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न्‍यायपालिका की वो कमजोरी जो जस्टिस कर्नन को ताकत देती रही

    • रिम्मी कुमारी
    • Updated: 12 मई, 2017 05:15 PM
  • 12 मई, 2017 05:15 PM
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कर्नन के मामले के बाद न्यायपालिका और उसके कामकाज पर उंगलियां उठ रही हैं. तो आइए जानते हैं क्या कॉलेजियम सिस्टम और आखिर क्यों है इसमें खामी?

आज शायद ही ऐसा कोई होगा जो जस्टिस सी.एस. कर्नन को नहीं जानता होगा. इस साल की शुरूआत से ही उन्होंने मीडिया की सुर्खियों में जगह बना ली थी. कर्नन ने 23 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी थी. चिट्ठी में सुप्रीम कोर्ट एवं विभिन्न हाई कोर्टों के 20 जजों की सूची थी और उन्हें भ्रष्ट बताते हुए इनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की गई थी. इसके बाद इस मामले पर Suo moto यानी की स्वत: संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 8 फरवरी को कर्नन के खिलाफ नोटिस जारी किया था और उनसे पूछा था कि उनके इस पत्र को कोर्ट की अवमानना क्यों न माना जाए.

माना जाता है कि किसी पदस्थ जज को अवमानना का नोटिस दिए जाने की ये देश में पहली घटना है. इसके बाद से सुप्रीम कोर्ट और जस्टिस कर्नन के बीच की तनातनी लगातार जारी थी. इसी क्रम में सोमवार शाम को जस्टिस कर्नन ने भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के छह और जजों को अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अत्याचार अधिनियम के तहत दोषी ठहरा दिया और सभी को पांच साल तक सश्रम कारावास की सजा सुना दी थी. उन्होंने सभी पर दलित समुदाय का होने के कारण उनके खिलाफ भेदभाव करने का आरोप लगाया था.

यही नहीं इसके पहले 1 मई को जस्टिस कर्नन ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनके साइकोलॉजिकल इवोल्यूशन यानी मनोवैज्ञानिक टेस्ट कराने से इनकार कर दिया था. इसके बाद खुद कर्नन ने एयर कंट्रोल अथॉरिटी को आदेश दिया कि सुप्रीम कोर्ट के जजों के विदेश जाने पर पाबंदी लगाने का निर्देश दे डाला. इस आदेश के पीछे कर्नन ने कहा कि ये सुप्रीम कोर्ट जज विदेश में जाकर वहां भी 'जाति के भेदभाव के वायरस को फैलाएंगे' !

कर्नन ने सबके कान खड़े कर दिए

दरअसल ये कोई पहला मामला नहीं है जब जस्टिस कर्नन ने ऐसा विवाद खड़ा किया हो. इसके पहले मई 2015 में कर्नन अपने एक...

आज शायद ही ऐसा कोई होगा जो जस्टिस सी.एस. कर्नन को नहीं जानता होगा. इस साल की शुरूआत से ही उन्होंने मीडिया की सुर्खियों में जगह बना ली थी. कर्नन ने 23 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी थी. चिट्ठी में सुप्रीम कोर्ट एवं विभिन्न हाई कोर्टों के 20 जजों की सूची थी और उन्हें भ्रष्ट बताते हुए इनके खिलाफ कार्रवाई की मांग की गई थी. इसके बाद इस मामले पर Suo moto यानी की स्वत: संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 8 फरवरी को कर्नन के खिलाफ नोटिस जारी किया था और उनसे पूछा था कि उनके इस पत्र को कोर्ट की अवमानना क्यों न माना जाए.

माना जाता है कि किसी पदस्थ जज को अवमानना का नोटिस दिए जाने की ये देश में पहली घटना है. इसके बाद से सुप्रीम कोर्ट और जस्टिस कर्नन के बीच की तनातनी लगातार जारी थी. इसी क्रम में सोमवार शाम को जस्टिस कर्नन ने भारत के मुख्य न्यायाधीश और सुप्रीम कोर्ट के छह और जजों को अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अत्याचार अधिनियम के तहत दोषी ठहरा दिया और सभी को पांच साल तक सश्रम कारावास की सजा सुना दी थी. उन्होंने सभी पर दलित समुदाय का होने के कारण उनके खिलाफ भेदभाव करने का आरोप लगाया था.

यही नहीं इसके पहले 1 मई को जस्टिस कर्नन ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा उनके साइकोलॉजिकल इवोल्यूशन यानी मनोवैज्ञानिक टेस्ट कराने से इनकार कर दिया था. इसके बाद खुद कर्नन ने एयर कंट्रोल अथॉरिटी को आदेश दिया कि सुप्रीम कोर्ट के जजों के विदेश जाने पर पाबंदी लगाने का निर्देश दे डाला. इस आदेश के पीछे कर्नन ने कहा कि ये सुप्रीम कोर्ट जज विदेश में जाकर वहां भी 'जाति के भेदभाव के वायरस को फैलाएंगे' !

