतीय मिडिल क्लास में लड़कियां इसलिये पढ़ती हैं कि रिश्ते अच्छे मिल जाएंगे)

सवाल ये है कि यदि मुस्लिम महिलाएं अधिकार के नाम पर हिजाब की लड़ाई लड़ रही हैं तो इसमें हर्ज क्या है

मुझतक आते-आते बायोडाटा का प्रारूप बदल चुका था. अब ब्याह के लिये लड़की कम से कम बीए पास होनी चाहिये. घर से बाहर निकलने पर 'पर्दा' शर्त कभी चॉइस, कभी कंडीशनिंग के रूप में अब भी क़ायम थी. है.

वैसे गुज़िश्ता 10-12 सालों में हिजाब (स्कार्फ) का चलन बच्ची से लेकर युवतियों तक में बढ़ा है. पहले शादी के बाद बुर्क़ा डालने का रिवाज़ था. अब मार्केट, हॉस्पिटल, समारोह से लेकर स्कूल कालेज तक में हिजाब पहनी लड़की दिखना आम बात है. हालांकि लखनऊ, हैदराबाद, भोपाल जैसे मुगलिया/नवाबी कल्चरल इलाक़ों में बुर्क़े में कॉलेज/यूनिवर्सिटी जाने की बात सौ साल से भी पुरानी है. इस्मत चुगताई, शौक़त क़ैफी की आत्मकथाएं...

मैं परिवार की पहली लड़की थी जिसने मास्टर्स किया. चूंकि मैं बड़ी थी. हर चीज़ की शुरुआत मुझ ही से होनी थी. सो उठने वाली निगाहें भी निशाने की तरह रहीं. कक्षा 6 से ही uniform की स्कर्ट 'निगाहों' में चुभने लगी. आठवीं में शलवार-कमीज़ से रिप्लेस कर दिया गया. मास्टर्स में चादर ओढ़ कर कालेज जाने वाली मैं अकेली लड़की थी. कालेज, जहां लड़कियां बुर्क़ा क्या हिजाब भी नहीं बांधती थीं. ज़्यादा पुरानी नहीं, 07-08 की बात है. नमूना टाइप फील होता. लेकिन पढ़ने के अलावा/साथ हमें इन्हीं कन्धों पर संस्कृति भी संभालनी थी. दहलीज लांघकर मरदों के बीच जाकर तालीम हासिल करने की यह छिपी शर्तें थीं.पिछली पीढ़ी में सिर्फ अम्मी ने इंटर किया. ऐसा नहीं कि बाक़ी लड़कियों को स्कूल नहीं भेजा गया. बस यह था कि पढ़ने में मन नहीं लग रहा तो रहने दो. कौन सा नौकरी करनी है. ब्याह तो यूं भी हो जाना है. हो भी गये. (लगे हाथ यह भी कह लेने दीजिये भारतीय मिडिल क्लास में लड़कियां इसलिये पढ़ती हैं कि रिश्ते अच्छे मिल जाएंगे)

सवाल ये है कि यदि मुस्लिम महिलाएं अधिकार के नाम पर हिजाब की लड़ाई लड़ रही हैं तो इसमें हर्ज क्या है

मुझतक आते-आते बायोडाटा का प्रारूप बदल चुका था. अब ब्याह के लिये लड़की कम से कम बीए पास होनी चाहिये. घर से बाहर निकलने पर 'पर्दा' शर्त कभी चॉइस, कभी कंडीशनिंग के रूप में अब भी क़ायम थी. है.