कर्नन ने सबके कान खड़े कर दिए

दरअसल ये कोई पहला मामला नहीं है जब जस्टिस कर्नन ने ऐसा विवाद खड़ा किया हो. इसके पहले मई 2015 में कर्नन अपने एक वरिष्ठ पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजय कौल के खिलाफ अवमानना की तैयारी कर रहे थे. अंत में सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में रोक लगानी पड़ी थी. जस्टिस कौल पर उन्होंने अपने काम में हस्तक्षेप करने और अपने खिलाफ भेदभाव करने का आरोप लगाया था. एक बार उन्होंने मद्रास हाईकोर्ट से अपने तबादले पर खुद ही रोक लगा दी थी. उसके बाद भी सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक आदेश जारी कर इस आदेश को रोका था.

इसके बाद कर्नन का तबादला कलकत्ता हाईकोर्ट में कर दिया गया. अब सवाल ये उठता है कि आखिर इतने के बाद भी कर्नन कैसे मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश बन गए? यही नहीं अब वो कलकत्ता हाईकोर्ट में जज क्यों है? इस गलती के लिए खुद न्यायपालिका ही जिम्मेदार है.

तो आइए जानते हैं कि आखिर क्या है न्यायपालिका के बंद दरवाजों के पीछे का पूरा मामला जहां से इतनी परेशानियां खड़ी करने के बावजूद कर्नन क्यों कानून से ऊपर हो गए:

जब जस्टिस ए के गांगुली मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे, तब उन्होंने तीन न्यायाधीशों के एक पैनल का नेतृत्व किया था. इसी कॉलेजियम ने भारत के चीफ जस्टिस के पास कर्नन का नाम हाई कोर्ट के जज के लिए प्रस्तावित किया. कॉलेजियम प्रोसेस में जज ही दूसरे जजों की नियुक्ति‍ करते हैं. हाई कोर्ट का कॉलेजियम अपनी सिफारिश सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम को भेजता है. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट अपनी सिफारिश राष्ट्रपति और केन्द्र सरकार के पास भेजती है. ज्यादातर मामलों में नियुक्ति रबर-स्टाम्प की तरह होती है, इसलिए 2009 में कर्नन की नियुक्ति को मंजूरी दे दी गई थी.

सुप्रीम कोर्ट और जस्टिस कर्नन के बीच के कई विवादों के मद्देनजर हाईकोर्ट कॉलेजियम के जज कर्नन के नॉमिनेशन पर बात करने के लिए तैयार हो गए. जस्टिस पीके मिश्रा ने कहते हैं- 'जस्टिस गांगुली ने कर्नन के नाम की सिफारिश की थी. इसके पहले मैंने कभी जस्टिस कर्नन का नाम नहीं सुना था. मैं बहुत शर्मिंदा हूं कि मैं ऐसे कॉलेजियम का हिस्सा था जिसने कर्नन के नाम की सिफारिश की थी.'

जस्टिस गांगुली ने कहा- 'कर्नन कभी, किसी भी केस उनके सामने नहीं आए थे.' पिछले साल अंग्रेजी अखबार द हिंदू द्वारा ये पूछे जाने पर कि आखिर क्यों उन्होंने जस्टिस कर्नन का नाम प्रस्तावित किया था, जस्टिस गांगुली ने कहा कि- 'उन्हें याद नहीं कि आखिर क्यों उन्होंने कर्नन का नाम प्रस्तावित किया था. मैं 2008 में वहां था, मुझे उस वक्त की कोई भी डिटेल याद नहीं है.'

2009 में भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बालकृष्णन की सिफारिश पर राष्ट्रपति ने आदेश जारी किए थे. बालकृष्णन ने इस पूरे मामले से अपना पल्ला झाड़ते हूए कहा- 'उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश नाम प्रस्तावित करते हैं और हम यानी की सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम सिर्फ उस फाइल को आगे बढ़ा देते हैं. मैंने कर्नन के बारे में कोई जांच नहीं की थी.'

जो लोग कोर्ट में नियुक्तियों की प्रक्रिया की अस्पष्टता से अपरिचित हैं, उन्हें आश्चर्य हो सकता है कि आखिर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट कॉलेजियम ने पूरे प्रोसेस का रिकॉर्ड क्यों नहीं रखा? सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट की कारवाई का कोई रिकॉर्ड नहीं होता क्योंकि कॉलेजियम और कुछ नहीं बल्कि कुछ चालबाज लोगों का एक ग्रुप होता है. जिसमें अधिकतर अधेड़ उम्र के पुरुष चाय और बिस्कुट के साथ गुपचुप बैठते हैं. उनके विचार-विमर्श का कोई लिखित रिकॉर्ड नहीं है और ना ही इनके काम में विधायिका और सरकार की कोई दखलअंदाजी होती है.

इस तरह साफ है कि बंद दरवाजों के पीछे आखिर किस आधार पर किसी जज के नाम की सिफारिश की जाती है इसकी खबर कॉलेजियम में मौजूद लोगों के अलावा किसी और को नहीं होती.

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