वैसे गुज़िश्ता 10-12 सालों में हिजाब (स्कार्फ) का चलन बच्ची से लेकर युवतियों तक में बढ़ा है. पहले शादी के बाद बुर्क़ा डालने का रिवाज़ था. अब मार्केट, हॉस्पिटल, समारोह से लेकर स्कूल कालेज तक में हिजाब पहनी लड़की दिखना आम बात है. हालांकि लखनऊ, हैदराबाद, भोपाल जैसे मुगलिया/नवाबी कल्चरल इलाक़ों में बुर्क़े में कॉलेज/यूनिवर्सिटी जाने की बात सौ साल से भी पुरानी है. इस्मत चुगताई, शौक़त क़ैफी की आत्मकथाएं पढ़ लीजिये या मुस्लिम पृष्ठभूमि में बनी फिल्में देख लीजिये.

फिर अचानक उडुपी के सरकारी कॉलेज में क्या हुआ?

हिजाब/बुर्क़ा आइडेंटिटी का मसला कब से बन गया? हिजाब याने स्कार्फ में चेहरा दिखता है. बुर्क़े में चेहरा दिखाने के लिए कहा जा सकता है. मुद्दा चेहरा ही है तो इस वक़्त की मजबूरी 'मास्क' का क्या करेंगे. संविधान द्वारा दिये गये उस अधिकार का क्या करेंगे जो सभी नागरिकों को समान रूप से अपनी भाषा, संस्कृति, वेश-भूषा, धार्मिक चिन्हों, प्रतीकों को धारण करने, साथ रखने का अधिकार देता है. चाहे पगड़ी हो. कड़ा हो या कृपाण.

कर्नाटक के कॉलेज कैंपस में एक लड़की को घेर कर हुड़दंग करते लड़कों पर अफसोस लगता है. राम को बदनाम कर रहे जिन युवाओं को प्रयोगशालाओं में खपना था. क़िस्से, कहानियों, कविताओं में रमना था. वे हिजाब वर्सेज़ केसरिया गमछा में व्यस्त है. जब वर्सेज की ही बात है तो गमछा डाले सभी युवाओं को केसरिया बुर्के में आना चाहिये.

जय श्री राम के जवाब में अल्लाह हू अकबर. कट्टरता का जवाब कट्टरता ही होती है. हालांकि यह कट्टरता से कहीं ज़्यादा हिंदुओं द्वारा मुस्लिमों को डराने की कोशिश (साजिश) का जवाब है. अब जिन लड़कियों को नहीं ओढ़ना था. वे भी विरोध स्वरूप ओढ़ लेंगी. यह तो सबसे अच्छा है. आप पहनिये. दूसरे समुदाय की औरतों को भी पहनाइए. कपड़ो से ही तो होगा नारी सशक्तिकरण.

प्लीज़...प्लीज़... बंद कीजिये यह सब. अपनी राजनीती की रोटी किसी और मुद्दे पर सेंक लीजियेगा.

जिस माशरे में पहले से ही सख्ती है, उसे और सख्त मत बनाइये. आप नहीं जानते लड़कियों के घर से स्कूल तक के रास्ते में कितने स्पीड ब्रेकर होते हैं. कइयों के पास तो रास्ते ही नहीं होते. कुछ दशक पहले तक उर्दू अरबी के अतिरिक्त किसी भी क़िस्म शिक्षा को गैर ज़रूरी गैर मज़हबी कहा गया, वहां (अमूमन) बीए पास बहू की मांग के चलते लड़कियों को पढ़ाया जा रहा है.

हां, बुर्क़े या हिजाब की शर्त के साथ, हर्ज क्या है! कम से कम उन्हें पढ़ने दीजिये. बाहर निकलने दीजिए. एक समझ बनने दिजीये. तय करने दीजिये उन्हें कि बुर्क़ा/हिजाब पहनना है या नहीं. उनके सामने नहीं साथ आईये. नहीं हो पा रहा, तो हटिए बीच से. धर्म की राजनीती की इस घिनौनी कोशिश में वो जो आप की टांग हिजाब में फंस रही है, कृप्या उसे केसरिया गमछे में बांध लीजिये. मुस्लिम बेटियों को पढ़ने दीजिये. हिजाब में ही सही.

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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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